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तस्वीर अधूरी रहनी थी

तू मन अनमना न कर अपना, इसमें कुछ दोष नहीं तेरा
धरती के काग़ज़ पर मेरी, तस्वीर अधूरी रहनी थी

रेती पर लिखे नाम जैसा, मुझको दो घड़ी उभरना था
मलयानिल के बहकाने पर, बस एक प्रभात निखरना था
गूंगे के मनोभाव जैसे, वाणी स्वीकार न कर पाए
ऐसे ही मेरा हृदय-कुसुम, असमर्पित सूख बिखरना था
जैसे कोई प्यासा मरता, जल के अभाव में विष पी ले
मेरे जीवन में भी कोई, ऐसी मजबूरी रहनी थी

इच्छाओं के उगते बिरुवे, सब के सब सफल नहीं होते
हर एक लहर के जूड़े में, अरुणारे कमल नहीं होते
माटी का अंतर नहीं मगर, अंतर रेखाओं का तो है
हर एक दीप के हँसने को, शीशे के महल नहीं होते
दर्पण में परछाई जैसे, दीखे तो पर अनछुई रहे
सारे सुख-वैभव से यूँ ही, मेरी भी दूरी रहनी थी

मैंने शायद गत जन्मों में, अधबने नीड़ तोड़े होंगे
चातक का स्वर सुनने वाले, बादल वापस मोड़े होंगे
ऐसा अपराध किया होगा, जिसकी कुछ क्षमा नहीं होती
तितली के पर नोचे होंगे, हिरनों के दृग फोड़े होंगे
अनगिनती कर्ज़ चुकाने थे, इसलिए ज़िन्दगी भर मेरे
तन को बेचैन विचरना था, मन में कस्तूरी रहनी थी

© Bharat Bhushan : भारत भूषण

 

ग़लत-सलत

सवाल सब ग़लत-सलत; जवाब सब ग़लत-सलत
हैं भाव सब ग़लत-सलत; हिसाब सब ग़लत-सलत
ख़ुशी सही, न ग़म सही; न तुम सही, न हम सही
हुज़ूर सब ग़लत-सलत! जनाब सब ग़लत-सलत!

नशे में ख़ुश्बुओं के ख़ुद, गुलों ने शाख़ तोड़ दी
रुतों ने जाम भर लिए, बची जो कल पे छोड़ दी
समुन्दरों की सम्त ही, गईं तमाम बदलियाँ
ज़रूरतों ने आरज़ू यहाँ-वहाँ निचोड़ दी
यहाँ पे सब अजीब है, जो मिल गया नसीब है
नज़र में हैं जो भूख की, वो ख्वाब सब ग़लत-सलत
हुज़ूर सब ग़लत-सलत! जनाब सब ग़लत-सलत!

है सुब्ह चुप, है शाम चुप, अवाम चुप, निज़ाम चुप
ग़मों पे बेग़मात के, हैं शाह चुप, ग़ुलाम चुप
है दौर-ए-बेहिसी, कोई ज़ुबान खोलता नहीं
न जाने कैसा शोर है, रहीम चुप, है राम चुप
तमाम ज़िद्द फ़िज़ूल की, चली न एक शूल की
रखें ने बाग़बान ने ग़ुलाब सब ग़लत-सलत
हुज़ूर सब ग़लत-सलत! जनाब सब ग़लत-सलत!

ग़ुरूर ताज का कहीं, फ़राज़ का सुरूर है
कहीं तमाम उम्र की थकन से जिस्म चूर है
तेरा ही मर्तबा सही, तू ही यहाँ ख़ुदा सही
मगर तेरे निसार में कमी तो कुछ ज़रूर है
जहाँ लबों पे प्यास है, न जाम आसपास है
न जाने किसने बाँट दी, शराब सब ग़लत-सलत
हुज़ूर सब ग़लत-सलत! जनाब सब ग़लत-सलत!

चला जो तीर बेसबब, बहा जो नीर बेसबब
उठी जो अह्ले-अम्न के दिलों में पीर बेसबब
कहीं पे कुछ घटा नहीं, कहीं पे कुछ बढ़ा नहीं
यहाँ पे मीर बेसबब, यहाँ कबीर बेसबब
न जाने क्या लिखा गया, न जाने क्या पढ़ा गया
जहाँ में यार अम्न की किताब सब ग़लत-सलत
हुज़ूर सब ग़लत-सलत! जनाब सब ग़लत-सलत!

न फूल की न ख़ार की, न जुस्तजू बहार की
जिगर को अब कोई तलब, न जीत की न हार की
उदास है कली इधर, ग़ुलों में बेक़ली उधर
जली-बुझी, बुझी-जली, है शम्अ इंतज़ार की
न जाने वो कहाँ गया, न जाने मैं कहाँ गया
हुआ है ज़िन्दगी में सब ख़राब सब ग़लत-सलत
हुज़ूर सब ग़लत-सलत! जनाब सब ग़लत-सलत!

© Charanjeet Charan : चरणजीत चरण

 

किसी से बात कोई आजकल नहीं होती

किसी से बात कोई आजकल नहीं होती
इसीलिए तो मुक़म्म्ल ग़ज़ल नहीं होती

ग़ज़ल-सी लगती है लेकिन ग़ज़ल नहीं होती
सभी की ज़िंदगी खिलता कँवल नहीं होती

तमाम उम्र तज़ुर्बात ये सिखाते हैं
कोई भी राह शुरु में सहल नहीं होती

मुझे भी उससे कोई बात अब नहीं करनी
अब उसकी ओर से जब तक पहल नहीं होती

वो जब भी हँसती है कितनी उदास लगती है
वो इक पहेली है जो मुझसे हल नहीं होती

© Dinesh Raghuvanshi : दिनेश रघुवंशी

 

चुप्पियाँ बोलीं

चुप्पियाँ बोलीं
मछलियाँ बोलीं-
हमारे भाग्य में
ढ़ेर-सा है जल, तो तड़पन भी बहुत है

शाप है या कोई वरदान है
यह समझ पाना कहाँ आसान है
एक पल ढेरों ख़ुशी ले आएगा
एक पल में ज़िन्दगी वीरान है
लड़कियाँ बोलीं-
हमारे भाग्य में
पर हैं उड़ने को, तो बंधन भी बहुत हैं…

भोली-भाली मुस्कुराहट अब कहाँ
वे रुपहली-सी सजावट अब कहाँ
साँकलें दरवाज़ों से कहने लगीं
जानी-पहचानी वो आहट अब कहाँ
चूड़ियाँ बोलीं-
हमारे भाग्य में
हैं ख़नकते सुख, तो टूटन भी बहुत हैं…

दिन तो पहले भी थे कुछ प्रतिकूल से
शूल पहले भी थे लिपटे फूल से
किसलिये फिर दूरियाँ बढ़ने लगीं
क्यूँ नहीं आतीं इधर अब भूल से
तितलियाँ बोलीं-
हमारे भाग्य में
हैं महकते पल, तो अड़चन भी बहुत हैं…

रास्ता रोका घने विश्वास ने
अपनेपन की चाह ने, अहसास ने
किसलिये फिर बरसे बिन जाने लगी
बदलियों से जब ये पूछा प्यास ने
बदलियाँ बोलीं-
हमारे भाग्य में
हैं अगर सावन तो भटकन भी बहुत हैं…

भावना के अर्थ तक बदले गए
वेदना के अर्थ तक बदले गए
कितना कुछ बदला गया इस शोर में
प्रार्थना के अर्थ तक बदले गए
चुप्पियाँ बोलीं-
हमारे भाग्य में
कहने का है मन, तो उलझन भी बहुत हैं…

© Dinesh Raghuvanshi : दिनेश रघुवंशी

 

रूठकर आए तुम

रूठकर आए तुम
“शहर से कोई आता नहीं लौटकर”
ऐसी हर बात को झूठ कर आए तुम
प्रीत पर पीर की जब परत जम गई
तब किसी बीज-से फूटकर आए तुम

भोर आई नयन में निशा आँजकर
धूप बैठी थी मल देह नवनीतता
आस और त्रास में झूलता था हृदय
पल में युग रीतते, पल नहीं बीतता
तोड़कर चल पड़े स्वप्न जिस नैन के
अब उसी नैन में टूटकर आए तुम

इक छवि शेष तो थी हृदय में कहीं
व्यस्तताओं ने तुमको दिया था भुला
हँस पड़ी रोते-रोते प्रतीक्षाएँ सब
कह रहा है समय क्या कोई चुटकुला
थक गईं सारी अनुनय-विनय उस जगह
आए भी तो प्रिये रूठकर आए तुम

© Manisha Shukla : मनीषा शुक्ला

 

तुमसे मिलकर

तुमसे मिलकर जीने की चाहत जागी
प्यार तुम्हारा पाकर ख़ुद से प्यार हुआ

तुम औरों से कब हो, तुमने पल भर में
मन के सन्नाटों का मतलब जान लिया
जितना मैं अब तक ख़ुद से अनजान रहा
तुमने वो सब पल भर में पहचान लिया
मुझ पर भी कोई अपना हक़ रखता है
यह अहसास मुझे भी पहली बार हुआ
प्यार तुम्हारा पाकर ख़ुद से प्यार हुआ

ऐसा नहीं कि सपन नहीं थे आँखों में
लेकिन वो जगने से पहले मुरझाए
अब तक कितने ही सम्बन्ध जिए मैंने
लेकिन वो सब मन को सींच नहीं पाये
भाग्य जगा है मेरी हर प्यास क
तृप्ति के हाथों ही ख़ुद सत्कार हुआ
प्यार तुम्हारा पाकर ख़ुद से प्यार हुआ

दिल कहता है तुम पर आकर ठहर गई
मेरी हर मजबूरी, मेरी हर भटकन
दिल के तारों को झंकार मिली तुमसे
गीत तुम्हारे गाती है दिल की धड़कन
जिस दिल पर अधिकार कभी मैं रखता था
उस दिल के हाथों ही अब लाचार हुआ
प्यार तुम्हारा पाकर ख़ुद से प्यार हुआ

बहकी हुई हवाओं ने मेरे पथ पर
दूर-दूर तक चंदन-गंध बिखेरी है
भाग्य देव ने स्वयं उतरकर धरती पर
मेरे हाथ में रेखा नई उकेरी है
मेरी हर इक रात महकती है अब तो
मेरा हर दिन जैसे इक त्यौहार हुआ
प्यार तुम्हारा पाकर ख़ुद से प्यार हुआ

© Dinesh Raghuvanshi : दिनेश रघुवंशी

 

दूसरा प्यार

फिर से मन में अंकुर फूटे, फिर से आँखों में ख्वाब पले
फिर से कुछ अंतस् में पिघला, फिर से श्वासों से स्वर निकले
फिर से मैंने सबसे छुपकर, इक मन्नत मांगी ईश्वर। से
फिर से इक सादा-सा चेहरा, कुछ ख़ास लगा दुनिया भर से
फिर इक लड़की के इर्द-गिर्द, जीवन के सब प्रतिमान बने
फिर इक चेहरे के हाव-भाव, सुन्दरता के उपमान बने
मुझको लगता था ये सब कुछ शायद इस बार नहीं होगा
पहले के अनुभव कहते थे, अब मुझको प्यार नहीं होगा

फिर से मेरे मोबाइल में इक नम्बर सबसे ख़ास बना
फिर से बदला हर पासवर्ड, इक नाम मेरा विश्वास बना
फिर से इक मद्धम रिंगटोन, आँखों की चमक। बढ़ाती थी
फिर से इक लड़की की फोटो, मुझसे घण्टों बतियाती थी
उसको मैसिज कर सोना था, उसके मैसिज से जगना था
उसका हर मैसिज, हर इक मेल, बस अलग संभाले रखना था
सोचा था वो इक एपिसोड, रीप्ले हर बार नहीं होगा
पहले के अनुभव कहते थे, अब मुझको प्यार नहीं होगा

फिर से इक चंचल लड़की की हर बात सुहानी लगती थी
केवल वो लड़की समझदार, दुनिया दीवानी लगती थी
उसकी मम्मी, उसके पापा, उसकी हर चीज़ ज़रूरी थी
अपने जीवन के ख़ास काम भी केवल इक मजबूरी थी
फिर से मैं सारी दुनिया की नज़रों में बस बेकार हुआ
फिर से ख़र्चे दोगुने हुए, आमदनी घटी, उधार हुआ
मेरा मस्तिष्क मेरे दिल के हाथों लाचार नहीं होगा
पहले के अनुभव कहते थे, अब मुझको प्यार नहीं होगा

फिर से कुछ बेमतलब बातें, अधरों पर बन मुस्कान खिलीं
फिर से इक लड़की की यादें, दिल के। काग़ज़ पर लिखी मिलीं
फिर से नयनों की कोरों पर, इक आँसू आ ठिठका, ठहरा
फिर से उसकी स्मृतियों ने स्वप्नों पर बिठलाया पहरा
फिर से मेरी कविताओं का रस बदला और शृंगार सजा
फिर से गीतों में पीर ढली, फिर से ग़ज़लों में प्यार सजा
मेरे कवि पर इक लड़की का, इतना अधिकार नहीं होगा
पहले के अनुभव कहते थे, अब मुझको प्यार नहीं होगा

शायद मेरी मन-बगिया में कुछ पुष्प भाव के झरने थे
शायद मेरे काव्यांगन में कुछ अनुपम गीत उतरने थे
शायद यह फूल मुहब्बत का खिलना था और बिखरना था
शायद यह सब निर्धारित था, मिलना था और बिछड़ना था
शायद मेरे मन में अहसासों की इक खण्डित मूरत थी
शायद मुझको इस अनुभव की पहले से अधिक ज़रूरत थी
शायद मुझसे फिर कोमल भावों का सत्कार नहीं होता
सब अनुभव आधे रह जाते गर फिर से प्यार नहीं होता

© Chirag Jain : चिराग़ जैन

 

एक भी आँसू न कर बेकार

एक भी आँसू न कर बेकार
जाने कब समंदर मांगने आ जाए

पास प्यासे के कुँआ आता नहीं है
ये कहावत है अमरवाणी नहीं है
और जिसके पास देने को न कुछ भी
एक भी ऎसा यहाँ प्राणी नहीं है
कर स्वयं हर गीत का शृंगार
जाने देवता को कौन-सा भा जाए

चोट खाकर टूटते हैं सिर्फ़ दर्पण
किन्तु आकृतियाँ कभी टूटी नहीं हैं
आदमी से रूठ जाता है सभी कुछ
पर समस्याएँ कभी रूठी नहीं हैं
हर छलकते अश्रु को कर प्यार
जाने आत्मा को कौन सा नहला जाए

व्यर्थ है करना ख़ुशामद रास्तों की
काम अपने पाँव ही आते सफ़र में
वह न ईश्वर के उठाए भी उठेगा
जो स्वयं गिर जाए अपनी ही नज़र में
हर लहर का कर प्रणय स्वीकार
जाने कौन तट के पास पहुँचा जाए

© Ramavtar Tyagi : रामावतार त्यागी

 

प्रेम

प्रेम की राह में पीर के गाँव हैं
प्रेम ही जग में सबसे लुभावन हुआ
प्रेम खोया तो सावन भी पतझर बना
प्रेम पाया तो पतझर भी सावन हुआ

जब नदी कोई सागर को अर्पित हुई
हाय! अमरित-सा जल उसका खारा हुआ
सूर्य ने छल से उसका किया अपहरण
कोई बादल उसे पा आवारा हुआ
हिमशिखर में ढली, ऑंसुओं सी गली
और गंगा का जल फिर से पावन हुआ

एक अनमोल पल की पिपासा लिए
कोई साधक जगत् में विचरता रहा
घोर तप में तपी देह जर्जर हुई
मन में आशाओं का स्रोत झरता रहा
पाने वाले ने आनंद-पथ पा लिया
जग कहे- ‘साधना का समापन हुआ’

एक राधा कथा से नदारद हुई
एक मीरा अचानक हवा हो गई
सिसकियाँ उर्मिला की घुटीं मन ही मन
मंथरा जीते जी बद्दुआ हो गई
बस कथानक ने सबको अमर कर दिया
फिर न राघव हुए ना दशानन हुआ

© Chirag Jain : चिराग़ जैन

 

स्वयं से संवाद

साथ किसी के रहना लेकिन
खुद को खुद से दूर न रखना।

रेगिस्तानों में उगते हैं
अनबोये काँटों के जंगल,
भीतर एक नदी होगी तो
कलकल कलकल होगी हलचल,

जो प्यासे सदियों से बंधक
अब उनको मजबूर न रखना।

खण्डहरों ने रोज बताया
सारे किले ढहा करते हैं,
कोशिश से सब कुछ संभव है
सच ही लोग कहा करते हैं,

भले दरक जाना बाहर से
मन को चकनाचूर न रखना।

पहले से होता आया है
आगे भी होता जायेगा,
अंगारों के घर से अक्सर
फूलों को न्योता आयेगा,

आग दिखाना नक्कारों को
शोलों पर संतूर न रखना।

© Gyan Prakash Aakul : ज्ञान प्रकाश आकुल