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एकलव्य

कैसा बेशर्म ट्यूटर था
एक मिनट पढ़ाया
और बरसों बाद बोला-
‘लाओ मेरी फीस’
उस लड़के को देखो
(कहाँ चरने चली गई थी अक्ल?)
अंगूठा काट कर सामने रख दिया
सीधा-सादा
ट्राइबल था बेचारा
आ गया रोब में
अब बांधता फिर उम्र भर पानी की पट्टी!
शर-संधान तुझसे होगा नहीं
भविष्य में
नहीं कर पाएगा
कुत्तों को अवाक्!

© Jagdish Savita : जगदीश सविता

 

सावित्री

पक्की ऑडिटर थी सावित्री
क्वेरी पर क्वेरी कर के
पकड़ ही ली यमराज की इर्रेगुलरिटी
आख़िर करा ही ली
अपने हसबैण्ड की सोल की रिकवरी
इसको कहते हैं एफिशिएंसी!

© Jagdish Savita : जगदीश सविता

 

संजय

मैं कवि, मैं संजय
आह दिव्य दर्शन
बन गया वरदान भी अभिशाप!

एक सत्ता-अन्ध
एक निस्सत्व
ओ रे लोलुपो!
ठहरो
तुम्हारे हेतु
धरती पूत बँट कर रह गए
कट-मर रहे हैं!
ठहर युग के कृष्ण!
मत बुन भ्रान्तियों का जाल
उसको फेंकने दे अस्त्र
वह एक द्रवित मानव!
देख
काम आ जाएंगे अभिमन्यु
यहाँ कुछ न बचेगा
मात्र शर-शैया पर लेटा भीष्म
और सुनसान!
जो जीतेंगे वह भी गल मरेंगे!

क्या कहा
मुझको नहीं अधिकार
दूँ मैं सीख
मेरा काम केवल
दीठ के जो सामने
कहता-सुनाता रहूँ
उस मृत प्राय: अन्धे को
कि जिसके नाम का शासन
हाँ बस नाम का ही!

मैं कवि मैं संजय
आह दिव्य दर्शन
बन गया वरदान भी अभिशाप!

© Jagdish Savita : जगदीश सविता

 

दधीचि

ये लो
सम्भालो मेरी अस्थियाँ
कर लो वज्र का निर्माण
नहीं रह पाओगे नपुंसक
जो भी आसुरी है
लग जाएगा ठिकाने
सूत्रपात होगा
नए कल्पान्तर का!

© Jagdish Savita : जगदीश सविता

 

अश्वत्थामा

किंवदंती है कि अश्वत्थामा अमर है। छल से उसने द्रौपदी के पाँच नन्हे-निरीह शिशुओं का वध किया तो पाण्डवों ने दण्ड स्वरूप उसकी मस्तक मणि को निकाल लिया। मर वह सकता नहीं था।

कहते हैं आज भी कमण्डल में रखे लेप से उस अगम घाव को भरता इधर-उधर भटकता रहता है। कुछ का कहना है कि उन्होंने देखा है, उनसे मिला है।

मुझे-
अमरता को मेरी
शापित करने से पूर्व
-बताया जाए
कब किस दुर्योधन से-
किस पांचाली के निरीह शिशुओं का
मैंने रक्त बहा
-मित्रता निभाई?
मेरे कारण
बोलो
कब, किस धर्मराज का गला अंगूठा?

फिर मुझको क्यों दिया जा रहा
यह कठोर दुस्सह दण्ड?
न छीनो
हाय! न छीनो
मेरी मस्तक मणि को!
यह तो ज्ञात तुम्हें भी है कि
मैं मरने वालों में नहीं

मगर
यह घाव अगम
क्या कभी भरेगा?
हो पाएगा रिक्त कमण्डल
कभी लेप से?
छिन दो छिन को ही सही
पड़ेगा चैन कभी पीड़ा को?

या मैं युगों-युगों तक
सारे जग से आँख चुराए
पर्वत-पर्वत
घाटी-घाटी
यूँ ही भ्रमता फिरूँ
झल्लाता!

© Jagdish Savita : जगदीश सविता

 

 

प्रामिथस

प्रामिथस स्वर्ग से ज्ञान की आग चुरा लाया था। दण्ड स्वरूप स्वर्ग के मालिक ज्रियस ने उसे एक चट्टान से बंधवा दिय। हर सुबह आसमान से एक बाज़ उतरता और प्रामिथस के जिगर को नोच-नोच कर खाता। वर्षों उसे यह दण्ड दिया गया। मिथक के अनुसार कालान्तर में हरक्युलिस के हाथों वह इस दुधर्ष दण्ड से मुक्त हो पाया।

ओ रे ओ!
मेरे जग के शासक कठोर!
स्वीकारता हूँ
मैं लुक-छिप
तेरा मर्म चुरा लाया था-नीचे
यह अंगारा
आपेक्षित था
भोली और निरीह
भटकती
ठोकर खा खा गिरती-उठती
तेरी रौरव क्रूर यातना की शिकार
मेरी प्यारी दुनिया कोऋ
आवश्यक था
मैं कर गुज़रूँ
यह तुझको जो आज-
ठीक ही
-लगता है
मेरा संगीन ज़ुर्म
अक्षम्य पाप!

उफ रे तेरा भीषण प्रकोप!
आलोक मुखर जागृति हमारी
हम दुनियादारों की
केवल इसीलिए क्या
फौलादी ज़ंजीरों में जकड़ा तन तूने
चट्टानों के साथ
बांध रखा है?
लेकिन
एक मेरा मन भी है पागल!
उसको बांधे तो मैं जानूँ

यह ज़ालिम ख़ुंखार बाज़
हर रोज़ पठाया तेरा
सूने में से तैर आता है
मेरा जिगर नोच खाने को…

खा ले
नित्य नया निर्माण
यहाँ भी
कभी न रुक पाएगा!
बतला
क्या ऐसा भी हुआ
कि तेरा तातारी यह
कभी लौटा पहुँचा होवे अतृप्त?
नहीं ना!
पर तू दिलवालों को भी पहचाने
तब तो!

विश्व नियंता सही
मगर तू हृदयहीन है!

जाने भी दे
क्या रखा है
इस थोथे प्रभाव हीन रोष में?
हम
और तुझ से
अब भी हों भयभीत?
नहीं
बस बहुत हो चुकाऋ
तनी-तनी ये भौहें
चढ़ा-चढ़ा सा चेहरा
यह मुद्रा विद्रूप
हँसी आती है सचमुच!

देख
आज तक जिन्हें
बहुत बहकाया
भरमाया, भटकाया
और सताया तूने

उनके संग रुपहली
और धुपहली
और सुनहली
ऊषा फागुन खेल रही है!

© Jagdish Savita : जगदीश सविता

 

महाकाव्य

रामायण-
कहानी है भले मानुषों की
इसका तो रावण तक
ख़ासा मर्यादित है

पात्र हैं महाभारत के
एक से बढ़ कर एक
लम्पट शान्तनु
कुण्ठाओं का गट्ठड़ भीष्म
भाड़े का टट्टू द्रोण
और निरीह शिशुओं का हत्यारा
उसका कुलदीपक,
दूरदर्शी संजय
अन्धा धृतराष्ट्र
फूट चुकी थीं जिसकी
हिये की भी!

गान्धारी
जिसकी आँखों पर
वाकई पट्टी बंधी थी
कुँआरी माँ कुन्ती
पाँच भाइयों की कॉमन प्रॉपर्टी पांचाली
सत्ता के नशे में चूर दुर्योधन
और उसका महा उस्ताद मामा
मुँह की खाने वाला दानवीर
बिना सोचे-समझे
चक्रव्यूह में कूद जाने वाला अभिमन्यु
धर्मी-कर्मी युधिष्ठिर
पहलवान भीम
नपुंसक धनुर्धारी
और उसकी गाड़ी खींच ले जाने वाला
छलिया कृष्ण
जिसे भगवान मान लेने में ही ख़ैर
लड़ाई में खेत हुए कौरव
जीत के बाद भी
गल-गल मरने वाले पाण्डव
ये सभी
मानो चिल्ला-चिल्ला कर कह रहे हों-
”हम आज भी हैं
महाभारत कभी ख़त्म नहीं होता…”

© Jagdish Savita : जगदीश सविता

 

यशोधरा

अब की बार
निशाने पर थे तथागत!
पूरा प्रबन्ध काव्य रचा गया
सशक्त और छन्दोबद्ध भाषा में
सिद्ध कर दिया
कि भटक गया था वह
बुद्ध हो कर भी रहा अधूरा
सम्पूर्ण थी केवल यशोधरा
अपने दुधमुँहे के साथ!

© Jagdish Savita : जगदीश सविता

 

पाञ्चजन्य

भुरभुरे आवरण को
लिजलिजाते बरसाती कीड़े
समझते हैं दुर्भेद्य कवच!
इन्हीं अनोखे खिलौनों से
खेलते हैं नटखट बालक
बहुधा करते हैं छेड़छाड़
और फेंक देते हैं कहीं के कहीं
हज़ारों तो बूट तले दब-पिस जाया करते हैं

अचरज की बात
वासुदेव का पाञ्चजन्य
जिसके उद्धोष से
आतताइयों के अन्तर दहल जाते थे
-इसी परिवार
इन्हीं घोंघों का पूर्वज रहा था कभी!

© Jagdish Savita : जगदीश सविता

 

विश्वामित्र

इन्द्र को हर समय अपने सिंहासन की फ़िक्र लगी रहती है। विश्वामित्र की तपस्या भंग करने के लिए स्वर्ग से मेनका नामक अप्सरा को भेजा गया। वह सफल भी हुई। कहते हैं शकुन्तला, जो आगे

चलकर कण्व ॠषि के आश्रम में पल कर बड़ी हुई, विश्वामित्र और मेनका की ही पुत्री थी।

मत पूछ अप्सरे!
इस मुस्कान का रहस्य मत पूछ
समझ ले कि यूँ ही बस
मुझसे रहा नहीं गया!
तेरी भौहों में तने विजयादर्प की-
डरता हूँ
-कहीं शिंजा ही न टूट जाए!
यह साफ शरारती हँसी
इसमें आग भी लग सकती है।

इन्द्रासन सुरक्षित हुआ
तेरी अर्थ सिद्धि हो गई
अब तू जा
तपोवन हम जैसों के लिए है

मैं कह तो दूँ
पर तू
मात्र अभिनय ही रहा हो
जिसके सम्पूर्ण अस्तित्व का अर्थ
तू समझेगी क्या?

सत्य दर्शन
ये रहस्य की बातें
तू समझ सकती
तो कैसे वह महफिल सजती?
न नाचती होती
हत-बल देवताओं के
ईष्यालु शासक के इशारों पर
और बार-बार यह जो तुझे
नीचे उतर आना होता है
यह भी न होता।

सूने में मधुबन
तू क्या समझती है
कोई अनंग आ कर भर गया?
पर जान सके यदि
है यह भी तपस्या का ही चमत्कार!

वृथा डरता है तेरा लोभी स्वामी
हम तपस्वी तो
किसी का स्वर्ग हड़पने नहीं
अपितु तुझे उतार लाने को
समाधिस्थ होते हैं, नादान!

स्वयं मुक्ति आकर गलबाँहें डाले
कल्पना मूर्ति के अधरों का रसपान
मैंने भगवान को नाचते देखा है
मगर
अब बता कैसे न हँसता?
-वह समझता है कि
मेरी तपस्या धूल कर चला!

© Jagdish Savita : जगदीश सविता