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समय

जब समय गढ़ने चलेगा पात्र नूतन
तुम नहीं देना कभी परिचय हमारा

धर चलेगी अंजुरी पर अंजुरी सौभाग्यबाला
प्रेम की सुधियां चुनेंगी बस उसी दिन घर-निकाला
इक कुलीना मोल लेगी रीतियों से हर समर्पण
जीत कर तुमको नियति से, डाल देगी वरणमाला

ओढ़नी से जोड़ लेगी पीत अम्बर,
और टूटेगा वहीं निश्चय हमारा

मांग भरना जब कुँआरी, देखना ना हाथ कांपे
मंत्र के उच्चारणों को, यति हृदय की भी न भांपे
जब हमारी ओर देखो, तब तनिक अनजान बनना
मुस्कुराएँगी नयन में बदलियां कुछ मेघ ढांपे

जग नहीं पढ़ता पनीली चिठ्ठियों को
तुम समझ लेना मग़र आशय हमारा

स्वर्गवासी नेह को अंतिम विदाई सौंप आए
अब लिखे कुछ भी विधाता, हम कलाई सौंप आए
अब मिलेंगे हर कसौटी को अधूरे प्राण अपने
हम हुए थे पूर्ण जिससे वो इकाई सौंप आए

उत्तरों की खोज में है जग-नियंता
इक अबूझा प्रश्न है परिणय हमारा

© Manisha Shukla : मनीषा शुक्ला

 

 

इन्ही आँखों में सागर है

इन्ही आँखों में सागर है किनारे डूब जाते हैं
कहें कुछ होंठ नाज़ुक से मगर कुछ कह न पाते हैं
बड़ी है मोहिनी सूरत निगाहें बाँध लेती है
रहा अब दिल नहीं बस में क़दम तक लड़खड़ाते हैं

ये तेरी झील-सी आँखें नया एक ख्वाब है इनमें
बड़े नाज़ुक ये लब तेरे नया एक आब है इनमें
लहर खातीं तेरी जुल्फें सभी हैं आज नागिन सी
नशीली ये अदाएँ हैं नूर-ए-महताब है इनमें

बहुत कुछ कह रहीं आँखें ये लब भी थरथराते हैं
चमकता चांद पर चन्दन नगीने आब पाते हैं
निगाहें तक नहीं बस में सँभालें ख़ुद को कैसे हम
करें हम बन्दगी रब की सभी मन मुस्कुराते हैं

© Ambrish Srivastava : अम्बरीष श्रीवास्तव

 

शर्त

तुमने एक ‘लतीफ़ा’ सुनाया था
जिसे सुनकर सब हँस पड़े थे
सिर्फ़ मैं नहीं हँसा था,
क्योंकि हँसने के लिए मैं
‘लतीफ़ों’ का मोहताज नहीं हूँ।

हँसा मैं भी
मगर दो घंटे बाद,
जब हँसने का
कोई मतलब नहीं था।

मतलब था तो
सिर्फ़ इतना
कि मैं हँसा था
मगर अपनी शर्तों पर।

© Ashish Kumar Anshu : आशीष कुमार ‘अंशु’

 

रेत के टीले

ज़िंदगी की धूप में
रेत से तपते रहे
सोने से चमकते रहे
तप के सोना बने
न कुन्दन

हर शाम ढले फिर से
रेत के ढेरों में बदलते रहे

हवा हमजोली-सी
ले उड़ी आसमानों में
रुकी
तो फिर आ गिरे
ज़मीन पर

हम ख़ाक़ थे
और ख़ाक़ में मिलते रहे

ज़िंदगी की धूप में
रेत से तपते रहे
सोने से चमकते रहे।

© Vivek Mishra : विवेक मिश्र

 

किसी से बात कोई आजकल नहीं होती

किसी से बात कोई आजकल नहीं होती
इसीलिए तो मुक़म्म्ल ग़ज़ल नहीं होती

ग़ज़ल-सी लगती है लेकिन ग़ज़ल नहीं होती
सभी की ज़िंदगी खिलता कँवल नहीं होती

तमाम उम्र तज़ुर्बात ये सिखाते हैं
कोई भी राह शुरु में सहल नहीं होती

मुझे भी उससे कोई बात अब नहीं करनी
अब उसकी ओर से जब तक पहल नहीं होती

वो जब भी हँसती है कितनी उदास लगती है
वो इक पहेली है जो मुझसे हल नहीं होती

© Dinesh Raghuvanshi : दिनेश रघुवंशी

 

चुप्पियाँ बोलीं

चुप्पियाँ बोलीं
मछलियाँ बोलीं-
हमारे भाग्य में
ढ़ेर-सा है जल, तो तड़पन भी बहुत है

शाप है या कोई वरदान है
यह समझ पाना कहाँ आसान है
एक पल ढेरों ख़ुशी ले आएगा
एक पल में ज़िन्दगी वीरान है
लड़कियाँ बोलीं-
हमारे भाग्य में
पर हैं उड़ने को, तो बंधन भी बहुत हैं…

भोली-भाली मुस्कुराहट अब कहाँ
वे रुपहली-सी सजावट अब कहाँ
साँकलें दरवाज़ों से कहने लगीं
जानी-पहचानी वो आहट अब कहाँ
चूड़ियाँ बोलीं-
हमारे भाग्य में
हैं ख़नकते सुख, तो टूटन भी बहुत हैं…

दिन तो पहले भी थे कुछ प्रतिकूल से
शूल पहले भी थे लिपटे फूल से
किसलिये फिर दूरियाँ बढ़ने लगीं
क्यूँ नहीं आतीं इधर अब भूल से
तितलियाँ बोलीं-
हमारे भाग्य में
हैं महकते पल, तो अड़चन भी बहुत हैं…

रास्ता रोका घने विश्वास ने
अपनेपन की चाह ने, अहसास ने
किसलिये फिर बरसे बिन जाने लगी
बदलियों से जब ये पूछा प्यास ने
बदलियाँ बोलीं-
हमारे भाग्य में
हैं अगर सावन तो भटकन भी बहुत हैं…

भावना के अर्थ तक बदले गए
वेदना के अर्थ तक बदले गए
कितना कुछ बदला गया इस शोर में
प्रार्थना के अर्थ तक बदले गए
चुप्पियाँ बोलीं-
हमारे भाग्य में
कहने का है मन, तो उलझन भी बहुत हैं…

© Dinesh Raghuvanshi : दिनेश रघुवंशी

 

वही एक शाम

वही एक शाम
भीतर भी
बाहर भी
छुपी भी
उजागर भी
वही एक शाम
मेरी साँसों में चुभती है
थकन भरी रातों में
उखड़ी-सी नींदों में
बहुत हल्के से दुखती है
टूटे से, बिखरे से
सपनों की बूंदों से
ये मेरे मन का ताल
भरता है
सूखता है
सूखता है
भरता है
उसी से जो नमी-सी है
ताल के किनारों पर
उसमें ही रह-रह के
वही चंदा चमकता है
वही एक शाम
मेरी साँसों में चुभती है
जिसकी मटमैली चांदनी में
बरगद के नीचे जब
मिट्टी के ढेर पर
रखकर दो पत्थर
रो-रो के जब हमने
निशानियाँ दबाई थीं
अब भी वो पत्थर दो
छाती पे धरे हो
भीतर भी
बाहर भी
छुपी भी
उजागर भी
वही एक शाम
मेरी साँसों में चुभती है
उठ-उठ के आती हैं
बरगद के नीचे से
निशानियाँ वो संग मेरे
अक्सर ही चलती हैं
वही एक शाम मेरी
साँसों में चुभती है
थकन भरी रातों में
उखड़ी-सी नींदों में
बहुत हल्के से दुखती है।

© Vivek Mishra : विवेक मिश्र

 

 

प्रण

जन्मदाती धात्रि! तुझसे उऋण अब होना मुझे
कौन मेरे प्राण रहते देख सकता है तुझे
मैं रहूँ चाहे जहाँ, हूँ किन्तु तेरा ही सदा
फिर भला कैसे न रक्खूँ ध्यान तेरा सर्वदा

Maithili Sharan Gupt : मैथिलीशरण गुप्त

 

तुमसे मिलकर

तुमसे मिलकर जीने की चाहत जागी
प्यार तुम्हारा पाकर ख़ुद से प्यार हुआ

तुम औरों से कब हो, तुमने पल भर में
मन के सन्नाटों का मतलब जान लिया
जितना मैं अब तक ख़ुद से अनजान रहा
तुमने वो सब पल भर में पहचान लिया
मुझ पर भी कोई अपना हक़ रखता है
यह अहसास मुझे भी पहली बार हुआ
प्यार तुम्हारा पाकर ख़ुद से प्यार हुआ

ऐसा नहीं कि सपन नहीं थे आँखों में
लेकिन वो जगने से पहले मुरझाए
अब तक कितने ही सम्बन्ध जिए मैंने
लेकिन वो सब मन को सींच नहीं पाये
भाग्य जगा है मेरी हर प्यास क
तृप्ति के हाथों ही ख़ुद सत्कार हुआ
प्यार तुम्हारा पाकर ख़ुद से प्यार हुआ

दिल कहता है तुम पर आकर ठहर गई
मेरी हर मजबूरी, मेरी हर भटकन
दिल के तारों को झंकार मिली तुमसे
गीत तुम्हारे गाती है दिल की धड़कन
जिस दिल पर अधिकार कभी मैं रखता था
उस दिल के हाथों ही अब लाचार हुआ
प्यार तुम्हारा पाकर ख़ुद से प्यार हुआ

बहकी हुई हवाओं ने मेरे पथ पर
दूर-दूर तक चंदन-गंध बिखेरी है
भाग्य देव ने स्वयं उतरकर धरती पर
मेरे हाथ में रेखा नई उकेरी है
मेरी हर इक रात महकती है अब तो
मेरा हर दिन जैसे इक त्यौहार हुआ
प्यार तुम्हारा पाकर ख़ुद से प्यार हुआ

© Dinesh Raghuvanshi : दिनेश रघुवंशी

 

तुम और मैं

तुम तुंग – हिमालय – श्रृंग
और मैं चंचल-गति सुर-सरिता।
तुम विमल हृदय उच्छवास
और मैं कांत-कामिनी-कविता।
तुम प्रेम और मैं शान्ति,
तुम सुरा – पान – घन अन्धकार,
मैं हूँ मतवाली भ्रान्ति।
तुम दिनकर के खर किरण-जाल,
मैं सरसिज की मुस्कान,
तुम वर्षों के बीते वियोग,
मैं हूँ पिछली पहचान।
तुम योग और मैं सिद्धि,
तुम हो रागानुग के निश्छल तप,
मैं शुचिता सरल समृद्धि।
तुम मृदु मानस के भाव
और मैं मनोरंजिनी भाषा,
तुम नन्दन – वन – घन विटप
और मैं सुख -शीतल-तल शाखा।
तुम प्राण और मैं काया,
तुम शुद्ध सच्चिदानन्द ब्रह्म
मैं मनोमोहिनी माया।
तुम प्रेममयी के कण्ठहार,
मैं वेणी काल-नागिनी,
तुम कर-पल्लव-झंकृत सितार,
मैं व्याकुल विरह – रागिनी।
तुम पथ हो, मैं हूँ रेणु,
तुम हो राधा के मनमोहन,
मैं उन अधरों की वेणु।
तुम पथिक दूर के श्रान्त
और मैं बाट – जोहती आशा,
तुम भवसागर दुस्तर
पार जाने की मैं अभिलाषा।
तुम नभ हो, मैं नीलिमा,
तुम शरत – काल के बाल-इन्दु
मैं हूँ निशीथ – मधुरिमा।
तुम गन्ध-कुसुम-कोमल पराग,
मैं मृदुगति मलय-समीर,
तुम स्वेच्छाचारी मुक्त पुरुष,
मैं प्रकृति, प्रेम – जंजीर।
तुम शिव हो, मैं हूँ शक्ति,
तुम रघुकुल – गौरव रामचन्द्र,
मैं सीता अचला भक्ति।
तुम आशा के मधुमास,
और मैं पिक-कल-कूजन तान,
तुम मदन – पंच – शर – हस्त
और मैं हूँ मुग्धा अनजान !
तुम अम्बर, मैं दिग्वसना,
तुम चित्रकार, घन-पटल-श्याम,
मैं तड़ित् तूलिका रचना।
तुम रण-ताण्डव-उन्माद नृत्य
मैं मुखर मधुर नूपुर-ध्वनि,
तुम नाद – वेद ओंकार – सार,
मैं कवि – श्रृंगार शिरोमणि।
तुम यश हो, मैं हूँ प्राप्ति,
तुम कुन्द – इन्दु – अरविन्द-शुभ्र
तो मैं हूँ निर्मल व्याप्ति।

© Suryekant Tripathi ‘Nirala’ : सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’