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तुम्हारी याद आती है

अभी झंकार उस पल की ह्रदय में गुनगुनाती है
यही सच है मुझे अब भी तुम्हारी याद आती है

नहाई हैं मधुर-सी गंध के झरने में वो बातें
तुम्हारे प्यार के दो बोल वो मेरी हैं सोगातें
अभी कोयल सुहानी शाम में वो गीत गाती है
यही सच है मुझे अब भी तुम्हारी याद आती है

हवाओं से रहा सुनता हूँ मन का साज अब तक भी
फिज़ाओं में घुली है वो मधुर आवाज अब तक भी
वो मुझको पास अपने खींचकर हरदम बुलाती है
यही सच है मुझे अब भी तुम्हारी याद आती है

तुम्हें ही सोचता रहता हूँ ये साँसें हैं तुमसे ही
अचानक चुभने लगती है मुझे मौसम की खामोशी
ओ’ बरबस आँसुओं से मुस्कराहट भीग जाती है
यही सच है मुझे अब भी तुम्हारी याद आती है

तुम्हें गर भूलना चाहूँ तो ख़ुद को भूलना होगा
मगर जीना है तो कुछ इस तरह भी सोचना होगा
कठिन ये ज़िन्दगी आसान लम्हे भी तो लाती है
यही सच है मुझे अब भी तुम्हारी याद आती है

© Arun Mittal Adbhut : अरुण मित्तल ‘अद्भुत’

 

स्नेह-निर्झर

स्नेह-निर्झर बह गया है
रेत ज्यों तन रह गया है
आम की यह डाल जो सुखी दिखी,
कह रही है – अब यहाँ पिक या शिखी
नहीं आते, पंक्ति मैं वह हूँ लिखी
नहीं जिसका अर्थ –
जीवन दह गया है
दिये हैं मैंने जगत को फूल-फल ,
किया है अपनी प्रभा से चकित-चल ,
पर अनश्वर था सकल पल्लवित पल
ठाट जीवन का वही –
जो ढह गया है

अब नहीं आती पुलिन पर प्रियतमा ,
श्याम तृण पर बैठने को निरुपमा
बह रही है हृदय पर केवल अमा ;
मैं अलक्षित हूँ, यही
कवि कह गया है

© Suryekant Tripathi ‘Nirala’ : सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’

 

मेरे हमसफ़र

किसी राह में, किसी मोड़ पर
कहीं चल न देना तू छोड़ कर
मेरे हमसफ़र, मेरे हमसफ़र

किसी हाल में, किसी बात पर
कहीं चल न देना तू छोड़ कर
मेरे हमसफ़र, मेरे हमसफ़र

मेरा दिल कहे कहीं ये न हो
नहीं ये न हो, नहीं ये न हो
किसी रोज़ तुझसे बिछड़ के मैं
तुझे ढूंढती फिरूँ दर-ब-दर
मेरे हमसफ़र, मेरे हमसफ़र

तेरा रंग साया बहार का
तेरा रूप आईना प्यार का
तुझे आ नज़र में छुपा लूँ मैं
तुझे लग न जाए कहीं नज़र
मेरे हमसफ़र, मेरे हमसफ़र

तेरा साथ है तो है ज़िन्दगी
तेरा प्यार है तो है रौशनी
कहाँ दिन ये ढल जाए क्या पता
कहाँ रात हो जाए क्या ख़बर
मेरे हमसफ़र, मेरे हमसफ़र

फिल्म : मेरे हमसफ़र
संगीतकार : कल्याण जी- आनन्द जी
स्वर – मुकेश-लता मंगेशकर

© Anand Bakshi : आनन्द बख्शी

 

समय

जब समय गढ़ने चलेगा पात्र नूतन
तुम नहीं देना कभी परिचय हमारा

धर चलेगी अंजुरी पर अंजुरी सौभाग्यबाला
प्रेम की सुधियां चुनेंगी बस उसी दिन घर-निकाला
इक कुलीना मोल लेगी रीतियों से हर समर्पण
जीत कर तुमको नियति से, डाल देगी वरणमाला

ओढ़नी से जोड़ लेगी पीत अम्बर,
और टूटेगा वहीं निश्चय हमारा

मांग भरना जब कुँआरी, देखना ना हाथ कांपे
मंत्र के उच्चारणों को, यति हृदय की भी न भांपे
जब हमारी ओर देखो, तब तनिक अनजान बनना
मुस्कुराएँगी नयन में बदलियां कुछ मेघ ढांपे

जग नहीं पढ़ता पनीली चिठ्ठियों को
तुम समझ लेना मग़र आशय हमारा

स्वर्गवासी नेह को अंतिम विदाई सौंप आए
अब लिखे कुछ भी विधाता, हम कलाई सौंप आए
अब मिलेंगे हर कसौटी को अधूरे प्राण अपने
हम हुए थे पूर्ण जिससे वो इकाई सौंप आए

उत्तरों की खोज में है जग-नियंता
इक अबूझा प्रश्न है परिणय हमारा

© Manisha Shukla : मनीषा शुक्ला

 

 

तुम तक नींद न आई होगी

तुम तक नींद न आई होगी
मेरी आँखों से
मेरी आँखों से ओझल हो, तुम तक नींद न आई होगी !

नींद स्वयं ही चुरा ले गई,
मेरे मन के स्वप्न ही सुहाने;
अँधियारी-रजनी के धोखे,
भूल हो गई यह अनजाने;

जितनी निकट नींद के उतनी, और कहाँ निठुराई होगी ?
मेरी आँखे से ओझल हो, तुम तक नींद न आई होगी ?

मिलन-विरह के कोलाहल में,
तुम अब तक एकाकी कैसे ?
परिवर्तन-शीला संसृति में,
तुम सचमुच जैसे-के-तैसे;

ऐसी आराधना, धरा पर, कब किसने अपनाई होगी,
मेरी आँखों से ओझल हो, तुम तक नींद न आई होगी ।

यौवन की कलुषित-कारा में
तुम पावन से भी अति पावन,
पापी-दुनिया बहुत बुरी है,
ओ, मेरे भाले मनभावन !

देख तुम्हारी निर्मलता को, शबनम भी शरमाई होगी !
मेरी आँखों से ओझल हो, तुम तक नींद न आई होगी !

© Balbir Singh Rang : बलबीर सिंह ‘रंग’

 

रूठकर आए तुम

रूठकर आए तुम
“शहर से कोई आता नहीं लौटकर”
ऐसी हर बात को झूठ कर आए तुम
प्रीत पर पीर की जब परत जम गई
तब किसी बीज-से फूटकर आए तुम

भोर आई नयन में निशा आँजकर
धूप बैठी थी मल देह नवनीतता
आस और त्रास में झूलता था हृदय
पल में युग रीतते, पल नहीं बीतता
तोड़कर चल पड़े स्वप्न जिस नैन के
अब उसी नैन में टूटकर आए तुम

इक छवि शेष तो थी हृदय में कहीं
व्यस्तताओं ने तुमको दिया था भुला
हँस पड़ी रोते-रोते प्रतीक्षाएँ सब
कह रहा है समय क्या कोई चुटकुला
थक गईं सारी अनुनय-विनय उस जगह
आए भी तो प्रिये रूठकर आए तुम

© Manisha Shukla : मनीषा शुक्ला

 

वही एक शाम

वही एक शाम
भीतर भी
बाहर भी
छुपी भी
उजागर भी
वही एक शाम
मेरी साँसों में चुभती है
थकन भरी रातों में
उखड़ी-सी नींदों में
बहुत हल्के से दुखती है
टूटे से, बिखरे से
सपनों की बूंदों से
ये मेरे मन का ताल
भरता है
सूखता है
सूखता है
भरता है
उसी से जो नमी-सी है
ताल के किनारों पर
उसमें ही रह-रह के
वही चंदा चमकता है
वही एक शाम
मेरी साँसों में चुभती है
जिसकी मटमैली चांदनी में
बरगद के नीचे जब
मिट्टी के ढेर पर
रखकर दो पत्थर
रो-रो के जब हमने
निशानियाँ दबाई थीं
अब भी वो पत्थर दो
छाती पे धरे हो
भीतर भी
बाहर भी
छुपी भी
उजागर भी
वही एक शाम
मेरी साँसों में चुभती है
उठ-उठ के आती हैं
बरगद के नीचे से
निशानियाँ वो संग मेरे
अक्सर ही चलती हैं
वही एक शाम मेरी
साँसों में चुभती है
थकन भरी रातों में
उखड़ी-सी नींदों में
बहुत हल्के से दुखती है।

© Vivek Mishra : विवेक मिश्र

 

 

दो पल तुम्हारे

ओ हमारी यात्रा के मौन सहचर,
मैँ न दे पाया तुम्हे दो पल तुम्हारे।

याद है मुझको मरुस्थल की कहानी,
दूर तक दिखता न था दो बूँद पानी,
तब तुम्हारे लोचनोँ से बल मिला था,
बन गये थे नैन गंगाजल तुम्हारे।

याद है मुझको हवा की वह प्रबलता,
छोड़ आये थे कहीँ हम नीड़ जलता,
देखते थे लोग सारे मौन होकर,
जल रहे थे प्रश्न मेरे हल तुम्हारे।

लौट आये हम उसी नदिया किनारे,
दूर तक बिखरे हुये हैँ सब सितारे,
मन क्षितिज पर बिजलियाँ कौँधी अचानक,
आ गये भेजे हुये बादल तुम्हारे।

© Gyan Prakash Aakul : ज्ञान प्रकाश आकुल

 

तुमसे मिलकर

तुमसे मिलकर जीने की चाहत जागी
प्यार तुम्हारा पाकर ख़ुद से प्यार हुआ

तुम औरों से कब हो, तुमने पल भर में
मन के सन्नाटों का मतलब जान लिया
जितना मैं अब तक ख़ुद से अनजान रहा
तुमने वो सब पल भर में पहचान लिया
मुझ पर भी कोई अपना हक़ रखता है
यह अहसास मुझे भी पहली बार हुआ
प्यार तुम्हारा पाकर ख़ुद से प्यार हुआ

ऐसा नहीं कि सपन नहीं थे आँखों में
लेकिन वो जगने से पहले मुरझाए
अब तक कितने ही सम्बन्ध जिए मैंने
लेकिन वो सब मन को सींच नहीं पाये
भाग्य जगा है मेरी हर प्यास क
तृप्ति के हाथों ही ख़ुद सत्कार हुआ
प्यार तुम्हारा पाकर ख़ुद से प्यार हुआ

दिल कहता है तुम पर आकर ठहर गई
मेरी हर मजबूरी, मेरी हर भटकन
दिल के तारों को झंकार मिली तुमसे
गीत तुम्हारे गाती है दिल की धड़कन
जिस दिल पर अधिकार कभी मैं रखता था
उस दिल के हाथों ही अब लाचार हुआ
प्यार तुम्हारा पाकर ख़ुद से प्यार हुआ

बहकी हुई हवाओं ने मेरे पथ पर
दूर-दूर तक चंदन-गंध बिखेरी है
भाग्य देव ने स्वयं उतरकर धरती पर
मेरे हाथ में रेखा नई उकेरी है
मेरी हर इक रात महकती है अब तो
मेरा हर दिन जैसे इक त्यौहार हुआ
प्यार तुम्हारा पाकर ख़ुद से प्यार हुआ

© Dinesh Raghuvanshi : दिनेश रघुवंशी

 

बात करना चाहता था

फ़क़त बादल की तरह से बिखरना चाहता था बस
मुक़द्दर ही तेरे हाथों सँवरना चाहता था बस
मेरे होठों पे दुनिया ने बहुत ख़ामोशियाँ रख दीं
घड़ी भर ही मैं तुझसे बात करना चाहता था बस

© Dinesh Raghuvanshi : दिनेश रघुवंशी