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कितनी बड़ी क़ीमत है!

कितनी बड़ी क़ीमत है!
तुमने कहा था-
”तुम्हीं मेरे लिए
भगवान हो”

….सुनकर
बहुत अच्छा
नहीं लगा था

जान गई थी
रहना पड़ेगा
एक और रिश्ते में
भगवान की
उस मूर्ति की तरह
जो खड़ी रहती है
चुपचाप…

लोग
आते हैं उसके पास
दुख में
परेशानी में
और क्रोध में भी!

…करते हैं शिक़ायतें
और देते हैं गालियाँ!
कहती नहीं है मूर्ति
कुछ भी,
प्रत्युत्तर में।
बस मुस्कुराती रहती है।

क्योंकि जानती है
दे देगी
जिस दिन कोई उत्तर
लोग छोड़ देंगे
उसके पास आना भी।

सच!
सुनना
सहना
और मुस्कुराते रहना….

कितनी बड़ी क़ीमत है
भगवान बनने की!

© Sandhya Garg : संध्या गर्ग

 

वह चाहती है

मांगती है
यह धरा
अब इक नई आकाश-गंगा
और नया ही चांद-सूरज
चाहती है मुक्त होना
सतत् इस दिन-रात से
छोड़ उजियारे पराए
निज के अंधियारे जलाए
हो के ताज़ा दम ये धरती
स्वयं अपना सूर्य होना चाहती है
चाहती है तोड़कर
जीर्ण सारी मान्यताएँ
ख़ुद रचे इक सौर्य-मंडल
ख़ुद से नभ-तारे बनाए
काटती चक्कर युगों से
अब स्वयं यह केन्द्र होना चाहती है
चाह कर भी चाह ना पाई कभी जो
मुक्त होकर उस रुदन से

© Vivek Mishra : विवेक मिश्र

 

कोई छू ले मन!

काश!
कोई छू ले मन
देह छुए बिना!

….मन,
जो दबा है कहीं
देह की
परतों के नीचे
कोई हो,
जो जादू की छड़ी से
छू ले मन को
और जाग उठे मन
सपनों की
राजकुमारी की तरह

बस!
फिर यहीं
ख़त्म हो जाए कहानी।

जाना न पड़े
राजकुमारी को,
जादू की छड़ी वाले
राजकुमार के साथ!

बस
मन जागे
और बना ले ख़ुद
अपना रास्ता…
अपने पंख….
अपना आकाश….!

© Sandhya Garg : संध्या गर्ग

 

यशोधरा

अब की बार
निशाने पर थे तथागत!
पूरा प्रबन्ध काव्य रचा गया
सशक्त और छन्दोबद्ध भाषा में
सिद्ध कर दिया
कि भटक गया था वह
बुद्ध हो कर भी रहा अधूरा
सम्पूर्ण थी केवल यशोधरा
अपने दुधमुँहे के साथ!

© Jagdish Savita : जगदीश सविता