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कोई छू ले मन!

काश!
कोई छू ले मन
देह छुए बिना!

….मन,
जो दबा है कहीं
देह की
परतों के नीचे
कोई हो,
जो जादू की छड़ी से
छू ले मन को
और जाग उठे मन
सपनों की
राजकुमारी की तरह

बस!
फिर यहीं
ख़त्म हो जाए कहानी।

जाना न पड़े
राजकुमारी को,
जादू की छड़ी वाले
राजकुमार के साथ!

बस
मन जागे
और बना ले ख़ुद
अपना रास्ता…
अपने पंख….
अपना आकाश….!

© Sandhya Garg : संध्या गर्ग

 

बहुत कम चाहा

हर नए मोड़ पे बस एक नया ग़म चाहा
गहरे ज़ख़्मों के लिए थोड़ा-सा मरहम चाहा
हमने जो चाहा उसे पाया हमेशा लेकिन
एक अफ़सोस यही है कि बहुत कम चाहा

© Ashutosh Dwivedi : आशुतोष द्विवेदी

 

वो दीपक मेरा अपना हो

नभ तक पसरे अंधकार में
अंधियारे के भय से आगे
आँखों में बस एक स्वप्न है
इस अभेद्य दुर्दांत तिमिर में
जिसकी किरण उजाला भर दे
वो दीपक मेरा अपना हो

निविड़ निशा का सन्नाटा हो
स्यालों के मातमी स्वरों से
अंतर्मन बैठा जाता हो
देह चीरती शीतलहर में
झींगुर का स्वर दहलाता हो
भयाक्रांत अस्तित्व सहमकर
सरीसृपों के आभासों से
सधा-बचा बढ़ता जाता हो
ऐसी कालरात्रि से बचकर
शुभ-मुहूर्त का इंगित पाकर
जो जग के जीवन को स्वर दे
वो कलरव मेरा अपना हो

भाग्य रेख जब कटी फटी हो
गृह-नक्षत्र विरुद्ध खड़े हों
कालसर्प हो, पितृदोष हो
सब कुयोग-अभिशाप दृष्ट हों
कर्म और फल की चिंता तज
विधिना के लेखे विस्मृत कर
मेरे हित सब नियम तोड़ कर
जो धरती को अम्बर कर दे
वो ईश्वर मेरा अपना हो

© Chirag Jain : चिराग़ जैन

 

छोटा-सा लड़का

कहीं एक छोटा-सा लड़का
छोटे कस्बे में रहता था
इक दिन वो भी बड़ा बनेगा
अक्सर सबसे ये कहता था
उन छोटी-छोटी ऑंखों में
सपने काफ़ी बड़े-बड़े थे
उसके मन के भीतर जाने
कितने अरमां भरे पड़े थे

अपने इन सपनों को जब वो
अपनी ऑंखों में भरता था
पंख तौल कर अपने जब वो
उड़ने की सोचा करता था
तब उसको लगता कस्बे का
बस मुट्ठी भर आसमान है
इतने से उसका क्या होगा
उसकी तो लम्बी उड़ान है

यही सोचता रहता दिन भर
आख़िर वो दिन कब आएगा
जब वो अपने पंख पसारे
खुले गगन में उड़ जाएगा
इक दिन क़िस्मत ले ही आई
उसे इक ऐसे महानगर में
जहाँ उजाला ही रहता था
सात दिवस के आठ पहर में

असली सूरज के ढलते ही
नक़ली सूरज उग आते थे
इसी वजह से यहाँ परिन्दे
दूर-दूर तक उड़ पाते थे
गाँव-गली में शाम ढले ही
जब दिन धुंधलाने लगता है
तब लोगों को रात बिताने
घर वापस आना पड़ता है

लेकिन इस मायानगरी का
केवल दिन से ही था नाता
इस नगरी में छोटा लड़का
लम्बी दूरी तक उड़ जाता
अब वो इक छोटा-सा लड़का
पंख पसारे ऊँचा उड़ता
आगे ही बढ़ता रहता था
लेकिन पीछे कभी न मुड़ता

उड़ते-उड़ते कभी-कभी जब
याद उसे कस्बा आता था
तब जाने क्यों छोटा लड़का
कुछ उदास-सा हो जाता था
तब वो रुककर सोचा करता
क्या ये रास उसे आएगा
क्या वो इन कोमल पंखों से
सारा जीवन उड़ पाएगा

कभी अगर इस महानगर की
हवा श्वास में भर जाती थी
तो पल भर में ही वो उसका
जीवन दूभर कर जाती थी
इस अनजाने महानगर में
कोई किसी का मीत नहीं है
यहाँ सिर्फ़ बेगानापन है
अपनेपन की रीत नहीं है

घबराता जब छोटा लड़का
तभी एक झोंका आता था
और उसी झोंके के संग में
लड़का फिर से उड़ जाता था
हँसते-रोते ही वह लड़का
महानगर में जी लेता था
सुख के दुख के सभी घूँट; वो
धीरे-धीरे पी लेता था

आख़िर सीख लिया उसने भी
थोड़ी चालाकी अपनाना
ज्यादा ऊँचाई पाने को
लोगों के ऊपर चढ़ जाना
अब उसको सारी चालाकी
साधारण सी ही लगती थी
महानगर की हवा उसे अब
प्राणवायु जैसी लगती थी
उसने सीख लिया था अब
संबंधों की सीढ़ी चढ़ लेना
ख़ुद का क़द ऊँचा करने को
औरों को छोटा कर देना
अब वो दिन भर उड़ता रहता
महानगर के आसमान में
कोई बाधा नहीं थी उसको
ऊँची से ऊँची उड़ान में

लेकिन अब छोटे लड़के को
महानगर भी छोटा लगता
अब वो अपने पंख तौलने
और कहीं की सोचा करता
ऐसा ना हो भटक जाए वो
और कहीं से और कहीं पर
ऐसा ना हो आन गिरे वो
नीले नभ से हरी ज़मीं पर

© Sandhya Garg : संध्या गर्ग

 

बूंदों की भाषा

खिड़की में से आती धीमी हवा
और ठण्डी फुहार
दिलाती हैं
तुम्हारी कमी का अहसास
और भी तेज़ी से

चाहता है मन,
कि भीगें इस फुहार में
साथ-साथ…
और चलते रहें कहीं दूर
और दूर….

या फिर घर में बैठे रहें
साथ-साथ,
और ढेर सारी बातें करें
धीमे-धीमे!

लेकिन केवल ख़्याल ही हैं ये
मैं बैठी हूँ अकेली
खिड़की से देखती
इस फुहार को
और सोचती हुई
तुम्हारे बारे में
तुम्हारी खिड़की के बाहर भी
बरस रही होंगी बूंदें
उनकी भाषा
तुम समझ पा रहे हो?
वो कह रही हैं जो कुछ
तुम सुन रहे हो ना?

…या फिर
भीगने के डर से
खिड़की बन्द किए
सो रहे हो
आराम से?

© Sandhya Garg : संध्या गर्ग

 

अनकहा इससे अधिक है

अनकहा इससे अधिक है
तुम अधूरी बात सुनकर चल दिए!
जो सुना तुमने अभी तक, अनसुना इससे अधिक है
जो कहा मैंने अभी तक, अनकहा इससे अधिक है

मैं तुम्हारी और अपनी ही कहानी लिख रहा था
वक़्त ने जो की थी मुझ पे मेहरबानी लिख रहा था
पत्र मेरा अन्त तक पढ़ते तो ये मालूम होता
मैं तुम्हारे नाम अपनी ज़िन्दगानी लिख रहा था
तुम अधूरा पत्र पढ़कर चल दिए-
जो पढ़ा तुमने अभी तक, अनपढ़ा इससे अधिक है
जो लिखा मैंने अभी तक, अनलिखा इससे अधिक है

प्रार्थना में लग रहा कोई कमी फिर रह गई है
हँस रहा हूँ किन्तु पलकों पर नमी फिर रह गई है
फिर तुम्हारी ही क़सम ने इस क़दर बेबस किया
ज़िन्दगी हैरान मुझको देखती फिर रह गई है
भाग्य-रेखाओं में मेरी आज तक-
जो लिखा तुमने अभी तक, अनलिखा इससे अधिक है
जो कहा मैंने अभी तक, अनकहा इससे अधिक है

हो ग़मों की भीड़ फिर भी मुस्कुराऊँ, सोचता हूँ
मैं किसी को भूलकर भी याद आऊँ, सोचता हूँ
कोई मुझको आँसुओं की तरह पलकों पर सजाए
और करे कोई इशारा, टूट जाऊँ सोचता हूँ
ज़िन्दगी मुझसे मिली कहने लगी-
जो गुना तुमने अभी तक, अनगुना इससे अधिक है
जो कहा मैंने अभी तक, अनकहा इससे अधिक है

यूँ तो शिखरों से बड़ी ऊँचाईयों को छू लिया है
छूने को पाताल-सी गहराईयों को छू लिया है
विष भरी बातें हँसी जब बींध कर मेरे ह्रदय को
ख़ुश्बुएँ छू कर लगा अच्छाईयों को छू लिया है
तुम मिले जिस पल मुझे ऐसा लगा-
जो छुआ मैंने अभी तक, अनछुआ इससे अधिक है
जो कहा मैंने अभी तक, अनकहा इससे अधिक है
तुम अधूरी बात सुनकर चल दिए!

© Dinesh Raghuvanshi : दिनेश रघुवंशी