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तुम्हारी याद आती है

अभी झंकार उस पल की ह्रदय में गुनगुनाती है
यही सच है मुझे अब भी तुम्हारी याद आती है

नहाई हैं मधुर-सी गंध के झरने में वो बातें
तुम्हारे प्यार के दो बोल वो मेरी हैं सोगातें
अभी कोयल सुहानी शाम में वो गीत गाती है
यही सच है मुझे अब भी तुम्हारी याद आती है

हवाओं से रहा सुनता हूँ मन का साज अब तक भी
फिज़ाओं में घुली है वो मधुर आवाज अब तक भी
वो मुझको पास अपने खींचकर हरदम बुलाती है
यही सच है मुझे अब भी तुम्हारी याद आती है

तुम्हें ही सोचता रहता हूँ ये साँसें हैं तुमसे ही
अचानक चुभने लगती है मुझे मौसम की खामोशी
ओ’ बरबस आँसुओं से मुस्कराहट भीग जाती है
यही सच है मुझे अब भी तुम्हारी याद आती है

तुम्हें गर भूलना चाहूँ तो ख़ुद को भूलना होगा
मगर जीना है तो कुछ इस तरह भी सोचना होगा
कठिन ये ज़िन्दगी आसान लम्हे भी तो लाती है
यही सच है मुझे अब भी तुम्हारी याद आती है

© Arun Mittal Adbhut : अरुण मित्तल ‘अद्भुत’

 

वही एक शाम

वही एक शाम
भीतर भी
बाहर भी
छुपी भी
उजागर भी
वही एक शाम
मेरी साँसों में चुभती है
थकन भरी रातों में
उखड़ी-सी नींदों में
बहुत हल्के से दुखती है
टूटे से, बिखरे से
सपनों की बूंदों से
ये मेरे मन का ताल
भरता है
सूखता है
सूखता है
भरता है
उसी से जो नमी-सी है
ताल के किनारों पर
उसमें ही रह-रह के
वही चंदा चमकता है
वही एक शाम
मेरी साँसों में चुभती है
जिसकी मटमैली चांदनी में
बरगद के नीचे जब
मिट्टी के ढेर पर
रखकर दो पत्थर
रो-रो के जब हमने
निशानियाँ दबाई थीं
अब भी वो पत्थर दो
छाती पे धरे हो
भीतर भी
बाहर भी
छुपी भी
उजागर भी
वही एक शाम
मेरी साँसों में चुभती है
उठ-उठ के आती हैं
बरगद के नीचे से
निशानियाँ वो संग मेरे
अक्सर ही चलती हैं
वही एक शाम मेरी
साँसों में चुभती है
थकन भरी रातों में
उखड़ी-सी नींदों में
बहुत हल्के से दुखती है।

© Vivek Mishra : विवेक मिश्र

 

 

आम बाग़ में

तेज़ दोपहर
जब आम बाग़ में
कोयल भी छुप जाया करती है
गहरे में मेरे भीतर
तब कोई
तेरा नाम ले चहका करता है
विश्वास नहीं होता
कभी मैं और तुम
हम-उम्र हुआ करते थे
बचपन से तुम यौवन तक पहुँची हो
मैं सदियों बूढ़ा
कछुए-सा
अपने खोल में मुँह दुबकाए
उसी पुराने आम बाग़ में
अपनी पीठ पर
कई-कई मन आम उठाता हूँ
शाम का छींटा बाग़ीचे में
जब पड़ता है
कली-कली, पत्ता-पत्ता
तेरी याद से महका करता है
देर रात जब उस झुरमुट में
चांद उतरने लगता है
एक ख़्वाब तेरे आने का
दिल में दहका करता है
उस टहनी से उलझा
तेरा आँचल
अब तक लहराता है
अब भी उसकी ख़ुशबू से
मेरा मन बहका करता है
मेरा चेहरा थोड़ा
और दरक जाता है
जब मैं तुम्हारा हम-उम्र
दिखता हूँ तुम से
सदियों बूढ़ा
तुम्हारा नाम दबाकर
होंठों में
कहता हूँ-
”सलाम मेमसाब!
आम लेते जाइए
इस बार बड़े मीठे हैं”
तुम पूछती हो-
”तुमने खाए हैं क्या?”
मैं घबरा कर कहता हूँ-
”बचपन से सुनता आया हूँ
इस बाग़ के आम
बड़े मीठे होते हैं!”
गहरे में मेरे भीतर
तब भी कोई
तेरा नाम ले
चहका करता है।

© Vivek Mishra : विवेक मिश्र

 

 

अब न रहीं वो दादी-नानी

अब न रहीं वो दादी-नानी
कौन सुनाए आज कहानी

पापा दफ़्तर, उलझन, गुस्सा
अम्मा चूल्हा, बरतन, पानी

किसकी गोदी में छिप जाएँ
करके अब अपनी मनमानी

चांद पे बुढ़िया और न चरखा
और न वो परियाँ नूरानी

बाबा की तस्वीर मिली कल
गठरी में इक ख़ूब पुरानी

© Naresh Shandilya : नरेश शांडिल्य

 

माँ की याद

चींटियाँ अंडे उठाकर जा रही हैं,
और चिड़ियाँ नीड़ को चारा दबाए,
धान पर बछड़ा रंभाने लग गया है,
टकटकी सूने विजन पथ पर लगाए,
थाम आँचल,थका बालक रो उठा है,
है खड़ी माँ शीश का गट्ठर गिराए,
बाँह दो चमकारती–सी बढ़ रही है,
साँझ से कह दो बुझे दीपक जलाये।

शोर डैनों में छिपाने के लिए अब,
शोर माँ की गोद जाने के लिए अब,
शोर घर-घर नींद रानी के लिए अब,
शोर परियों की कहानी के लिए अब,
एक मैं ही हूँ कि मेरी सांझ चुप है,
एक मेरे दीप में ही बल नहीं है,
एक मेरी खाट का विस्तार नभ सा,
क्योंकि मेरे शीश पर आँचल नहीं है।

© Sarveshwar Dayal Saxena : सर्वेश्वर दयाल सक्सेना

 

तेरी गोदी-सी गरमाहट

भरे घर में तेरी आहट कहीं मिलती नहीं अम्मा
तेरे हाथों की नरमाहट कहीं मिलती नहीं अम्मा
मैं तन पे लादे फिरता हूँ दुशाले रेशमी फिर भी
तेरी गोदी-सी गरमाहट कहीं मिलती नहीं अम्मा

© Dinesh Raghuvanshi : दिनेश रघुवंशी

 

लुका-छिपी का खेल

लुका-छिपी का खेल खेलने में,
मैं उस दिन चोर था।

साफ साफ है याद अभी तक
बचपन की बीती हर घटना
सारे चित्र अभी तक उभरे
रत्ती भर भी हुए न बासी,
कितनी ही धुँधली शामों में
मैंने लुका छिपी खेला था
सौ तक की गिनती गिननी थी
अंजुलि में थी रेत ज़रा सी,
और शर्त यह रेत न फिसले
उसे कहीं पर रख आना था
गिनती गिनकर उसे खोजना
पर सब करना आँखें मीचे,
मैं सरपट गिनती गिनता था
छिप छिप बीच बीच में देखा
एक एक कर सभी छुप गये
दाएं-बाएं ऊपर-नीचे,
धीरे धीरे शान्त हो गया आस पास जो शोर था।
लुका छिपी का खेल खेलने में मैं उस दिन चोर था।

दिखे बीस पच्चीस तीस तक
अपनी जगहें खोज रहे सब
इसके आगे गिनी अकेले
मैंने फिर न किसी को देखा,
पता नहीं वह गिनती थी,या
जीवन के बीतते बरस थे
जाने कहाँ छुप गये सारे
राहुल शोभित मंजू रेखा,
तब से अब तक खोज रहा हूँ
शहर शहर मैं घर घर जाकर
पर न मिले वे मीत न वे दिन
जो बचपन में साथ बिताये,
जाने कहाँ छुपे हैं सारे
मानी मैंने चोरी मानी
पल पल राह निहार रहा हूँ
कोई आकर टीप लगाये,
क्या बचपन की उन शर्तों का धागा यों कमजोर था?
लुकाछिपी का खेल खेलने में मैं उस दिन चोर था।

© Gyan Prakash Aakul : ज्ञान प्रकाश आकुल

 

याद आती है माँ

मकई की मोटी-मोटी रोटियाँ हथेलियों से गोल-गोल कैसे बन जाती थीं
बर्तन में गारे के बघारे ही बगैर दाल स्वाद कहाँ से ले आती थी
उस मासूम दाल को छप्पन मसालों से जो घिरी हुई पाता हूँ मैं
याद आती है माँ

कभी-कभी किसी दिन मेरे कारण कोई कलह यूँ भी होता
पीट के मुझको लिपटा कर फिर ख़ुद रोती और मैं रोता
गलती भी मेरी होती, रूठता भी मैं ही और वो उल्टे समझाती थी
अपराधी भाव से उठा के आधी रात मुझे हाथों से अपने खिलाती थी
जब दौड़-धूप से दिन भर थका बिन खाए ही सो जाता हूँ मैं
याद आती है माँ

बाबूजी की तबियत ऐसी बिगड़ी, वो भी क्या दिन था भैया
आठ आने, चार आने गिन कर देखे, सौ में कम था दो रुपैया
हम पाँच बहन-भाई उस पे वो महंगाई, जाने कैसे उसने बचाए थे
ये भी तब था कि जब, मैंने जाने कब-कब, जेबों से पैसे चुराए थे
जब हार कर माह के बीच ही इन हाथों को फैलाता हूँ मैं
याद आती है माँ

उसके हाथों बोई हुई सब बेलें छप्पर तक जातीं
कहीं करेले, कहीं पे लौकी, कहीं तरोई इतराती
घर था छोटा सा पर, चारों ओर छोर पर, क्या हरियाली छाई थी
याद है मुझे भी मैंने उसके कहे से आंगन में तुलसी लगाई थी
जब बीवी की ज़िद्द पर घर के लिए कई कैक्टस लिए आता हूँ मैं
याद आती है माँ

उंगली और अंगूठे बीच दबाकर मेरे गालों को
मांग काढ़ती कई तरह कई शक्लें देती बालों को
सुबह जल्दी जागी हुई देर रात दौड़ती वो हरदम तत्पर मिलती थी
काँटों की बना के सूईं फटी हुई साड़ियों पे चांद-सितारे सिलती थी
जो विश्व की सुंदरतम औरतें उनको गिनते हुए पाता हूँ मैं
याद आती है माँ

दिखने में कुछ होने में कुछ दुनिया दोरंगी बेटा
सुख में अपने दुख में पराए ये साथी संगी बेटा
अनमने मन से मैं सुनी-अनसुनी कर मन ही मन झुंझलाता था
अपनी समझसे मैं ख़ुद को समझदार और चालाक ही पाता था
जब अपने ही जूते की कील से इन रस्तों पे लंगड़ाता हूँ मैं
याद आती है माँ

© Ramesh Sharma : रमेश शर्मा

 

दादी और नानियाँ

तितली के टूटे हुए पंख, सीपियों के शंख
और किसी फटे हुए चित्र की निशानियाँ
सपनों में सजते हुए वो शीशे के महल
और उन महलों में राजा और रानियाँ
रात-दिन बेशुमार ज़िन्दगी की रफ्तार
ले के कहाँ आ गईं ये हमको जवानियाँ
किस को पता है ओढ़ के उदासी जाने किस
कोने में पड़ी हुई हैं दादी और नानियाँ

© Charanjeet Charan : चरणजीत चरण

 

किरदार खो बैठे

दिलों को जोड़ने वाला सुनहरा तार खो बैठे
कहानी कहते-कहते हम कई किरदार खो बैठे

हमें महसूस जो होता है खुल के कह नहीं पाते
कलम तो है वही लेकिन कलम की धार खो बैठे

हरेक सौदा मुनाफे में पटाना चाहता है वो
मगर डरता भी है, ऐसा न हो, बाजार खो बैठे

कभी ऐसी हवा आई कि सब जंगल दहक उट्ठे
कभी बारिश हुई ऐसी कि हम अंगार खो बैठे

नशा शोहरत का पर्वत से गिरा देता है खाई में
खुद अपने फ़न के जंगल में कई फ़नकार खो बैठे

खुदा होता तो मिल जाता मगर उसके तवक्को में
नजर के सामने हासिल था जो संसार, खो बैठे

मेरी यादों के दफ्तर में कई ऐसे मुसाफिर हैं
चले हमराह लेकिन राह में रफ्तार खो बैठे

हमारे सामने अब धूप है, बारिश है, आंधी है
कि जिसकी छांव में बैठे थे वो दीवार खो बैठे

अगर सुर से मिलाओ सुर तो फिर संगीत बन जाए
वो पायल क्या जरा बजते ही जो झंकार खो बैठे.

© Davendra Gautam : देवेंद्र गौतम