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ज़माना देखता रह जाएगा

सिर्फ़ हैरत से ज़माना देखता रह जाएगा
बाद मरने के कहाँ किसका पता रह जाएगा

अपने-अपने हौसले की बात सब करते रहे
ये मगर किसको पता था सब धरा रह जाएगा

तुम सियासत को हसीं सपना बना लोगे अगर
फिर तुम्हें जो भी दिखेगा क्या नया रह जाएगा

मंज़िलों की जुस्तजू में बढ़ रहा है हर कोई
मंज़िलें गर मिल गईं तो बाक़ी क्या रह जाएगा

‘मीत’ जब पहचान लोगे दर्द दिल के घाव का
फिर कहाँ दोनों में कोई फ़ासला रह जाएगा

© Anil Verma Meet : अनिल वर्मा ‘मीत’

 

कवि

एक विचार
बीज रूप में
गिरा उस कोख में
गर्भ ठहरा
मथती रही अभिव्यक्ति
उसे जन्म लेने के लिए।
न शब्द था संग
न अर्थ थे
थे केवल कोरे विचार
बिलख रही कोख में
बन्धया अभिव्यक्ति
अर्थ पाने के लिए।
गर्भवती माँ की पीड़ा
आज समझ पाया था
एक गर्भ धारक कवि…!

© Ashish Kumar Anshu : आशीष कुमार ‘अंशु’

 

पथिक!

पथिक! तुम्हारे पथ में कोई
दृश्य अनूठा आया होगा
धूली के कण-कण ने रह-रह
गीत अनूठा गाया होगा

कान तुम्हारे पास नहीं थे
पंछी गण की कलकल ध्वनि ने
उन्हें चुराया उन्हें लुभाया
सुख संवाद सुनाया होगा

ललित लताओं की कलियों में
बंदी थी वे चल ताराएँ
दीन-हीन जगती का हामी
सपने में तरसाया होगा

पैर तुम्हारे दुरभिमान से
रोंद रहे थे दीन कणों को
हो रहा था भू में कंपन
जगती को ठुकराया होगा

कोमल पावन हाथ तुम्हारे
कैसे उन नीचों को छूते
पाद तलों से घिसते-घिसते
जिसने जीवन पाया होगा

स्पंदन हीन दृश्य में शोणित
संचालन का वेग कहाँ था
मानवता-दानवता के विच
इतना अंतर पाया होगा

© Acharya Mahapragya : आचार्य महाप्रज्ञ

 

Naresh Shandilya : नरेश शांडिल्य

नाम : नरेश शांडिल्य
जन्म : 15 अगस्त 1958 (दिल्ली)
शिक्षा : स्नातकोत्तर (हिन्दी)

प्रकाशन
कुछ पानी कुछ आग
टुकड़ा-टुकड़ा ये ज़िन्दगी
दर्द जब हँसता है
मैं सदियों की प्यास

निवास : दिल्ली

15 अगस्त 1958 को दिल्ली में जन्मे नरेश शांडिल्य इस समय एक सशक्त दोहाकार के रूप में अपनी पहचान बना चुके हैं। हिन्दी विषय से स्नातकोत्तर तक शिक्षा प्राप्त करने के बाद बैंककर्मी के रूप में आपने आजीविका प्रारंभ की।
ख़ुद्दारी, संस्कृति और आत्मविश्वास से ओत-प्रोत आपकी रचनाएँ अपने चरम पर पहुँचते हुए दार्शनिक होती जाती हैं। ग़ज़ल, गीत, मुक्तछंद तथा दोहे आदि तमाम विधाओं में आपने अपनी लेखनी चलाई है। वर्तमान हिन्दी काव्य मंच पर तमाम संचालक आपके दोहों का प्रयोग करते देखे जा सकते हैं।

इस समय आप त्रैमासिक साहित्यिक पत्रिका ‘अक्षरम् संगोष्ठी’ के संपादक हैं तथा प्रवासी भारतीयों की अंतरराष्ट्रीय त्रैमासिक पत्रिका ‘प्रवासी टुडे’ के रचनात्मक निदेशक हैं।

देश-विदेश में आपने अपनी कविताओं के माध्यम से श्रोताओं से सीधे तारतम्य स्थापित किया है। अनेक महत्तवपूर्ण सम्मान तथा पुरस्कार आपको प्राप्त हैं और साथ ही ‘टुकड़ा-टुकड़ा ये ज़िन्दगी’, ‘दर्द जब हँसता है’, ‘मैं सदियों की प्यास’ तथा ‘कुछ पानी कुछ आग’ के नाम से आपके काव्य संग्रह प्रकाशित हो
चुके हैं। इतना ही नहीं ‘नाटय प्रस्तुति में गीतों की सार्थकता’ विषय पर आपका एक शोधकार्य भी उपलब्ध है।

आप नाटय जगत् से भी जुड़े हैं। अनेक नाटय प्रस्तुतियों में आपने स्वयं अभिनय तो किया ही है साथ ही लगभग 20 नाटकों के लिए आपने 50 से अधिक गीत भी लिखे हैं।

आपकी पुस्तक ‘कुछ पानी कुछ आग’ की भूमिका में डॉ. बलदेव वंशी आपके विषय में लिखते हैं- ”कवि के स्वर में एक चुनौती भी है। निर्धन, उपेक्षित, उत्पीड़ित की पक्षधरता में वह दृढ़ता से सन्नध्द ही नहीं, ललकारता भी है- अपनी मानवीय संवेदना की ज़मीन पर खड़ा होकर- अलमस्त फ़क़ीर और कबीर के स्वरों में।
जुझारूपन, संघर्ष और चुनौती को मशाल की तरह उठाए कवि कबीरी-फ़क़ीरी दु:साहस में से बोलता है, जो अपने समय की अपने से बड़ी राजसी-साम्प्रदायिक, सामाजिक सत्ता-व्यवस्थाओं से भिड़ने से ज़रा भी संकोच नहीं करता।”

उनकी ग़ज़लों की प्रशंसा करते हुए वरिष्ठ कवि बालस्वरूप राही लिखते हैं- ”दोहा, गीत तथा नुक्कड़ कविता में पारंगत होने के कारण नरेश शांडिल्य को अपनी ग़ज़लों में इन विधाओं की विशेषताओं का पूरा-पूरा लाभ मिला है। वे हमें कहीं भी बनावटी अथवा ऊपरी नहीं लगतीं। उनकी ग़ज़लों में गीतों जैसी एकान्विति है। यह
नहीं कि एक शे’र गहरी पीड़ा का है तो दूसरा विलास-क्रीड़ा का। दोहों के अत्यंत सफल कवि होने के कारण उन्हें दोहों की सार्थक संक्षिप्तता का लाभ अपने शे’रों की बुनावट में मिला है।

 

Charanjeet Charan : चरणजीत चरण

नाम : चरणजीत चरण
जन्म : 13 जून 1975
शिक्षा : स्नातकोत्तर (हिंदी तथा राजनीति शास्त्र)

प्रकाशन
सरगोशियाँ; पाँखी प्रकाशन
हसरतों के आईने; पाँखी प्रकाशन

निवास :ग्रेटर नोएडा

हिंदी काव्य मंच के भविष्य का चेहरा जिन चंद रचनाकारों से मिलकर तैयार होता है, उनमें से चरणजीत एक अहम् नाम है। देश की राजधानी दिल्ली से सटे नोएडा के छोटे से गाँव रन्हेरा में जन्मे चरणजीत हिंदी तथा राजनीति शास्त्र विषयों में स्नातकोत्तर उपाधि प्राप्त कर चुके हैं। इसके अतिरिक्त उन्होंने एलएलबी की पढ़ाई भी
की। वर्ष 2009 में एन चन्द्रा द्वारा निर्मित फिल्म ‘ये मेरा इंडिया’ और 2011 में संजय लीला भंसाली की फिल्म ‘माई फ्रैंड पिंटो’ में भी चरण ने गीत लिखे हैं। वर्तमान में चरणजीत उत्तर प्रदेश सरकार में अध्यापन कार्य से जुड़े हैं।
चरणजीत ‘चरण’ ग़ज़ल और छंदबद्ध कविता के ऐसे माहिर हस्ताक्षर हैं, जिन्हें सुनना स्वयं में एक अनोखा अहसास है। जब वे मंच पर छंद पढ़ रहे होते हैं तो प्रवाह का एक ऐसा समा बंधता है कि पूरे वातावरण में घनाक्षरी गूंजने लगता है। उनकी कविता में वर्तमान परिप्रेक्ष्य की विडंबनाओं पर तीखा कटाक्ष तो है ही, साथ ही
साथ सांस्कृतिक अवमूल्यन के प्रति एक गहरी चिंता भी है। वे सशक्त रूप में अपने गीतों के माध्यम से रूढ़ियों पर प्रहार भी करना जानते हैं और शालीनता के साथ गंभीर मुद्दों पर प्रश्न भी उठा सकते हैं।

 

सिर्फ़ अकेले चलने का मन है

रिश्ते कई बार बेड़ी बन जाते हैं
प्रश्नचिह्न बन राहों में तन जाते हैं
ऐसा नहीं किसी से कोई अनबन है
कुछ दिन सिर्फ़ अकेले चलने का मन है

तनहा चलना रास नहीं आता लेकिन
कभी-कभी तनहा भी चलना अच्छा है
जिसको शीतल छाँव जलाती हो पल-पल
कड़ी धूप में उसका जलना अच्छा है
अपना बनकर जब उजियारे छ्लते हों
अंधियारों का हाथ थामना अच्छा है
रोज़-रोज़ शबनम भी अगर दग़ा दे तो
अंगारों का हाथ थामना अच्छा है
क़दम-क़दम पर शर्त लगे जिस रिश्ते में
तो वह रिश्ता भी केवल इक बन्धन है
ऐसा नहीं किसी से कोई अनबन है
कुछ दिन सिर्फ़ अकेले चलने का मन है

दुनिया में जिसने भी आँखें खोली हैं
साथ जन्म के उसकी एक कहानी है
उसकी आँखों में जीवन के सपने हैं
आँसू हैं, आँसू के साथ रवानी है
अब ये उसकी क़िस्मत कितने आँसू हैं
और उसकी आँखों में कितने सपने हैं
बेगाने तो आख़िर बेगाने ठहरे
उसके अपनों मे भी कितने अपने हैं
अपनों और बेगानों से भी तो हटकर
जीकर देखा जाए कि कैसा जीवन है
ऐसा नहीं किसी से कोई अनबन है
कुछ दिन सिर्फ़ अकेले चलने का मन है

अपना बोझा खुद ही ढोना पड़ता है
सच है रिश्ते अक़्सर साथ नहीं देते
पाँवों को छाले तो हँसकर देते है
पर हँसती-गाती सौग़ात नहीं देते
जिसने भी सुलझाना चाहा रिश्तों को
रिश्ते उससे उतना रोज़ उलझते हैं
जिसने भी परवाह नहीं की रिश्तों की
रिश्ते उससे अपने आप सुलझते हैं
कभी ज़िन्दगी अगर मिली तो कह देंगे
तुझको सुलझाना भी कितनी उलझन है
ऐसा नहीं किसी से कोई अनबन है
कुछ दिन सिर्फ़ अकेले चलने का मन है

© Dinesh Raghuvanshi : दिनेश रघुवंशी

 

कल्पना

कल्पना का एक किनारा
तुम्हारे हाथ में है
और दूसरा मेरे हाथ में
ये सिमट भी सकते हैं
और बढ़ भी सकते हैं

© Acharya Mahapragya : आचार्य महाप्रज्ञ

 

ओस की बूँदें पड़ीं तो

ओस की बूँदें पड़ीं तो पत्तियाँ ख़ुश हो गईं
फूल कुछ ऐसे खिले कि टहनियाँ ख़ुश हो गईं

बेख़ुदी में दिन तेरे आने के यूँ ही गिन लिये
एक पल को यूँ लगा कि उंगलियाँ ख़ुश हो गईं

देखकर उसकी उदासी, अनमनी थीं वादियाँ
खिलखिलाकर वो हँसा तो वादियाँ ख़ुश हो गईं

आँसुओं में भीगे मेरे शब्द जैसे हँस पड़े
तुमने होठों से छुआ तो चिट्ठियाँ ख़ुश हो गईं

साहिलों पर दूर तक चुपचाप बिखरी थीं जहाँ
छोटे बच्चों ने चुनी तो सीपीयाँ ख़ुश हो गईं

© Dinesh Raghuvanshi : दिनेश रघुवंशी

 

ज़िंदगी मुश्क़िल से आती है

क़जा आती है पल– पल, ज़िंदगी मुश्क़िल से आती है
अगर हँसना भी चाहें तो, हँसी मुश्क़िल से आती है
उसी का नाम होठों पर उसी को है दुआ दिल से
जिसे शायद हमारी याद भी मुश्क़िल से आती है

© Dinesh Raghuvanshi : दिनेश रघुवंशी

 

चुप्पियाँ तोड़ना जरुरी है

चुप्पियाँ तोड़ना ज़रुरी है
लब पे कोई सदा ज़रुरी है

आइना हमसे आज कहने लगा
ख़ुद से भी राब्ता ज़रुरी है

हमसे कोई ख़फ़ा-सा लगता है
कुछ न कुछ तो हुआ ज़रुरी है

ज़िंदगी ही हसीन हो जाए
इक तुम्हारी रज़ा ज़रुरी है

अब दवा का असर नहीं होगा
अब किसी की दुआ ज़रुरी है

© Dinesh Raghuvanshi : दिनेश रघुवंशी