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चाह में है और कोई

ये असंगति जिन्दगी के द्वार सौ-सौ बार रोई
बांह में है और कोई, चाह में है और कोई

साँप के आलिंगनों में
मौन चन्दन तन पड़े हैं
सेज के सपनों भरे कुछ
फूल मुर्दों पर चढ़े हैं
ये विषमता भावना ने सिसकियाँ भरते समोई
देह में है और कोई, नेह में है और कोई

स्वप्न के शव पर खड़े हो
मांग भरती हैं प्रथाएं
कंगनों से तोड़ हीरा
खा रहीं कितनी व्यथाएं
ये कथाएं उग रही हैं नागफन जैसी अबोई
सृष्टि में है और कोई, दृष्टि में है और कोई

जो समर्पण ही नहीं हैं
वे समर्पण भी हुए हैं
देह सब जूठी पड़ी है
प्राण फिर भी अनछुए हैं
ये विकलता हर अधर ने कंठ के नीचे सँजोई
हास में है और कोई, प्यास में है और कोई

© Bharat Bhushan : भारत भूषण

 

सपनों का कर्ज

 

कल रात मचाया शोर बहुत
जाने कैसे सन्नाटे ने,
कल रात जगाया बहुत देर
यादों के सैर सपाटे ने,
कल रात सदा गाने वाली
कोयल मुँडेर पर रोयी है,
कल रात गगन ने रो रो कर
यह सारी धरती धोयी है,
कल रात हमारे आस पास, इक भीड़ भरा वीराना था,
कल रात उसे दुल्हन बनकर दिल की दुनिया से जाना था

कल रात न जाने क्या टूटा
आवाज हुयी सीधे दिल पर,
कलरात लिपटकर सिसक पड़ा
मेरे गीतों का हर अक्षर
कल रात अँधेरों ने ढोयी,
पालकी हमारे सपने की,
कल रात सुनायी गयी सजा
चाँदनी रात में तपने की,
कल रात हमारी आँखों को सपनों का कर्ज चुकाना था,
कल रात उसे दुल्हन बनकर दिल की दुनिया से जाना था

कल रात नयन की नदिया में
सपनों के बादल डूब गये,
कल रात हमारे समझौते
हम को समझा कर ऊब गये,
कल रात लुटे हम कुछ ऐसे
ज्यों रातों रात फकीर हुए
कल रात हुआ कुछ ऐसा, हम
तुलसी से आज कबीर हुये,
कल रात गयी,अब बात गयी,यह वक्त कभी तो आना था
कलरात उसे दुलहन बनकर दिल की दुनिया से जाना था

© Gyan Prakash Aakul : ज्ञान प्रकाश आकुल