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किसी से बात कोई आजकल नहीं होती

किसी से बात कोई आजकल नहीं होती
इसीलिए तो मुक़म्म्ल ग़ज़ल नहीं होती

ग़ज़ल-सी लगती है लेकिन ग़ज़ल नहीं होती
सभी की ज़िंदगी खिलता कँवल नहीं होती

तमाम उम्र तज़ुर्बात ये सिखाते हैं
कोई भी राह शुरु में सहल नहीं होती

मुझे भी उससे कोई बात अब नहीं करनी
अब उसकी ओर से जब तक पहल नहीं होती

वो जब भी हँसती है कितनी उदास लगती है
वो इक पहेली है जो मुझसे हल नहीं होती

© Dinesh Raghuvanshi : दिनेश रघुवंशी

 

रूठकर आए तुम

रूठकर आए तुम
“शहर से कोई आता नहीं लौटकर”
ऐसी हर बात को झूठ कर आए तुम
प्रीत पर पीर की जब परत जम गई
तब किसी बीज-से फूटकर आए तुम

भोर आई नयन में निशा आँजकर
धूप बैठी थी मल देह नवनीतता
आस और त्रास में झूलता था हृदय
पल में युग रीतते, पल नहीं बीतता
तोड़कर चल पड़े स्वप्न जिस नैन के
अब उसी नैन में टूटकर आए तुम

इक छवि शेष तो थी हृदय में कहीं
व्यस्तताओं ने तुमको दिया था भुला
हँस पड़ी रोते-रोते प्रतीक्षाएँ सब
कह रहा है समय क्या कोई चुटकुला
थक गईं सारी अनुनय-विनय उस जगह
आए भी तो प्रिये रूठकर आए तुम

© Manisha Shukla : मनीषा शुक्ला

 

सपने गीत बने

किसे पता है? अक्सर मेरे सपने गीत बने।

कुछ सपने मेलोँ जैसे हैँ कोई है सूने का सपना।
कभी कभी क्षमता से ऊँचा इन्द्रधनुष छूने का सपना।
जैसे हारी हुयी थकन का सपना जीत बने।

कमरे की खिड़की का परदा मैँने अरसे बाद हटाया,
खिड़की से चिपका बैठा था कब से पागल चाँद लजाया।
मै भी चाहूँ मेरा भी कुछ सुखद अतीत बने।

अगर गीत बनवाना हो तो तुम भी अपने सपने देना,
मुझे रात दिन हँसने रोने लिखने और तड़पने देना।
बस सपने ही दिये सभी ने जो भी मीत बने।

© Gyan Prakash Aakul : ज्ञान प्रकाश आकुल

 

कोई नहीं

ना ही मंज़िल, रास्ता कोई नहीं
सच है फिर मेरा ख़ुदा कोई नहीं

है बड़ा ये गाँव भी, वो गाँव भी
तीन रंगों से बड़ा कोई नहीं

सब गले का हार बन बैठे मगर
हाथ की लाठी बना कोई नहीं

ज़िन्दगी से दूरियाँ सिमटी ज़रूर
मौत से भी फ़ासला कोई नहीं

कुछ न कुछ होने का सबको इल्म है
इस शहर में सिरफिरा कोई नहीं

ना ही आँसू, दर्द है, ना बेबसी
ज़िन्दगी में अब मज़ा कोई नहीं

उसको ‘अद्भुत’ सिर्फ़ सच से प्यार है
उसके ज़ख़्मों की दवा कोई नहीं

© Arun Mittal Adbhut : अरुण मित्तल ‘अद्भुत’

 

सिर्फ़ अकेले चलने का मन है

रिश्ते कई बार बेड़ी बन जाते हैं
प्रश्नचिह्न बन राहों में तन जाते हैं
ऐसा नहीं किसी से कोई अनबन है
कुछ दिन सिर्फ़ अकेले चलने का मन है

तनहा चलना रास नहीं आता लेकिन
कभी-कभी तनहा भी चलना अच्छा है
जिसको शीतल छाँव जलाती हो पल-पल
कड़ी धूप में उसका जलना अच्छा है
अपना बनकर जब उजियारे छ्लते हों
अंधियारों का हाथ थामना अच्छा है
रोज़-रोज़ शबनम भी अगर दग़ा दे तो
अंगारों का हाथ थामना अच्छा है
क़दम-क़दम पर शर्त लगे जिस रिश्ते में
तो वह रिश्ता भी केवल इक बन्धन है
ऐसा नहीं किसी से कोई अनबन है
कुछ दिन सिर्फ़ अकेले चलने का मन है

दुनिया में जिसने भी आँखें खोली हैं
साथ जन्म के उसकी एक कहानी है
उसकी आँखों में जीवन के सपने हैं
आँसू हैं, आँसू के साथ रवानी है
अब ये उसकी क़िस्मत कितने आँसू हैं
और उसकी आँखों में कितने सपने हैं
बेगाने तो आख़िर बेगाने ठहरे
उसके अपनों मे भी कितने अपने हैं
अपनों और बेगानों से भी तो हटकर
जीकर देखा जाए कि कैसा जीवन है
ऐसा नहीं किसी से कोई अनबन है
कुछ दिन सिर्फ़ अकेले चलने का मन है

अपना बोझा खुद ही ढोना पड़ता है
सच है रिश्ते अक़्सर साथ नहीं देते
पाँवों को छाले तो हँसकर देते है
पर हँसती-गाती सौग़ात नहीं देते
जिसने भी सुलझाना चाहा रिश्तों को
रिश्ते उससे उतना रोज़ उलझते हैं
जिसने भी परवाह नहीं की रिश्तों की
रिश्ते उससे अपने आप सुलझते हैं
कभी ज़िन्दगी अगर मिली तो कह देंगे
तुझको सुलझाना भी कितनी उलझन है
ऐसा नहीं किसी से कोई अनबन है
कुछ दिन सिर्फ़ अकेले चलने का मन है

© Dinesh Raghuvanshi : दिनेश रघुवंशी

 

कोई गीत नहीं लिखा

तुम रूठी तो मैंने रोकर, कोई गीत नहीं लिखा
इस ग़म में दीवाना होकर, कोई गीत नहीं लिखा
तुम जब मेरे संग थी तब तक नज़्में-ग़ज़लें ख़ूब कहीं
लेकिन साथ तुम्हारा खोकर कोई गीत नहीं लिखा

ऐसा नहीं तुम्हारी मुझको याद नहीं बिल्कुल आती
मन भर-भर आता है फिर भी साँस नहीं रुकने पाती
ख़ुद से उखड़ा रहता हूँ पर जीवन चलता रहता है
शायद मैंने खण्डित की है प्रेमनगर की परिपाटी
इसीलिए तो नयन भिगोकर कोई गीत नहीं लिखा

तुम्हें बतानी थी नग्मों में प्रेम-वफ़ा की परिभाषा
और जतानी थी फिर से मिलने की अंतिम अभिलाषा
तुम्हें उलाहना देना था या ख़ुद को दोषी कहना था
और फिर ईश्वर के आगे रखनी थी कोई जिज्ञासा
मैंने अब तक आख़िर क्योंकर कोई गीत नहीं लिखा

संबंधों की पीड़ा भी है, भीतर का खालीपन भी
मुझसे घण्टों बतियाता रहता है मेरा दरपन भी
रात-रात भर भाव घुमड़ते रहते हैं मन के भीतर
नयन कोर पर हो ही जाता है आँसू का तर्पण भी
इतना सब सामान संजोकर कोई गीत नहीं लिखा

सारी दुनिया को कैसे बतलाऊंगा अपनी बातें
आकर्षण, अपनत्व, समर्पण और पीड़ा की बरसातें
जिन बातों को हम-तुम बस आँखों-आँखों में करते थे
क्या शब्दों में बंध पाएंगी वो भावों की सौगातें
इन प्रश्नों से आहत होकर कोई गीत नहीं लिखा

© Chirag Jain : चिराग़ जैन

 

मन का मौसम

इस बार गर्मी ने
रिकॉर्ड तोड़ा है
शहर में!

सूरज,
तपती आग का
एक गोला-सा
जैसे निगल ही जाएगा
धरती को….
धरती दिन-रात
जल रही है
तवे की तरह।

लेकिन
न जाने क्यों
नहीं बदला है मौसम
मन के
भीतर का
नहीं पिघल रही है
मन पर जमी बर्फ़
शायद उसे चाहिए
कुछ और तपिश

…गर्मी नहीं
सम्बन्धों की ऊष्मा ही
पिघला सकती है
ये बर्फ़
तभी शायद
मन का मौसम बदलेगा
और जमा है
जो बर्फ़-सा
वो अकेलापन
पिघलेगा।

© संध्या गर्ग

 

 

मील का पत्थर उदास है

मंज़िल का दर्द क़ल्ब में रहकर उदास है
बरसों से एक मील का पत्थर उदास है

मैं सोचकर उदास हूँ है रास्ता तवील
तू मंज़िलों के पास भी जाकर उदास है

यादों के कैनवास को अर्जुन नहीं मिला
रंगों की द्रोपदी का स्वयंवर उदास है

परछाइयों को देख सिसकती है चांदनी
ऊँचाइयों को देख समंदर उदास है

सपनों का ये लिबास नज़र से उतार तो
जो शाद दिख रहा है वही घर उदास है

जितनी बढ़ेगी तीरगी चमकेगा और भी
जुगनू को देख रात का पैकर उदास है

वो बात ही कुछ ऐसी ‘चरन’ कह गया मगर
सुनकर उदास मैं हूँ वो कहकर उदास है

© Charanjeet Charan : चरणजीत चरण

 

तुम्हारे शहर से जाने का मन है

तुम्हारे शहर से जाने का मन है
यहाँ कोई भी तो अपना नहीं है
महक थी अपनी साँसों में, परों में हौसला भी था
तुम्हारे शहर में आए तो हम कुछ ख़्वाब लाए थे
जमीं पर दूर तक बिखरे–जले पंखो! तुम्हीं बोलो
मिलाकर इत्र में भी मित्र कुछ तेज़ाब ले आए
बड़ा दिल रखते हैं लेकिन हक़ीक़त सिर्फ़ है इतनी
दिखाने के लिए ही बस ये हर रिश्ता निभाते हैं
कि जब तक काम कोई भी न हो इनको किसी से तो
न मिलने को बुलाते हैं, न मिलने ख़ुद ही आते हैं
बहुत नज़दीक जाकर देखने से जान पाए हम
कोई चेहरे नहीं हैं ये मुखौटे ही मुखौटे हैं
हमेशा ही बड़ी बातें तो करते रहते हैं हरदम
पर इनकी सोच के भी क़द इन्हीं के क़द से छोटे हैं
कभी लगता है सारे लोग बाज़ीगर नहीं तो क्या
मज़े की बात है हमको करामाती समझते हैं
हमेशा दूसरों के दिल से यूँ ही खेलने वाले
बड़ा सबसे जहाँ में ख़ुद को जज़्बाती समझते हैं
शिक़ायत हमसे करते हैं कि दुनिया की तरह हमको
समझदारी नहीं आती, वफ़ादारी नहीं आती
हमें कुछ भी नहीं आता, मगर इतना तो आता है
ज़माने की तरह हमको अदाकारी नहीं आती
न जाने शहर है कैसा, न जाने लोग हैं कैसे
किसी की चुप्पियों को भी ये कमज़ोरी समझते हैं
बहुत बचकर, बहुत बचकर, बहुत बचकर चलो तो भी
बिना मतलब, बिना मतलब, बिना मतलब उलझते हैं
शहर की इन फ़िजाओं में अजब-सी बात ये देखी
खुला परिवेश है फिर भी घुटन महसूस होती है
यहाँ अनचाहे-अनजाने से रिश्ते हैं बहुत लेकिन
हर इक रिश्ते की आहट में चुभन महसूस होती है
बहुत मज़बूर होकर हम अगर क़ोशिश करें तो भी
तुम्हारे शहर में औरों के जैसे हो नहीं सकते
बिछाता है कोई काँटे अगर राहों में तो भी हम
किसी की राह में काँटे कभी भी बो नहीं सकते
मिलेंगे अब कहाँ अपने, जगेंगे क्या नए सपने
बुझेगी अब कहाँ पर तिश्नगी ये किसलिए सोचें
चलो खुद सौंप आएँ ज़िन्दगी के हाथ में ख़ुद को
कहाँ ले जाएगी फिर ज़िन्दगी ये किसलिए सोचें
नए रस्ते, नए हमदम, नई मंज़िल, नई दुनिया
भले हों इम्तिहां कितने, कोई अब ग़म नहीं होंगे
सफ़र यूँ ज़िन्दगी का रोज़ कम होता रहे तो भी
सफ़र ज़िन्दादिली का उम्र भर अब कम नहीं होगा
यहाँ नफ़रत के दरिया हैं, यहाँ ज़हरीले बादल हैं
यहाँ हम प्यार की एक बूंद तक को भी तरसते हैं
यहाँ से दूर, थोड़ी दूर, थोड़ी दूर जाने दो
यहाँ हर कूचे में दीवानों पे पत्थर बरसते हैं
ऐ मेरे दोस्त! तुम मरहम लिए बैठे रहो लेकिन
ज़माना ज़ख़्म भरने की इज़ाज़त भी नहीं देगा
हमें फ़ितरत पता है इस शहर की, ये शरीफ़ों को
न जीने चैन से देगा, न मरने चैन से देगा
अगर अपना समझते हो तो मुझसे कुछ भी मत पूछो
समाया है अभी दिल में गहन सागर का सन्नाटा
किसी से कहना भी चाहें तो हम कुछ कह नहीं सकते
हमें ख़ामोश रखता है बहुत अन्दर का सन्नाटा
किसी को फ़र्क क्या पड़ता है जो हम ख़ुद में तन्हा हैं
किसी दिन शाख़ से पत्ते की तरह टूट भी जाएँ
किसी से भी कभी ये सोच करके हम नहीं रूठे
मनाने कौन आएगा, अगर हम रूठ भी जाएँ
तुम्हारे शहर के ये लोग, तुम इनको बताना तो
भला औरों के क्या होंगे ये ख़ुद अपने नहीं हैं
मुसलसल पत्थरों में रह के पत्थर बन गए सब
किसी की आँख में भी प्यार के सपने नहीं हैं
मुझे मालूम है ऐ दोस्त! तुम ऐसे नहीं हो; पर
तुम्हारा दिल दुखाकर मैं भला ख़ुश कब रहूंगा
मगर अब सिर से ऊँचा उठ रहा है रोज़ पानी
मैं अपने दिल पे पत्थर रखके बस तुमसे कहूंगा-
तुम्हारे शहर से जाने का मन है
यहाँ कोई भी तो अपना नहीं है

© Dinesh Raghuvanshi : दिनेश रघुवंशी

 

 

अपनी आवाज़ ही सुनूँ कब तक

अपनी आवाज़ ही सुनूँ कब तक
इतनी तन्हाई में रहूँ कब तक

इन्तिहा हर किसी की होती है
दर्द कहता है मैं उठूँ कब तक

मेरी तक़दीर लिखने वाले, मैं
ख़्वाब टूटे हुए चुनूँ कब तक

कोई जैसे कि अजनबी से मिले
ख़ुद से ऐसे भला मिलूँ कब तक

जिसको आना है क्यूँ नहीं आता
अपनी पलकें खुली रखूँ कब तक

© Dinesh Raghuvanshi : दिनेश रघुवंशी