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गुरु और शिष्य

गुरु ने चेले से कहा लेटे-लेटे-
कि उठ के पता लगाओ
बरसात हो रही है या नहीं बेटे
तो चेले ने कहा-
ये बिल्ली अभी-अभी बहार से आई है
इसके ऊपर हाथ फेर कर देख लीजिये
अगर भीगी हुई हो तो
बरसात हो रही है समझ लीजिये।

गुरु ने दूसरा काम कहा
कि सोने का समय हुआ
ज़रा दीया तो बुझा दे बचुआ
बचुआ बोला-
आप आंखें बंद कर लीजिये
दीया बुझ गया समझ लीजिये।

अंत में गुरु ने कहा हारकर
कि उठ किवाड़ तो बंद कर
तो शिष्य ने कहा कि गुरुवर
थोड़ा तो न्याय कीजिये
दो काम मैंने किये हैं
एक काम तो आप भी कर दीजिये।

© Aash Karan Atal : आशकरण अटल

 

इतिहास का पर्चा

इतिहास परीक्षा थी उस दिन, चिंता से हृदय धड़कता था
थे बुरे शकुन घर से चलते ही, दाँया हाथ फड़कता था

मैंने सवाल जो याद किए, वे केवल आधे याद हुए
उनमें से भी कुछ स्कूल तकल, आते-आते बर्बाद हुए

तुम बीस मिनट हो लेट द्वार पर चपरासी ने बतलाया
मैं मेल-ट्रेन की तरह दौड़ता कमरे के भीतर आया

पर्चा हाथों में पकड़ लिया, ऑंखें मूंदीं टुक झूम गया
पढ़ते ही छाया अंधकार, चक्कर आया सिर घूम गया

उसमें आए थे वे सवाल जिनमें मैं गोल रहा करता
पूछे थे वे ही पाठ जिन्हें पढ़ डाँवाडोल रहा करता

यह सौ नंबर का पर्चा है, मुझको दो की भी आस नहीं
चाहे सारी दुनिय पलटे पर मैं हो सकता पास नहीं

ओ! प्रश्न-पत्र लिखने वाले, क्या मुँह लेकर उत्तर दें हम
तू लिख दे तेरी जो मर्ज़ी, ये पर्चा है या एटम-बम

तूने पूछे वे ही सवाल, जो-जो थे मैंने रटे नहीं
जिन हाथों ने ये प्रश्न लिखे, वे हाथ तुम्हारे कटे नहीं

फिर ऑंख मूंदकर बैठ गया, बोला भगवान दया कर दे
मेरे दिमाग़ में इन प्रश्नों के उत्तर ठूँस-ठूँस भर दे

मेरा भविष्य है ख़तरे में, मैं भूल रहा हूँ ऑंय-बाँय
तुम करते हो भगवान सदा, संकट में भक्तों की सहाय

जब ग्राह ने गज को पकड़ लिया तुमने ही उसे बचाया था
जब द्रुपद-सुता की लाज लुटी, तुमने ही चीर बढ़ाया था

द्रौपदी समझ करके मुझको, मेरा भी चीर बढ़ाओ तुम
मैं विष खाकर मर जाऊंगा, वर्ना जल्दी आ जाओ तुम

आकाश चीरकर अंबर से, आई गहरी आवाज़ एक
रे मूढ़ व्यर्थ क्यों रोता है, तू ऑंख खोलकर इधर देख

गीता कहती है कर्म करो, चिंता मत फल की किया करो
मन में आए जो बात उसी को, पर्चे पर लिख दिया करो

मेरे अंतर के पाट खुले, पर्चे पर क़लम चली चंचल
ज्यों किसी खेत की छाती पर, चलता हो हलवाहे का हल

मैंने लिक्खा पानीपत का दूसरा युध्द भर सावन में
जापान-जर्मनी बीच हुआ, अट्ठारह सौ सत्तावन में

लिख दिया महात्मा बुध्द महात्मा गांधी जी के चेले थे
गांधी जी के संग बचपन में ऑंख-मिचौली खेले थे

राणा प्रताप ने गौरी को, केवल दस बार हराया था
अकबर ने हिंद महासागर, अमरीका से मंगवाया था

महमूद गजनवी उठते ही, दो घंटे रोज नाचता था
औरंगजेब रंग में आकर औरों की जेब काटता था

इस तरह अनेकों भावों से, फूटे भीतर के फव्वारे
जो-जो सवाल थे याद नहीं, वे ही पर्चे पर लिख मारे

हो गया परीक्षक पागल सा, मेरी कॉपी को देख-देख
बोला- इन सारे छात्रों में, बस होनहार है यही एक

औरों के पर्चे फेंक दिए, मेरे सब उत्तर छाँट लिए
जीरो नंबर देकर बाकी के सारे नंबर काट लिए

© Omprakash Aditya : ओमप्रकाश ‘आदित्य

 

 

इधर भी गधे हैं, उधर भी गधे हैं

इधर भी गधे हैं उधर भी गधे हैं
जिधर देखता हूँ गधे ही गधे हैं

गधे हँस रहे आदमी रो रहा है
हिन्दोस्ताँ में ये क्या हो रहा है

जवानी का आलम गधों के लिए है
ये रसिया, ये बालम गधों के लिए है

ये दमदम ये पालम गधों के लिए है
ये संसार सालम गधों के लिए है

ज़माने को उनसे हुआ प्यार देखो
गधों के गले में पड़े हार देखो

ये सर उनके क़दमों पे क़ुरबान कर दो
हमारी तरफ़ से ये ऐलान कर दो

कि अहसान हम पे है भारी गधों के
हुए आज से हम पुजारी गधों के

पिलाए जा साक़ी पिलाए जा डट के
तू विस्की के मटके पे मटके पे मटके

मैं दुनिया को अब भूलना चाहता हूँ
गधों की तरह फूलना चाहता हूँ

घोडों को मिलती नहीं घास देखो
गधे खा रहे हैं च्यवनप्राश देखो

यहाँ आदमी की कहाँ कब बनी है
ये दुनिया गधों के लिए ही बनी है

जो गलियों में डोले वो कच्चा गधा है
जो कोठे पे बोले वो सच्चा गधा है

जो खेतों में दीखे वो फसली गधा है
जो माइक पे चीखे वो असली गधा है

मैं क्या बक रहा हूँ, ये क्या कह गया हूँ
नशे की पिनक में कहाँ बह गया हूँ

मुझे माफ़ करना मैं भटका हुआ था
ये ठर्रा था भीतर जो अटका हुआ था!

© Omprakash Aditya : ओमप्रकाश ‘आदित्य

 

 

Arun Gemini : अरुण जैमिनी


नाम : अरुण जैमिनी
जन्म : 22 अप्रैल 1959; नई दिल्ली
शिक्षा : स्नातकोत्तर (जनसंचार एवं पत्रकारिता)

पुरस्कार एवं सम्मान
हरियाणा गौरव
काका हाथरसी सम्मान
टेपा सम्मान
ओमप्रकाश आदित्य सम्मान

प्रकाशन
फिलहाल इतना ही
हास्य व्यंग्य की शिखर कवितायेँ

निवास : नई दिल्ली


22 अप्रैल 1959 को जन्मे अरुण जैमिनी को कविता की समझ और कविता की प्रस्तुति का कौशल विरासत में मिला। पारिवारिक माहौल में कविता इतनी रची बसी थी कि कब वे देश के लोकप्रिय कवि हो गए, पता ही न चला। आपके पिता श्री जैमिनी हरियाणवी हिन्दी कविता की वाचिक परम्परा में हास्य विधा के श्रेष्ठ हस्ताक्षर माने जाते हैं। उन्हीं की परंपरा को आगे बढ़ाते हुए, हरियाणवी लोक शैली को आधार बनाकर विशुद्ध हास्य से ज़रा-सा आगे बढ़ते हुए व्यंग्य की रेखा पर खड़े होकर आप काव्य रचना करते हैं। मंचीय प्रस्तुति और प्रत्युत्पन्न मति के आधार पर आप हास्य कविता के वर्तमान दौर की प्रथम पंक्ति में खड़े दिखाई देते हैं।
हास्य की फुलझड़ियों के माध्यम से घण्टों श्रोताओं को बांधने का हुनर आपके व्यक्तित्व का प्रमुख अंग है। बेहतरीन मंच-संचालन तथा तर्काधारित त्वरित संवाद आपके काव्य-पाठ को अतीव रोचक बना देता है।
आपकी विधिवत शिक्षा स्नातकोत्तर तक हुई। पूरे भारत के साथ ही विदेशों में भी दर्जनों कवि-सम्मेलन में आपने काव्य पाठ किया है। ओमप्रकाश आदित्य सम्मान और काका हाथरसी हास्य रत्न पुरस्कार के साथ अनेक पुरस्कार व सम्मान आपके खाते में दर्ज हैं। आपका एक काव्य संग्रह ‘फ़िलहाल इतना ही’ के नाम से बाज़ार में उपलब्ध है। हास्य के पाताल से प्रारंभ होकर दर्शन, राष्ट्रभक्ति और संवेदना के चरम तक पहुँचने वाला आपका बौद्धिक कॅनवास आपको अन्य हास्य कवियों से अलग करता है।

Alhad Bikaneri : अल्हड़ ‘बीकानेरी’


नाम : अल्हड़ ‘बीकानेरी’ 17 मई सन् 1937 को हरियाणा राज्य के रेवाड़ी ज़िले में बीकानेर नामक गाँव में जन्मे श्याम लाल शर्मा को ये संसार अल्हड़ बीकानेरी के नाम से जानता है।सन् 1962 में आपने ‘माहिर’ बीकानेरी के नाम से ग़ज़ल की दुनिया में पदार्पण किया। शास्त्रीय संगीत (वोकल) में डिप्लोमा प्राप्त करने के बाद सन् 1967 में आप हास्य-व्यंग्य के रंगमंच पर ‘अल्हड़’ बीकानेरी के उपनाम से स्थापित हुए। सन् 1970 में आपका प्रथम काव्य-संग्रह ‘भज प्यारे तू सीताराम’ प्रकाशित हुआ। सन् 1986 में आपने एक हरियाणवी फीचर फिल्म ‘छोटी साली’ भी बनाई। ‘ठिठोली पुरस्कार’, ‘काका हाथरसी सम्मान’ तथा ‘हास्यरत्न’ समेत अनेक पुरस्कारों, सम्मानों व उपाधियों से आपको विभूषित किया गया। राष्ट्रपति भवन से लालक़िले तक और गाँव-गलियों से सात समुन्दर पार तक जहाँ-जहाँ हिन्दी की ख़ुश्बू है, वहाँ आपने अपनी कविताओं तथा शैली के दम पर काव्य-प्रेमियों के दिल पर राज किया है। हास्य को गेय बनाने में दक्ष अल्हड़ जी छन्द और ग़ज़ल के माहिर थे। बेहद सहज, सरल और सरस शैली अल्हड़ जी की रचनाओं की लोकप्रियता का संबल है। जितनी सहजता उनकी रचनाओं में है उतना ही माधुर्य उनके व्यक्तित्व में भी था। जीवन को वे अपने अलग नज़रिए से देखते थे। काव्य के प्रति वे इतने समर्पित थे कि उसमें किसी भी प्रकार की चूक की गुंजाइश उनके यहाँ मुश्क़िल से मिलती है। अपने दौर में लोकप्रियता के चरम को स्पर्श करने के बाद 16 जून 2009 में काव्य-जगत को एक ख़लिश देकर अल्हड़ जी हमसे विदा ले गए।