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दो पल तुम्हारे

ओ हमारी यात्रा के मौन सहचर,
मैँ न दे पाया तुम्हे दो पल तुम्हारे।

याद है मुझको मरुस्थल की कहानी,
दूर तक दिखता न था दो बूँद पानी,
तब तुम्हारे लोचनोँ से बल मिला था,
बन गये थे नैन गंगाजल तुम्हारे।

याद है मुझको हवा की वह प्रबलता,
छोड़ आये थे कहीँ हम नीड़ जलता,
देखते थे लोग सारे मौन होकर,
जल रहे थे प्रश्न मेरे हल तुम्हारे।

लौट आये हम उसी नदिया किनारे,
दूर तक बिखरे हुये हैँ सब सितारे,
मन क्षितिज पर बिजलियाँ कौँधी अचानक,
आ गये भेजे हुये बादल तुम्हारे।

© Gyan Prakash Aakul : ज्ञान प्रकाश आकुल

 

स्वयं से संवाद

साथ किसी के रहना लेकिन
खुद को खुद से दूर न रखना।

रेगिस्तानों में उगते हैं
अनबोये काँटों के जंगल,
भीतर एक नदी होगी तो
कलकल कलकल होगी हलचल,

जो प्यासे सदियों से बंधक
अब उनको मजबूर न रखना।

खण्डहरों ने रोज बताया
सारे किले ढहा करते हैं,
कोशिश से सब कुछ संभव है
सच ही लोग कहा करते हैं,

भले दरक जाना बाहर से
मन को चकनाचूर न रखना।

पहले से होता आया है
आगे भी होता जायेगा,
अंगारों के घर से अक्सर
फूलों को न्योता आयेगा,

आग दिखाना नक्कारों को
शोलों पर संतूर न रखना।

© Gyan Prakash Aakul : ज्ञान प्रकाश आकुल

 

भीतर एक दिया जलने दो

भीतर एक दिया जलने दो
बाहर उल्लू बोल रहे हैं भीतर एक दिया जलने दो।

ये अँधियारा पाख चल रहा
चांद दिनों दिन कम निकलेगा,
जब आयेगी रात उजाली
अंधियारे का दम निकलेगा,
उजियारा है दूर मगर उजियारे की बातें चलने दो।

द्वार लगा दो ताकि यहाँ तक
अंधियारे के दूत न आयें,
पुरवा पछुआ धोखा देकर
इस दीये को बुझा न जायें,
लौ शलभों को छले जा रही कुछ न कहो देखो, छलने दो।

आओ साथी पास हमारे
अंधियारे में दूर न जाओ,
जो न कह सके उजियारे में
वे सारी बातें बतलाओ,
उधर न देखो चांद ढल रहा ढल जायेगा तुम ढलने दो।

© Gyan Prakash Aakul : ज्ञान प्रकाश आकुल

 

सपने गीत बने

किसे पता है? अक्सर मेरे सपने गीत बने।

कुछ सपने मेलोँ जैसे हैँ कोई है सूने का सपना।
कभी कभी क्षमता से ऊँचा इन्द्रधनुष छूने का सपना।
जैसे हारी हुयी थकन का सपना जीत बने।

कमरे की खिड़की का परदा मैँने अरसे बाद हटाया,
खिड़की से चिपका बैठा था कब से पागल चाँद लजाया।
मै भी चाहूँ मेरा भी कुछ सुखद अतीत बने।

अगर गीत बनवाना हो तो तुम भी अपने सपने देना,
मुझे रात दिन हँसने रोने लिखने और तड़पने देना।
बस सपने ही दिये सभी ने जो भी मीत बने।

© Gyan Prakash Aakul : ज्ञान प्रकाश आकुल

 

मैं शायद अब नहीं मिलूँगा

मेरे गीत मिलेंगे तुमको, मैं शायद अब नहीं मिलूँगा I

रंग बिरंगे फूल मिलेंगे, फूलों पर तितलियां मिलेंगी,
तितली के पंखों को छूना,छूकर अपने हाथ देखना,
हाथों पर कुछ रंग दिखेंगे,शायद उन्हें सहेज सको तुम
उन रंगों में तुम्हे मिलूंगा जी भर अपने हाथ देखना,
कई अतीत मिलेंगे तुमको मैं शायद अब नहीं मिलूँगा।

मेरे जाते ही कुछ तारे , बस अंगारे बन जायेंगे
तुम्हें लगेगा आसमान में ,कुछ हलचल है बारिश होगी
चांद कई टुकड़ों में होगा, तुम्हे लगेगा कुछ साजिश है
आंख तुम्हारी गीली होगी और न कोई साजिश होगी
सब विपरीत मिलेंगे तुमको मैं शायद अब नहीं मिलूँगा।

साथ तुम्हारे यादें होंगी, पल पल साथ निभाने वाली
दिन का सफर साथ करने को सूरज भी तैयार मिलेगा
जिस दिन मुझे भूल जाओगे तुम दुनिया को प्यार करोगे
तब ही तुम को दुनियाभर से दुनियाभर का प्यार मिलेगा,
सारे मीत मिलेंगे तुमको मैं शायद अब नहीं मिलूँगा।

© Gyan Prakash Aakul : ज्ञान प्रकाश आकुल

 

उलाहना

महक चुकीं
लड़ियाँ पलास की
अब आये हो?

बिन साजन
मन कितना रोया
क्या बतलाऊं;
मन की बातें
मन में रखकर
भी पछताऊँ।

कितनी बार
पीर सुनकर भी
मुसकाये हो!

फागुन बीता
कुसुम महक कर
टूट चुके हैं;
हर डाली से
नूतन किसलय
फूट चुके हैं।

दग्ध हो चुकी
अब जाकर तुम
जल लाये हो!

© Gyan Prakash Aakul : ज्ञान प्रकाश आकुल

 

लुका-छिपी का खेल

लुका-छिपी का खेल खेलने में,
मैं उस दिन चोर था।

साफ साफ है याद अभी तक
बचपन की बीती हर घटना
सारे चित्र अभी तक उभरे
रत्ती भर भी हुए न बासी,
कितनी ही धुँधली शामों में
मैंने लुका छिपी खेला था
सौ तक की गिनती गिननी थी
अंजुलि में थी रेत ज़रा सी,
और शर्त यह रेत न फिसले
उसे कहीं पर रख आना था
गिनती गिनकर उसे खोजना
पर सब करना आँखें मीचे,
मैं सरपट गिनती गिनता था
छिप छिप बीच बीच में देखा
एक एक कर सभी छुप गये
दाएं-बाएं ऊपर-नीचे,
धीरे धीरे शान्त हो गया आस पास जो शोर था।
लुका छिपी का खेल खेलने में मैं उस दिन चोर था।

दिखे बीस पच्चीस तीस तक
अपनी जगहें खोज रहे सब
इसके आगे गिनी अकेले
मैंने फिर न किसी को देखा,
पता नहीं वह गिनती थी,या
जीवन के बीतते बरस थे
जाने कहाँ छुप गये सारे
राहुल शोभित मंजू रेखा,
तब से अब तक खोज रहा हूँ
शहर शहर मैं घर घर जाकर
पर न मिले वे मीत न वे दिन
जो बचपन में साथ बिताये,
जाने कहाँ छुपे हैं सारे
मानी मैंने चोरी मानी
पल पल राह निहार रहा हूँ
कोई आकर टीप लगाये,
क्या बचपन की उन शर्तों का धागा यों कमजोर था?
लुकाछिपी का खेल खेलने में मैं उस दिन चोर था।

© Gyan Prakash Aakul : ज्ञान प्रकाश आकुल

 

गीतकार मन

दुनिया भर के आंसू लेकर आखिर कहां कहां भटकोगे,
गीतकार मन, कहीं बैठकर गीत तुम्हें गाना ही होगा।

ज्ञात मुझे तुम चंदनवन से नागदंश लेकर लौटे हो
ज्ञात मुझे यह सागरतट से तुम प्यासे वापस आये,
कितने ही अपराह्न तुम्हारे ढलते रहे प्रतीक्षा में
कितने पुष्पमाल स्वागत के यूँ ही गुंधकर कुम्हलाए,
लेकिन तुमने हार नहीं मानी, कांटों में मुसकाये तुम
वह सारी अनुभूति भुलाकर मीत तुम्हें गाना ही होगा।

करती हैं व्यापार अमृत का गली गली में विष कन्यायें
भौंरे बैठे हैं फूलों पर गंधों के विक्रेता बनकर,
दूर दूर तक दृष्टि घुमाकर देखो एक बार तो देखो
मुकुट पहन कर बैठे सारे हारे हुये विजेता बनकर
घोर विसंगतियों के युग में तुम यों मौन नहीं रह सकते
रूठे युग फिर भी युग के विपरीत तुम्हें गाना ही होगा।

© Gyan Prakash Aakul : ज्ञान प्रकाश आकुल

 

कई सवाल ओढ़कर बैठे हैं

कब से कई सवाल ओढ़कर बैठे हैं।

कोई नहीं मिला मुझको यूँ जब तक भटके मारे-मारे
मोती लगे छूटने जब से इस जीवन की झील किनारे
बदल गये हैं दृश्य अचानक बदल गया है हाल…
काग हंस की खाल ओढ़कर बैठे हैं।

गाता फिरता गली-गली मैं टूटन-उलझन-पीर तुम्हारी
सम्मोहन के आगे झुकते भवन, कँगूरे, महल, अटारी
दुनिया ने जो किये समर्पित सम्मानों के शाल…
सपनों के कंकाल ओढ़कर बैठे हैं।

आगे-पीछे नाच रही है बनकर हर उपलब्धि उजाला
जाने कितने भ्रम पाले है मेरा एक चाहने वाला
मैंने उसे बहुत समझाया, कहा कि भ्रम मत पाल…
फँसे नहीं हैं जाल ओढ़कर बैठे हैं।

© Gyan Prakash Aakul : ज्ञान प्रकाश आकुल

 

नीला नभ हो गया

नीला नभ हो गया अचानक श्यामल-श्यामल,
अहा! दूर तक घन ही घन आषाढ़ यही है,
नदिया से लेकर नयनों तक बाढ़ यही है।
गीला है मन से लेकर धरती का आंचल।

तभी घटी मन के भीतर के कुछ ऐसी घटना,
मरुथल के ऊपर से निकलीं श्याम घटाएं,
उन्हें उड़ा कर बहुत दूर ले गयीं हवाएं।
पूर्व नियोजित-सा था यह बादल का छँटना।

इसी तरह कितने आषाढ़ गये फिर आये,
मरुथल ने स्वागत के फिर फिर मंत्र पढ़े हैं,
मंत्र तिरस्कृत कर घन अपनी राह बढ़े हैं।
मरुथल खड़ा रहा अपनी बांहें फैलाये।

कोई कह दे मरुथल में बादल आयेंगे,
समय कटेगा,तब तक हम स्वागत -गायेंगे।

© Gyan Prakash Aakul : ज्ञान प्रकाश आकुल