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सपने गीत बने

किसे पता है? अक्सर मेरे सपने गीत बने।

कुछ सपने मेलोँ जैसे हैँ कोई है सूने का सपना।
कभी कभी क्षमता से ऊँचा इन्द्रधनुष छूने का सपना।
जैसे हारी हुयी थकन का सपना जीत बने।

कमरे की खिड़की का परदा मैँने अरसे बाद हटाया,
खिड़की से चिपका बैठा था कब से पागल चाँद लजाया।
मै भी चाहूँ मेरा भी कुछ सुखद अतीत बने।

अगर गीत बनवाना हो तो तुम भी अपने सपने देना,
मुझे रात दिन हँसने रोने लिखने और तड़पने देना।
बस सपने ही दिये सभी ने जो भी मीत बने।

© Gyan Prakash Aakul : ज्ञान प्रकाश आकुल

 

ज़माना देखता रह जाएगा

सिर्फ़ हैरत से ज़माना देखता रह जाएगा
बाद मरने के कहाँ किसका पता रह जाएगा

अपने-अपने हौसले की बात सब करते रहे
ये मगर किसको पता था सब धरा रह जाएगा

तुम सियासत को हसीं सपना बना लोगे अगर
फिर तुम्हें जो भी दिखेगा क्या नया रह जाएगा

मंज़िलों की जुस्तजू में बढ़ रहा है हर कोई
मंज़िलें गर मिल गईं तो बाक़ी क्या रह जाएगा

‘मीत’ जब पहचान लोगे दर्द दिल के घाव का
फिर कहाँ दोनों में कोई फ़ासला रह जाएगा

© Anil Verma Meet : अनिल वर्मा ‘मीत’

 

फिर बसंत आना है

तूफ़ानी लहरें हों
अम्बर के पहरे हों
पुरवा के दामन पर दाग़ बहुत गहरे हों
सागर के माँझी मत मन को तू हारना
जीवन के क्रम में जो खोया है, पाना है
पतझर का मतलब है फिर बसंत आना है

राजवंश रूठे तो
राजमुकुट टूटे तो
सीतापति-राघव से राजमहल छूटे तो
आशा मत हार, पार सागर के एक बार
पत्थर में प्राण फूँक, सेतु फिर बनाना है
पतझर का मतलब है फिर बसंत आना है

घर भर चाहे छोड़े
सूरज भी मुँह मोड़े
विदुर रहे मौन, छिने राज्य, स्वर्णरथ, घोड़े
माँ का बस प्यार, सार गीता का साथ रहे
पंचतत्व सौ पर है भारी, बतलाना है
जीवन का राजसूय यज्ञ फिर कराना है
पतझर का मतलब है, फिर बसंत आना है

© Kumar Vishwas : कुमार विश्वास

 

ओ वासंती पवन हमारे घर आना!

बहुत दिनों के बाद खिड़कियाँ खोली हैं
ओ वासंती पवन हमारे घर आना!

जड़े हुए थे ताले सारे कमरों में
धूल भरे थे आले सारे कमरों में
उलझन और तनावों के रेशों वाले
पुरे हुए थे जले सारे कमरों में
बहुत दिनों के बाद साँकलें डोली हैं
ओ वासंती पवन हमारे घर आना!

एक थकन-सी थी नव भाव तरंगों में
मौन उदासी थी वाचाल उमंगों में
लेकिन आज समर्पण की भाषा वाले
मोहक-मोहक, प्यारे-प्यारे रंगों में
बहुत दिनों के बाद ख़ुशबुएँ घोली हैं
ओ वासंती पवन हमारे घर आना!

पतझर ही पतझर था मन के मधुबन में
गहरा सन्नाटा-सा था अंतर्मन में
लेकिन अब गीतों की स्वच्छ मुंडेरी पर
चिंतन की छत पर, भावों के आँगन में
बहुत दिनों के बाद चिरैया बोली हैं
ओ वासंती पवन हमारे घर आना!

© Kunwar Bechain : कुँवर बेचैन

 

वो दीपक मेरा अपना हो

नभ तक पसरे अंधकार में
अंधियारे के भय से आगे
आँखों में बस एक स्वप्न है
इस अभेद्य दुर्दांत तिमिर में
जिसकी किरण उजाला भर दे
वो दीपक मेरा अपना हो

निविड़ निशा का सन्नाटा हो
स्यालों के मातमी स्वरों से
अंतर्मन बैठा जाता हो
देह चीरती शीतलहर में
झींगुर का स्वर दहलाता हो
भयाक्रांत अस्तित्व सहमकर
सरीसृपों के आभासों से
सधा-बचा बढ़ता जाता हो
ऐसी कालरात्रि से बचकर
शुभ-मुहूर्त का इंगित पाकर
जो जग के जीवन को स्वर दे
वो कलरव मेरा अपना हो

भाग्य रेख जब कटी फटी हो
गृह-नक्षत्र विरुद्ध खड़े हों
कालसर्प हो, पितृदोष हो
सब कुयोग-अभिशाप दृष्ट हों
कर्म और फल की चिंता तज
विधिना के लेखे विस्मृत कर
मेरे हित सब नियम तोड़ कर
जो धरती को अम्बर कर दे
वो ईश्वर मेरा अपना हो

© Chirag Jain : चिराग़ जैन

 

लौटना पड़ेगा फिर-फिर घर

घर की देहरी पर छूट गए
संवाद याद यों आएंगे
यात्राएँ छोड़ बीच में ही
लौटना पड़ेगा फिर-फिर घर

यह आंगन धन्यवाद देकर
मन ही मन यों मुस्काएगा
यात्राएँ सभी अधूरी हैं
तू लौट यहीं फिर आएगा
ओ जाने वाले परदेसी
ये पथ तुझको भरमाएंगे
घर की यादों के जले दीप
रेती में आग लगाएंगे
छालों को छीलेंगे तेरे
सपनों के महलों के खण्डहर

ये विदा-समय की नम पलकें
हारे कंधे थपकाएंगी
गोधूलि सनी घंटियाँ तुझे
पगडंडी पर ले आएंगी
तुलसी चौरे के पास जला
दीवा सूरज बन जाएगा
तुतली बोली वाला छौना
प्राणों में हूक जगाएगा
कस्तूरी-से गंधाते पल
टेरेंगे रे हिरना अक्सर

© Dhananjaya Singh : धनंजय सिंह

 

संज्ञा का अपमान

एक विशेषण की चाहत में
संज्ञा का अपमान किया है
लाए को अनदेखा कर के
पाए पर अभिमान किया है

अभिलाषा के रथ पर फहरी
स्पर्धा की उत्तुंग ध्वजा है
लोभ बुझे तीरों से भरकर
लिप्सा का तूणीर सजा है
अपना ही सुख खेत हुआ है
कैसा शर संधान किया है

जीवन को वरदान मिला है
श्वास किसी की दासी कब है
मीठे जल से ना बुझ पाए
तृष्णा इतनी प्यासी कब है
निश्चित की आश्वस्ति बिसारी
संभव का अनुमान किया है

मानव होना बहुत न जाना
जाने क्या से क्या बन बैठा
कभी दरोगा, कभी नियामक
और कभी धन्ना बन बैठा
संतुष्टि का अमृत तजकर
कुंठा का विषपान किया है

भोर न जानी, रैन न देखी
दिन भर की है भागा-दौड़ी
सुख के पल खोकर जो जोड़ी
छूट गई हर फूटी कौड़ी
अपने जीवन के राजा ने
औरों को श्रमदान किया है

© Chirag Jain : चिराग़ जैन

 

उलाहना

महक चुकीं
लड़ियाँ पलास की
अब आये हो?

बिन साजन
मन कितना रोया
क्या बतलाऊं;
मन की बातें
मन में रखकर
भी पछताऊँ।

कितनी बार
पीर सुनकर भी
मुसकाये हो!

फागुन बीता
कुसुम महक कर
टूट चुके हैं;
हर डाली से
नूतन किसलय
फूट चुके हैं।

दग्ध हो चुकी
अब जाकर तुम
जल लाये हो!

© Gyan Prakash Aakul : ज्ञान प्रकाश आकुल

 

सिर्फ़ अकेले चलने का मन है

रिश्ते कई बार बेड़ी बन जाते हैं
प्रश्नचिह्न बन राहों में तन जाते हैं
ऐसा नहीं किसी से कोई अनबन है
कुछ दिन सिर्फ़ अकेले चलने का मन है

तनहा चलना रास नहीं आता लेकिन
कभी-कभी तनहा भी चलना अच्छा है
जिसको शीतल छाँव जलाती हो पल-पल
कड़ी धूप में उसका जलना अच्छा है
अपना बनकर जब उजियारे छ्लते हों
अंधियारों का हाथ थामना अच्छा है
रोज़-रोज़ शबनम भी अगर दग़ा दे तो
अंगारों का हाथ थामना अच्छा है
क़दम-क़दम पर शर्त लगे जिस रिश्ते में
तो वह रिश्ता भी केवल इक बन्धन है
ऐसा नहीं किसी से कोई अनबन है
कुछ दिन सिर्फ़ अकेले चलने का मन है

दुनिया में जिसने भी आँखें खोली हैं
साथ जन्म के उसकी एक कहानी है
उसकी आँखों में जीवन के सपने हैं
आँसू हैं, आँसू के साथ रवानी है
अब ये उसकी क़िस्मत कितने आँसू हैं
और उसकी आँखों में कितने सपने हैं
बेगाने तो आख़िर बेगाने ठहरे
उसके अपनों मे भी कितने अपने हैं
अपनों और बेगानों से भी तो हटकर
जीकर देखा जाए कि कैसा जीवन है
ऐसा नहीं किसी से कोई अनबन है
कुछ दिन सिर्फ़ अकेले चलने का मन है

अपना बोझा खुद ही ढोना पड़ता है
सच है रिश्ते अक़्सर साथ नहीं देते
पाँवों को छाले तो हँसकर देते है
पर हँसती-गाती सौग़ात नहीं देते
जिसने भी सुलझाना चाहा रिश्तों को
रिश्ते उससे उतना रोज़ उलझते हैं
जिसने भी परवाह नहीं की रिश्तों की
रिश्ते उससे अपने आप सुलझते हैं
कभी ज़िन्दगी अगर मिली तो कह देंगे
तुझको सुलझाना भी कितनी उलझन है
ऐसा नहीं किसी से कोई अनबन है
कुछ दिन सिर्फ़ अकेले चलने का मन है

© Dinesh Raghuvanshi : दिनेश रघुवंशी

 

लुका-छिपी का खेल

लुका-छिपी का खेल खेलने में,
मैं उस दिन चोर था।

साफ साफ है याद अभी तक
बचपन की बीती हर घटना
सारे चित्र अभी तक उभरे
रत्ती भर भी हुए न बासी,
कितनी ही धुँधली शामों में
मैंने लुका छिपी खेला था
सौ तक की गिनती गिननी थी
अंजुलि में थी रेत ज़रा सी,
और शर्त यह रेत न फिसले
उसे कहीं पर रख आना था
गिनती गिनकर उसे खोजना
पर सब करना आँखें मीचे,
मैं सरपट गिनती गिनता था
छिप छिप बीच बीच में देखा
एक एक कर सभी छुप गये
दाएं-बाएं ऊपर-नीचे,
धीरे धीरे शान्त हो गया आस पास जो शोर था।
लुका छिपी का खेल खेलने में मैं उस दिन चोर था।

दिखे बीस पच्चीस तीस तक
अपनी जगहें खोज रहे सब
इसके आगे गिनी अकेले
मैंने फिर न किसी को देखा,
पता नहीं वह गिनती थी,या
जीवन के बीतते बरस थे
जाने कहाँ छुप गये सारे
राहुल शोभित मंजू रेखा,
तब से अब तक खोज रहा हूँ
शहर शहर मैं घर घर जाकर
पर न मिले वे मीत न वे दिन
जो बचपन में साथ बिताये,
जाने कहाँ छुपे हैं सारे
मानी मैंने चोरी मानी
पल पल राह निहार रहा हूँ
कोई आकर टीप लगाये,
क्या बचपन की उन शर्तों का धागा यों कमजोर था?
लुकाछिपी का खेल खेलने में मैं उस दिन चोर था।

© Gyan Prakash Aakul : ज्ञान प्रकाश आकुल