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संज्ञा का अपमान

एक विशेषण की चाहत में
संज्ञा का अपमान किया है
लाए को अनदेखा कर के
पाए पर अभिमान किया है

अभिलाषा के रथ पर फहरी
स्पर्धा की उत्तुंग ध्वजा है
लोभ बुझे तीरों से भरकर
लिप्सा का तूणीर सजा है
अपना ही सुख खेत हुआ है
कैसा शर संधान किया है

जीवन को वरदान मिला है
श्वास किसी की दासी कब है
मीठे जल से ना बुझ पाए
तृष्णा इतनी प्यासी कब है
निश्चित की आश्वस्ति बिसारी
संभव का अनुमान किया है

मानव होना बहुत न जाना
जाने क्या से क्या बन बैठा
कभी दरोगा, कभी नियामक
और कभी धन्ना बन बैठा
संतुष्टि का अमृत तजकर
कुंठा का विषपान किया है

भोर न जानी, रैन न देखी
दिन भर की है भागा-दौड़ी
सुख के पल खोकर जो जोड़ी
छूट गई हर फूटी कौड़ी
अपने जीवन के राजा ने
औरों को श्रमदान किया है

© Chirag Jain : चिराग़ जैन

 

सिर्फ़ अकेले चलने का मन है

रिश्ते कई बार बेड़ी बन जाते हैं
प्रश्नचिह्न बन राहों में तन जाते हैं
ऐसा नहीं किसी से कोई अनबन है
कुछ दिन सिर्फ़ अकेले चलने का मन है

तनहा चलना रास नहीं आता लेकिन
कभी-कभी तनहा भी चलना अच्छा है
जिसको शीतल छाँव जलाती हो पल-पल
कड़ी धूप में उसका जलना अच्छा है
अपना बनकर जब उजियारे छ्लते हों
अंधियारों का हाथ थामना अच्छा है
रोज़-रोज़ शबनम भी अगर दग़ा दे तो
अंगारों का हाथ थामना अच्छा है
क़दम-क़दम पर शर्त लगे जिस रिश्ते में
तो वह रिश्ता भी केवल इक बन्धन है
ऐसा नहीं किसी से कोई अनबन है
कुछ दिन सिर्फ़ अकेले चलने का मन है

दुनिया में जिसने भी आँखें खोली हैं
साथ जन्म के उसकी एक कहानी है
उसकी आँखों में जीवन के सपने हैं
आँसू हैं, आँसू के साथ रवानी है
अब ये उसकी क़िस्मत कितने आँसू हैं
और उसकी आँखों में कितने सपने हैं
बेगाने तो आख़िर बेगाने ठहरे
उसके अपनों मे भी कितने अपने हैं
अपनों और बेगानों से भी तो हटकर
जीकर देखा जाए कि कैसा जीवन है
ऐसा नहीं किसी से कोई अनबन है
कुछ दिन सिर्फ़ अकेले चलने का मन है

अपना बोझा खुद ही ढोना पड़ता है
सच है रिश्ते अक़्सर साथ नहीं देते
पाँवों को छाले तो हँसकर देते है
पर हँसती-गाती सौग़ात नहीं देते
जिसने भी सुलझाना चाहा रिश्तों को
रिश्ते उससे उतना रोज़ उलझते हैं
जिसने भी परवाह नहीं की रिश्तों की
रिश्ते उससे अपने आप सुलझते हैं
कभी ज़िन्दगी अगर मिली तो कह देंगे
तुझको सुलझाना भी कितनी उलझन है
ऐसा नहीं किसी से कोई अनबन है
कुछ दिन सिर्फ़ अकेले चलने का मन है

© Dinesh Raghuvanshi : दिनेश रघुवंशी

 

लुका-छिपी का खेल

लुका-छिपी का खेल खेलने में,
मैं उस दिन चोर था।

साफ साफ है याद अभी तक
बचपन की बीती हर घटना
सारे चित्र अभी तक उभरे
रत्ती भर भी हुए न बासी,
कितनी ही धुँधली शामों में
मैंने लुका छिपी खेला था
सौ तक की गिनती गिननी थी
अंजुलि में थी रेत ज़रा सी,
और शर्त यह रेत न फिसले
उसे कहीं पर रख आना था
गिनती गिनकर उसे खोजना
पर सब करना आँखें मीचे,
मैं सरपट गिनती गिनता था
छिप छिप बीच बीच में देखा
एक एक कर सभी छुप गये
दाएं-बाएं ऊपर-नीचे,
धीरे धीरे शान्त हो गया आस पास जो शोर था।
लुका छिपी का खेल खेलने में मैं उस दिन चोर था।

दिखे बीस पच्चीस तीस तक
अपनी जगहें खोज रहे सब
इसके आगे गिनी अकेले
मैंने फिर न किसी को देखा,
पता नहीं वह गिनती थी,या
जीवन के बीतते बरस थे
जाने कहाँ छुप गये सारे
राहुल शोभित मंजू रेखा,
तब से अब तक खोज रहा हूँ
शहर शहर मैं घर घर जाकर
पर न मिले वे मीत न वे दिन
जो बचपन में साथ बिताये,
जाने कहाँ छुपे हैं सारे
मानी मैंने चोरी मानी
पल पल राह निहार रहा हूँ
कोई आकर टीप लगाये,
क्या बचपन की उन शर्तों का धागा यों कमजोर था?
लुकाछिपी का खेल खेलने में मैं उस दिन चोर था।

© Gyan Prakash Aakul : ज्ञान प्रकाश आकुल

 

कल्पना

कल्पना का एक किनारा
तुम्हारे हाथ में है
और दूसरा मेरे हाथ में
ये सिमट भी सकते हैं
और बढ़ भी सकते हैं

© Acharya Mahapragya : आचार्य महाप्रज्ञ

 

चुप्पियाँ तोड़ना जरुरी है

चुप्पियाँ तोड़ना ज़रुरी है
लब पे कोई सदा ज़रुरी है

आइना हमसे आज कहने लगा
ख़ुद से भी राब्ता ज़रुरी है

हमसे कोई ख़फ़ा-सा लगता है
कुछ न कुछ तो हुआ ज़रुरी है

ज़िंदगी ही हसीन हो जाए
इक तुम्हारी रज़ा ज़रुरी है

अब दवा का असर नहीं होगा
अब किसी की दुआ ज़रुरी है

© Dinesh Raghuvanshi : दिनेश रघुवंशी

 

मुझको पुकारा नहीं गया

जिन रास्तों से मुझको पुकारा नहीं गया
उन पर कभी मैं दोस्त दुबारा नहीं गया

सागर की सम्त बढ़ती रही उम्र भर नदी
लहरों के साथ कोई किनारा नहीं गया

देखा था मुस्कुरा के मुझे उसने पहली बार
नज़रों से आज तक वो नज़ारा नहीं गया

हैरत के साथ उससे पशेमां हूँ आज भी
इक ख़्वाब था जो मुझसे सँवारा नहीं गया

तेरे बग़ैर उम्र तो मैंने गुज़ार दी
इक पल मगर सुकूँ से गुज़ारा नहीं गया

© Charanjeet Charan : चरणजीत चरण

 

भविष्य

भविष्य!
वर्तमान से निर्मित होता है
वर्तमान!
भविष्य में प्रतिबिंबित होता है
जो वर्तमान में जीता है
भविष्य उसी का होता है

© Acharya Mahapragya : आचार्य महाप्रज्ञ

 

स्मृतियाँ

अधखुली ऑंखों में
थिरकती नन्हीं पुतलियाँ
प्रतिबिम्बों का भार ढो रही हैं
पश्चिम के दरवाज़े पर
प्रतीक्षा से ऊबी
स्मृतियाँ
सिसक-सिकक
रो रही हैं।

– आचार्य महाप्रज्ञ

 

अपनी आवाज़ ही सुनूँ कब तक

अपनी आवाज़ ही सुनूँ कब तक
इतनी तन्हाई में रहूँ कब तक

इन्तिहा हर किसी की होती है
दर्द कहता है मैं उठूँ कब तक

मेरी तक़दीर लिखने वाले, मैं
ख़्वाब टूटे हुए चुनूँ कब तक

कोई जैसे कि अजनबी से मिले
ख़ुद से ऐसे भला मिलूँ कब तक

जिसको आना है क्यूँ नहीं आता
अपनी पलकें खुली रखूँ कब तक

© Dinesh Raghuvanshi : दिनेश रघुवंशी

 

ये चार काग़ज़, ये लफ्ज़ ढाई

ये चार काग़ज़, ये लफ्ज़ ढाई
है उम्र भर की यही कमाई

किसी ने हम पर जिगर उलीचा
किसी ने हमसे नज़र चुराई

दिया ख़ुदा ने भी ख़ूब हमको
लुटाई हमने भी पाई-पाई

न जीत पाए, न हार मानी
यही कहानी, ग़ज़ल, रुबाई

न पूछ कैसे कटे हैं ये दिन
न माँग रातों की यूँ सफाई

© Naresh Shandilya : नरेश शांडिल्य