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तस्वीर अधूरी रहनी थी

तू मन अनमना न कर अपना, इसमें कुछ दोष नहीं तेरा
धरती के काग़ज़ पर मेरी, तस्वीर अधूरी रहनी थी

रेती पर लिखे नाम जैसा, मुझको दो घड़ी उभरना था
मलयानिल के बहकाने पर, बस एक प्रभात निखरना था
गूंगे के मनोभाव जैसे, वाणी स्वीकार न कर पाए
ऐसे ही मेरा हृदय-कुसुम, असमर्पित सूख बिखरना था
जैसे कोई प्यासा मरता, जल के अभाव में विष पी ले
मेरे जीवन में भी कोई, ऐसी मजबूरी रहनी थी

इच्छाओं के उगते बिरुवे, सब के सब सफल नहीं होते
हर एक लहर के जूड़े में, अरुणारे कमल नहीं होते
माटी का अंतर नहीं मगर, अंतर रेखाओं का तो है
हर एक दीप के हँसने को, शीशे के महल नहीं होते
दर्पण में परछाई जैसे, दीखे तो पर अनछुई रहे
सारे सुख-वैभव से यूँ ही, मेरी भी दूरी रहनी थी

मैंने शायद गत जन्मों में, अधबने नीड़ तोड़े होंगे
चातक का स्वर सुनने वाले, बादल वापस मोड़े होंगे
ऐसा अपराध किया होगा, जिसकी कुछ क्षमा नहीं होती
तितली के पर नोचे होंगे, हिरनों के दृग फोड़े होंगे
अनगिनती कर्ज़ चुकाने थे, इसलिए ज़िन्दगी भर मेरे
तन को बेचैन विचरना था, मन में कस्तूरी रहनी थी

© Bharat Bhushan : भारत भूषण

 

Ameer Khusro : अमीर ख़ुसरो


नाम : अबुल हसन यमीनुदीन खुसरो
जन्म : 1253; बदायूँ

निधन : 1325


1253 में उत्तर प्रदेश के बदायूँ में जन्मे अमीर ख़ुसरो के पिता अमीर सैफ़ुद्दीन अफ़गानिस्तान के बल्ख़ नामक स्थान से आए थे। हिंदी के इस प्रथम कवि ने सात वर्ष की छोटी सी आयु में पिता को खो दिया और अपनी माँ के साथ दिल्ली (अपनी ननिहाल) चले आए। सन् 1271 में आपका पहला दीवान प्रकाशित हुआ। सन् 1272 में आप बलबन के दरबार में दरबारी कवि नियुक्त हुए। 1279 में अपने दूसरे क़लाम वस्तुल-हयात के लेखन के दौरान आपने बंगाल की यात्रा की। 1281 में आप बलबन के दूसरे पुत्र सुल्तान मुहम्मद के दरबार में नियुक्त हुए और सुल्तान के साथ मुल्तान की यात्रा की। 1285 में आपने मंगोलों के ख़िलाफ़ लड़ाई भी लड़ी और गिरफ़्तार भी हुए, लेकिन जल्द ही रिहा कर दिये गये। इसके बाद निज़मुद्दीन औलिया, अलाउद्दीन ख़िलजी, मुबारक़ ख़िलजी और मुहम्मद बिन तुगलक़ जैसे सुल्तानों की कहानी की गवाही देते हुए 72 वर्ष की आयु में सन् 1325 में आपका निधन हो गया।

आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने आपका परिचय देते हुए लिखा है- “पृथ्वीराज की मृत्यु (संवत् 1249) के 90 वर्ष पीछे ख़ुसरो ने संवत् 1340 के आसपास रचना आरंभ की। इन्होंने गयासुद्दीन बलबन से लेकर अलाउद्दीन और क़ुतुबुद्दीन मुबारक़शाह तक कई पठान बादशाहों का ज़माना देखा था। ये फारसी के बहुत अच्छे ग्रंथकार और अपने समय के नामी कवि थे। इनकी मृत्यु संवत् 1381 में हुई। ये बड़े ही विनोदी, मिलनसार और सहृदय थे, इसी से जनता की सब बातों में पूरा योग देना चाहते थे। जिस ढंग से दोहे, तुकबंदियाँ और पहेलियाँ आदि साधारण जनता की बोलचाल में इन्हें प्रचलित मिलीं उसी ढंग से पद्य, पहेलियाँ आदि कहने की उत्कंठा इन्हें भी हुई। इनकी पहेलियाँ और मुकरियाँ प्रसिद्ध हैं। इनमें उक्ति वैचित्र्य की प्रधानता थी, यद्यपि कुछ रसीले गीत और दोहे भी इन्होंने कहे हैं।

यहाँ इस बात की ओर ध्यान दिला देना आवश्यक प्रतीत होता है कि ‘काव्य-भाषा’ का ढाँचा अधिकतर शौरसेनी या पुरानी ब्रजभाषा का ही बहुत काल से चला आता था। अत: जिन पश्चिमी प्रदेशों की बोलचाल खड़ी होती थी, उनमें जनता के बीच प्रचलित पद्यों, तुकबंदियों आदि की भाषा ब्रजभाषा की ओर झुकी हुई रहती थी। अब भी यह बात पाई जाती है। इसी से ख़ुसरो की हिन्दी रचनाओं में भी दो प्रकार की भाषा पाई जाती है। ठेठ खड़ी बोलचाल, पहेलियों, मुकरियों और दो सखुनों में ही मिलती है- यद्यपि उनमें भी कहीं-कहीं ब्रज भाषा की झलक है। पर गीतों और दोहों की भाषा ब्रज या मुखप्रचलित काव्यभाषा ही है। यह ब्रजभाषापन देख उर्दू साहित्य के इतिहास लेखक प्रो. आज़ाद को यह भ्रम हुआ था कि ब्रजभाषा से खड़ी बोली (अर्थात् उसका अरबी-फारसी ग्रस्त रूप उर्दू) निकल पड़ी।”