Tag Archives: Hindi Ghazal

मुस्कुराना आ गया

हसरतें दिल में दबाना आ गया
प्यास अश्कों से बुझाना आ गया

मैं ख़ुशी की चाह भी क्यूँ कर करूँ
जब ग़मों में मुस्कुराना आ गया

उस हसीं मासूमियत को देखकर
आइने को भी लजाना आ गया

जब से हम मयख़ाने में जाने लगे
क़दमों को भी डगमगाना आ गया

देखते ही मुझको सब कहने लगे
आ गया, उसका दीवाना आ गया

इंसान है इंसानियत दिखती नहीं
क्या कहें कैसा ज़माना आ गया

मुस्कुरा कर कीजिए मुझको विदा
अब ‘अगम’ अपना ठिकाना आ गया

© Anurag Shukla Agam : अनुराग शुक्ला ‘अगम’

 

मगर हारना पड़ा

थी मुफ़लिसी तो मन को मुझे मारना पड़ा
था जीतने का दम भी मगर हारना पड़ा

फैले हुए वो हाथ भिखारे के देखकर
कितनी ही देर तक मुझे विचारना पड़ा

उतरी नहीं थी बात कभी जो मिरे गले
उसको भी आज दिल तलक़ उतारना पड़ा

जान से अज़ीज़ थे, दिल के क़रीब थे
कितने हसीन थे, जिन्हें बिसारना पड़ा

सब जानते हुए भी मैं नादां बना रहा
वक्त मुझको ऐसा भी गुज़ारना पड़ा

जिनकी वजह से लुटा था मेरा आशियाँ
उनके घरों को भी ‘अगम’ सँवारना पड़ा

© Anurag Shukla Agam : अनुराग शुक्ला ‘अगम’

 

असर होता है

किसी-किसी की निगाहों में असर होता है
किसी की शोख़ अदाओं में असर होता है

झूम उठता मयूर मन का इन्हें छूने से
कैसा ज़ुल्फ़ों की घटाओं में असर होता है

ज़र्रे-ज़र्रे में घुली उनकी संदली ख़ुश्बू
उनके कूँचे की हवाओं में असर होता है

छीन लाती हैं ज़िन्दगी को मौत से वापस
दवा से ज्यादा दुआओं में असर होता है

किसी को छलने से पहले ये सोच लेना तुम
दिल से निकली हुई आहों में असर होता है

कभी होता था असर सच में औ’ सबूतों में
अब ‘अगम’ झूठे गवाहों में असर होता है

© Anurag Shukla Agam : अनुराग शुक्ला ‘अगम’

 

मैंने देखा है

धड़कते, साँस लेते, रुकते, चलते, मैंने देखा है
कोई तो है जिसे अपने में पलते, मैंने देखा है

तुम्हारे ख़ून से मेरी रगों में ख़्वाब रौशन हैं
तुम्हारी आदतों में ख़ुद को ढलते मैंने देखा है

न जाने कौन है जो ख़्वाब में आवाज़ देता है
ख़ुद अपने आप को नींदों में चलते मैंने देखा है

मेरी ख़ामोशियों में तैरती हैं तेरी आवाज़ें
तेरे सीने में अपना दिल मचलते मैंने देखा है

बदल जाएगा सब कुछ, बादलों से धूप चटखेगी
बुझी आँखों में कोई ख़्वाब जलते, मैंने देखा है

मुझे मालूम है सबकी दुआएँ साथ चलती हैं
सफ़र की मुश्क़िलों को हाथ मलते, मैंने देखा है

© Alok Srivastava : आलोक श्रीवास्तव

 

नववर्ष की पहली किरण

ख़ुशियों भरा संसार दे, नववर्ष की पहली किरण
आनंद का उपहार दे, नववर्ष की पहली किरण

दुनिया की अंधी दौड़ में, कुछ दिल्लगी के पल मिले
सबको ही अनुपम प्यार दें, नववर्ष की पहली किरण

जर्जर हुए बदले अधर, नववर्ष की पहली किरण
नव चेतना, दे नया स्वर, नववर्ष की पहली किरण

अब आ चढ़ें नव कर्मरथ पर हर चिरंतन साधना
इस बुद्धि को कर दे प्रखर, नववर्ष की पहली किरण

सबको अटल विश्वास दे, नववर्ष की पहली किरण
नवदेह में नवश्वास दे, नववर्ष की पहली किरण

इस अवनि तल पर उतरकर, अब कर दे रौशन ये फिज़ा
उल्लास ही उल्लास दे, नववर्ष की पहली किरण

अब आ रही है मनोरम, नववर्ष की पहली किरण
यह चीरती अज्ञान तम, नववर्ष की पहली किरण

मैं छंद तुझ पर क्या लिखूँ ‘अद्भुत’ कहूँ इतना ही बस
सुस्वागतम सुस्वागतम, नववर्ष की पहली किरण

© Arun Mittal Adbhut : अरुण मित्तल ‘अद्भुत’

 

कोई नहीं

ना ही मंज़िल, रास्ता कोई नहीं
सच है फिर मेरा ख़ुदा कोई नहीं

है बड़ा ये गाँव भी, वो गाँव भी
तीन रंगों से बड़ा कोई नहीं

सब गले का हार बन बैठे मगर
हाथ की लाठी बना कोई नहीं

ज़िन्दगी से दूरियाँ सिमटी ज़रूर
मौत से भी फ़ासला कोई नहीं

कुछ न कुछ होने का सबको इल्म है
इस शहर में सिरफिरा कोई नहीं

ना ही आँसू, दर्द है, ना बेबसी
ज़िन्दगी में अब मज़ा कोई नहीं

उसको ‘अद्भुत’ सिर्फ़ सच से प्यार है
उसके ज़ख़्मों की दवा कोई नहीं

© Arun Mittal Adbhut : अरुण मित्तल ‘अद्भुत’

 

डर

कुछ उसकी हिम्मत का डर
कुछ जग की सीरत का डर

कभी कभी नफ़रत का डर
और कभी उल्फ़त का डर

मुफ़लिस को बाज़ारों में
हर शै की क़ीमत का डर

सबसे ज़्यादा होता है
इंसां को इज्ज़त का डर

नीड़ बनाने वालों को
दुनिया की आदत का डर

‘अद्भुत’ को सबसे ज़्यादा
ख़ुद अपनी फ़ितरत का डर

© Arun Mittal Adbhut : अरुण मित्तल ‘अद्भुत’

 

अम्मा

चिंतन, दर्शन, जीवन, सर्जन, रूह, नज़र पर छाई अम्मा
सारे घर का शोर-शराबा, सूनापन, तन्हाई अम्मा

उसने ख़ुद को खोकर मुझमें एक नया आकार लिया है
धरती, अम्बर, आग, हवा, जल जैसी ही सच्चाई अम्मा

घर के झीने रिश्ते मैंने लाखों बार उधड़ते देखे
चुपके-चुपके कर देती है, जाने कब तुरपाई अम्मा

सारे रिश्ते- जेठ-दुपहरी, गर्म-हवा, आतिश, अंगारे,
झरना, दरिया, झील, समन्दर, भीनी-सी पुरवाई अम्मा

बाबूजी गुज़रे आपस में सब चीज़ें तक्सीम हुईं, तो-
मैं घर में सबसे छोटा था, मेरे हिस्से आई अम्मा

© Alok Srivastava : आलोक श्रीवास्तव

 

बाबू जी

घर की बुनियादें, दीवारें, बामो-दर थे बाबूजी
सबको बांधे रखने वाला ख़ास हुनर थे बाबूजी

तीन मुहल्लों में उन जैसी क़द-काठी का कोई न था
अच्छे-ख़ासे, ऊँचे-पूरे क़द्दावर थे बाबूजी

अब तो उस सूने माथे पर कोरेपन की चादर है
अम्माजी की सारी सज-धज, सब ज़ेवर थे बाबूजी

भीतर से ख़ालिस जज्बाती और ऊपर से ठेठ-पिता
अलग, अनूठा, अनबूझा-सा इक तेवर थे बाबूजी

कभी बड़ा सा हाथ ख़र्च थे, कभी हथेली की सूजन
मेरे मन का आधा साहस, आधा डर थे बाबूजी

© Alok Srivastava : आलोक श्रीवास्तव

 

तुम सोच रहे हो बस, बादल की उड़ानों तक

तुम सोच रहे हो बस, बादल की उड़ानों तक
मेरी तो निगाहें हैं, सूरज के ठिकानों तक

टूटे हुए ख़्वाबों की इक लम्बी कहानी है
शीशे की हवेली से, पत्थर के मकानों तक

दिल आम नहीं करता, अहसास की ख़ुशबू को
बेकार ही लाए हम चाहत को ज़ुबानों तक

लोबान का सौंधापन, चंदन की महक में है
मंदिर का तरन्नुम है, मस्जिद की अज़ानों तक

इक ऐसी अदालत है, जो रूह परखती है
महदूद नहीं रहती वो सिर्फ़ बयानों तक

हर वक़्त फ़िजाओं में, महसूस करोगे तुम
मैं प्यार की ख़ुशबू हूँ, महकूंगा ज़मानों तक

© Alok Srivastava : आलोक श्रीवास्तव