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यथोचित

पुराने वस्त्र को
सम्मान दिया जा सकता है
पर ओढ़ा नहीं जा सकता
ओढ़ा वही जाएगा
जो बचा सकता है
सर्दी से
धूप से
वर्षा से
आंधी से

फूल को चाहिए कि
वह कली को स्थान दे
कली को चाहिए कि
वह फूल को सम्मान दे
पतझड़ को रोका नहीं जा सकता
कोंपल को टोका नहीं जा सकता

© Acharya Mahapragya : आचार्य महाप्रज्ञ

 

काश्मीर

जिसका नीर सुधा का सहचर, सोना जिसकर माटी,
जहाँ रही सर्वदा फूलने-फलने की परिपाटी;
जो हिमगिरि का भार, धरे है अपने वक्षस्थल पर,
उसे सुकवि कहते आए हैं- काश्मीर की घाटी;

श्रृंग-श्रेणियाँ प्रकृति-प्रिया के ग्रीवा की जयमाला,
उदित एशिया की सीमाओं का अनुपम उजियाला;
उसी श्स्य-श्यामला भूमि की शान्ति भंग किसने की ?
कौन वहाँ करता है अपने गोरे मुख को काला ?

यह है वही, नील की बेटी पर जिनकी है दृष्टि,
विश्व-शान्ति के लिए कर चुके राकेटों की वृष्टि;
जिसे चाहते उसे ‘राट्र‘ की संज्ञा दे देते हैं,
यह बाजीगर प्रस्तावों से रचते रहते सृष्टि;

प्रजातंत्र की महिमा का, गुण गाते नहीं अघाते,
किन्तु लुटेरों के हिमायती, पंचों में कहलात;े
जन-मत-संग्रह कह कहते हो हमसे किस बूते पर ?
‘साइप्रस‘ में जन-मत संग्रह की माँग रहे ठुकराते;

हाँ, तुमको आती है अद्भुत राजनीति की भाषा;
अपने लिए बदल सकते हो जन-मत की परिभाषा;
काश्मीर पर हमला करते जन-मत नहीं लिया था ?
तब तो पर्दे के पीछे से करते रहे तमाशा;

राजतंत्र-जनतंत्र युगल हैं मोहक हाथ तुम्हारे,
बन्दर-बाँट जहाँ करते होते हैं वारे-न्यारे;
पशुता के नंगे नाचों से शान्ति नहीं हो सकती,
मानवता को संरक्षण क्या दे सकते हत्यारे ?

जो भातर का अंग, संग जो जंगी तूफ़ानों में
जो धरती का स्वर्ग उसे मत बदलो वीरानों में !
‘काश्मीर किसका है‘- इसकी काजीजी को चिन्ता,
यह परिषद में नहीं फैसला होगा मैदानों में;
इस बीसवीं सदी में तुमको हिंसा पर विश्वास;
संगीनों की नोंकों से, लिखते युग इतिहास;
तुम पानी का लिए बहाना, खून बहाना चाहो;
झेलम की लहरों पर करते अणु बम का अभ्यास;

क्या संयुक्त राष्ट्र की सेना अमन लिए आएगी?
बारूदी बंदूकों में क्या चमन लिए आएगी ?
ओ बूढे वनराज! बता दो शान्ति-कपोतों को यह-
‘युद्ध-पिपासित श्वानों का क्या शमन लिए आएगी ?‘

हम न किसी पर कभी, आक्रमण करने के अपराधी;
किन्तु सुरक्षा हेतु रहे, हम मर मिटने के आदी;
‘गिलगित‘ तक लोहू की अंतिम बूँद हमारी होगी,
क्योंकि, हमें प्राणों ये बढ़कर प्यारी है आज़ादी !

© Balbir Singh Rang : बलबीर सिंह ‘रंग’

 

जिल्द बंधाने में कटी

काँपती लौ, ये स्याही, ये धुआँ, ये काजल
उम्र सब अपनी इन्हें गीत बनाने में कटी
कौन समझे मेरी आँखों की नमी का मतलब
ज़िन्दगी गीत थी पर जिल्द बंधाने में कटी

© Gopaldas Neeraj : गोपालदास ‘नीरज’

 

पहचान

एक दिन सुना था मैंने तुम्हारा स्वर
उसमें रस था
लय थी
और था चुम्बक का-सा आकर्षण
मैंने फिर सुनना चाहा
पर नहीं सुन सका
उसमें असंख्य स्वर मिल गए थे
मैं नहीं पहचान सका
वह गीत बन गया था
एक दिन तुमने एक रेखा खींची थी
सुन्दर, स्पष्ट और सरल
पर थी बहुत सूक्ष्म
एक दिन मैं ढूंढ रहा था
तुम्हारी पहली रेखा को
पर उसे नहीं पहचान सका
वह चित्र बन गया था।

© Acharya Mahapragya : आचार्य महाप्रज्ञ

 

तुम्हारी फ़ाइलों में गाँव का मौसम गुलाबी है

तुम्हारी फ़ाइलों में गाँव का मौसम गुलाबी है
मगर ये आँकड़े झूठे हैं, ये दावा किताबी है

उधर जम्हूरियत का ढोल पीते जा रहे हैं वो
इधर परदे के पीछे बर्बरीयत है, नवाबी है

लगी है होड़-सी देखो, अमीरी और ग़रीबी में
ये गांधीवाद के ढाँचे की बुनियादी ख़राबी है

तुम्हारी मेज़ चांदी की, तुम्हारे जाम सोने के
यहाँ जुम्मन के घर में आज भी फूटी रकाबी है

© Adam Gaundavi : अदम गौंडवी

 

संजय

मैं कवि, मैं संजय
आह दिव्य दर्शन
बन गया वरदान भी अभिशाप!

एक सत्ता-अन्ध
एक निस्सत्व
ओ रे लोलुपो!
ठहरो
तुम्हारे हेतु
धरती पूत बँट कर रह गए
कट-मर रहे हैं!
ठहर युग के कृष्ण!
मत बुन भ्रान्तियों का जाल
उसको फेंकने दे अस्त्र
वह एक द्रवित मानव!
देख
काम आ जाएंगे अभिमन्यु
यहाँ कुछ न बचेगा
मात्र शर-शैया पर लेटा भीष्म
और सुनसान!
जो जीतेंगे वह भी गल मरेंगे!

क्या कहा
मुझको नहीं अधिकार
दूँ मैं सीख
मेरा काम केवल
दीठ के जो सामने
कहता-सुनाता रहूँ
उस मृत प्राय: अन्धे को
कि जिसके नाम का शासन
हाँ बस नाम का ही!

मैं कवि मैं संजय
आह दिव्य दर्शन
बन गया वरदान भी अभिशाप!

© Jagdish Savita : जगदीश सविता

 

हँसते-हँसाते रहे

ज़िंदगी का सफ़र यूँ बिताते रहे
आंधियों में दिये हम जलाते रहे
आँसुओं के नगर में कटी ज़िंदगी
हर घड़ी फिर भी हँसते-हँसाते रहे

© Praveen Shukla : प्रवीण शुक्ल

 

भीतर एक दिया जलने दो

भीतर एक दिया जलने दो
बाहर उल्लू बोल रहे हैं भीतर एक दिया जलने दो।

ये अँधियारा पाख चल रहा
चांद दिनों दिन कम निकलेगा,
जब आयेगी रात उजाली
अंधियारे का दम निकलेगा,
उजियारा है दूर मगर उजियारे की बातें चलने दो।

द्वार लगा दो ताकि यहाँ तक
अंधियारे के दूत न आयें,
पुरवा पछुआ धोखा देकर
इस दीये को बुझा न जायें,
लौ शलभों को छले जा रही कुछ न कहो देखो, छलने दो।

आओ साथी पास हमारे
अंधियारे में दूर न जाओ,
जो न कह सके उजियारे में
वे सारी बातें बतलाओ,
उधर न देखो चांद ढल रहा ढल जायेगा तुम ढलने दो।

© Gyan Prakash Aakul : ज्ञान प्रकाश आकुल

 

रातों का क्या है

रातों का क्या है
रातें हैं, रातों का क्या है ?

कोई रात दूध की धोई,
कोई रात तिमिर सँग सोई ;
मावस को पूनम करने की,
बातें हैं, बातों का क्या है ?

रातें हैं, रातों का क्या है ?

एक रात मुस्कान सँजोती,
दूजी रात, रात भर रोती,
सौ-सौ संग भरी रातों में,
घातें हैं, घातों का क्या है ?

रातें हैं, रातों का क्या हैं ?

महक रही रातों की रानी,
करती ऋतुपति की अगवानी;
पतझर पर पछतावा कैसा ?
तरू तो है, पातों का क्या है ?

रातें हैं, रातों का क्या हैं ?

© Balbir Singh Rang : बलबीर सिंह ‘रंग’