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भंडार घर

पहले के गाँवों में हुआ करते थे
भंडार घर
भरे रहते थे
अन्न से, धान से कलसे
डगरे में धरे रहते थे
आलू और प्याज
गेहूं-चावल के बोरे
और भूस की ढेरी में
पकते हुए आम।

नई बहुरिया घर आती थी
तो उसके हाथों
हर बोरी, हर कलसा,
हर थाल, हर डगरा,
छुलाया जाता था
कि द्रौपदी का ये कटोरा
सदा भरा रहे।

यहाँ हमारे फ्लैट में भी है
एक स्टोर
छूती हूँ यहाँ के कोने
कलसे, थाल और डगरे
तो कई भूली चीजें
हाथ लग जाती हैं
मसलन–
बच्चों के छोटे हो गये जूते
पिछले साल की किताबें
बासी अख़बार, मैगज़ीन
पुराने लंच-बॉक्स और बस्ते

संघर्ष भरे दिनों की याद दिलाती–
फोल्डिंग चारपाई
पानी की बोतल
लोहे वाली प्रेस
चटका हुआ हेल्मेट
और खंडित हो गईं
देवी-देवताओं की मूर्तियाँ भी।

यों मेरा रोज़ का रिश्ता नहीं है स्टोर से
लेकिन मैं चाहे कहीं रहूँ
तेज़ बरसात में
सबसे पहले चिंता होती है स्टोर की
डरती हूँ कि जालीदार खिड़की से
पानी भीतर आ जाएगा
और डूब जाएंगीं
अनेक तहों में रखीं
कई ज़रूरी चीजें
जिन्हें बरसों से देखा नहीं मैंने
जिनकी याद तक नहीं मेरे ज़ेहन में
पर जो बेहद क़ीमती हैं
बूढ़े माँ-बाप की तरह।

सोचती हूँ-
कि बिखरे हुए घर की पूर्णता के लिए
भंडार-घर की तरह ही
कितना अहम है
बहुमंज़िली इमारतों की भीड़ में
छोटे-से फ्लैट का
मामूली-सा ये कोना
जो समेटता है अपने भीतर
सारे शहरी बिखराव को
घर के बड़े-बूढ़ों की तरह
जो पी लेते हैं
बहुत कुछ कड़वा, तीखा
ताकि रिश्तों में मिठास बची रहे।

© Alka Sinha : अलका सिन्हा

 

विकास

एक कमरा था
जिसमें मैं रहता था
माँ-बाप के संग
घर बड़ा था
इसलिए इस कमी को
पूरा करने के लिए
मेहमान बुला लेते थे हम!

फिर विकास का फैलाव आया
विकास उस कमरे में नहीं समा पाया
जो चादर पूरे परिवार के लिए बड़ी पड़ती थी
उस चादर से बड़े हो गए
हमारे हर एक के पाँव
लोग झूठ कहते हैं
कि दीवारों में दरारें पड़ती हैं
हक़ीक़त यही
कि जब दरारें पड़ती हैं
तब दीवारें बनती हैं!
पहले हम सब लोग दीवारों के बीच में रहते थे
अब हमारे बीच में दीवारें आ गईं
यह समृध्दि मुझे पता नहीं कहाँ पहुँचा गई
पहले मैं माँ-बाप के साथ रहता था
अब माँ-बाप मेरे साथ रहते हैं

फिर हमने बना लिया एक मकान
एक कमरा अपने लिए
एक-एक कमरा बच्चों के लिए
एक वो छोटा-सा ड्राइंगरूम
उन लोगों के लिए जो मेरे आगे हाथ जोड़ते थे
एक वो अन्दर बड़ा-सा ड्राइंगरूम
उन लोगों के लिए
जिनके आगे मैं हाथ जोड़ता हूँ

पहले मैं फुसफुसाता था
तो घर के लोग जाग जाते थे
मैं करवट भी बदलता था
तो घर के लोग सो नहीं पाते थे
और अब!
जिन दरारों की वहज से दीवारें बनी थीं
उन दीवारों में भी दरारें पड़ गई हैं।
अब मैं चीख़ता हूँ
तो बग़ल के कमरे से
ठहाके की आवाज़ सुनाई देती है
और मैं सोच नहीं पाता हूँ
कि मेरी चीख़ की वजह से
वहाँ ठहाके लग रहे हैं
या उन ठहाकों की वजह से
मैं चीख रहा हूँ!

आदमी पहुँच गया हैं चांद तक
पहुँचना चाहता है मंगल तक
पर नहीं पहुँच पाता सगे भाई के दरवाज़े तक
अब हमारा पता तो एक रहता है
पर हमें एक-दूसरे का पता नहीं रहता

और आज मैं सोचता हूँ
जिस समृध्दि की ऊँचाई पर मैं बैठा हूँ
उसके लिए मैंने कितनी बड़ी खोदी हैं खाइयाँ

अब मुझे अपने बाप की बेटी से
अपनी बेटी अच्छी लगती है
अब मुझे अपने बाप के बेटे से
अपना बेटा अच्छा लगता है
पहले मैं माँ-बाप के साथ रहता था
अब माँ-बाप मेरे साथ रहते हैं
अब मेरा बेटा भी कमा रहा है
कल मुझे उसके साथ रहना पड़ेगा
और हक़ीक़त यही है दोस्तों
तमाचा मैंने मारा है
तमाचा मुझे खाना भी पड़ेगा

© Surendra Sharma : सुरेंद्र शर्मा

 

अब न रहीं वो दादी-नानी

अब न रहीं वो दादी-नानी
कौन सुनाए आज कहानी

पापा दफ़्तर, उलझन, गुस्सा
अम्मा चूल्हा, बरतन, पानी

किसकी गोदी में छिप जाएँ
करके अब अपनी मनमानी

चांद पे बुढ़िया और न चरखा
और न वो परियाँ नूरानी

बाबा की तस्वीर मिली कल
गठरी में इक ख़ूब पुरानी

© Naresh Shandilya : नरेश शांडिल्य

 

बीसवीं सदी में मनुष्य

आइए आपको
आगे आने वाले
उस युग में ले चलता हूँ
जिसमें मनुष्य का
पूरा विकास हो चुका है
बीमारियों और बुराइयों का
नाश हो चुका है
आदमी विवेकशील है, प्रबुध्द है
न आपसी दुश्मनी है, न युध्द है।

परिष्कृत भोजन है
छोटे से कैप्सूल में आ जाता है
पूरा शरीर में लग जाता है
बाहर कुछ नहीं आता है
न ही आने का द्वार है
सुखी संसार है
उस आने वाले युग में
आज के यानि बीसवीं सदी के बारे में
क्या विचार होगा
यही इस कविता का सार है।

बीसवीं सदी के आसपास
मनुष्य के शरीर पर उगती थी
एक प्रकार की घास
उसी की भाषा में कहें तो ‘बाल’
ये बाल ही बताते थे
उसके पिछड़ेपन का हाल
जैसे-जैसे
मनुष्य का विकास होता गया
बालों का भी नाश होता गया
लेकिन सिर पर
यानि दिमाग़ के ऊपर
तब भी सबसे अधिक बाल थे
इसका मतलब
बीसवीं सदी में लोग
बुध्दि से पिछड़े थे, कंगाल थे
कहावत थी
‘फेस इज़ द इंडेक्स ऑफ मैन’
यानि
चेहरा आदमी का आइना था
इस बात का इक ख़ास मायन था
स्त्रियाँ चेहरे से चिकनी थीं
पुरुष का चेहरा
दाढ़ी और मूँछ रूपी
बालों से घिरा था
इसका अर्थ हुआ-
स्त्री की तुलना में
वो ज्यादा जंगली था
सिरफिरा था।

यों आदमी की संगत के कारण
औरत कौन सा कम थी
औरत-औरत की दुश्मन थी
सिंगार करती थी
सिंगार के माध्यम से
एक दूसरी पर वार करती थी
आदमी का शिकार करती थी।

आदमी
गाँव और कस्बे रूपी
झुण्ड में मिलता था
पड़ोसी को देखकर जलता
किन्तु पड़ोसी की पत्नी
उसे सुहाती थी
बस, इतनी-सी इंसानियत
उसमें बाक़ी थी

भैंस थी, लाठी थी
लूट की परिपाटी थी
समाज टुकड़ों में बँटा था
धर्म और जाति के
अलग-अलग खाने थे
आपस में लड़ने के
ये सब बहाने थे

प्रदूषित जल था
जाने कैसी हवा थी
हवा में ज़हर था
ज़हर भी दवा थी।

संसार की हालत ऐसी
बच्चा पैदा होते ही
दहाड़ मार-मारकर रोता
फिर रोने का ये कार्यक्रम
जीवन भर होता

जनता नेता को रोती
नेता कुर्सी के लिए रोता
कुर्सी अपने भाग्य को रोती
एक तो उसके बनने में
किसी पेड़ की हत्या होती
दूसरे तब रोती
जब किसी नेता का भार ढोती

मनुष्य में बचपन से ही
पशुओं के लक्षण होते
बच्चे, बस्ते-नाम का बोझ
पीठ पर ढोते।

बच्चा जाति पैदा होते ही
दूध पीने पर उतारू थी
गाय भैसों की तरह
मानव मादा भी दुधारू थी

माँ से ज्यादा
माँ के दूध की वैल्यू थी
‘अपनी माँ का दूध पिया है’
यह कहते हुए
आदमी का सीना फूल जाता
लेकिन पत्नी के आ जाने पर
वो कम्बख्त
अपनी माँ को भूल जाता।

जब माँ को भूल जाता
तो उसका ध्यान
दूध से हटकर
दारू पर आता था
यानि पत्नी के आ जाने पर
उसका मन
कड़वी चीज़ों में रम पाता था।

उस युग में
शेर आदमी को खा जाता
आदमी का शेर पर वश नहीं चलता
इसलिए
बकरे और मुर्गे पर ज़ोर आज़माता
फ़र्क सिर्फ़ इतना होता
आदमी खाने से पहले
भूनता था, पकाता था
शेर को पकाना नहीं आता था
इसलिए जंगली कहलाता था

यों आदमी ने जानवर को
‘वहशी, ख़ूँखार, दरिन्दा’
जाने क्या-क्या बोला
लेकिन जानवर ने
आदमी के बारे में
कभी मुँह नहीं खोला।

आदमी को कई तरह से झेला
आदमी उसके जीवन से
ख़ूब खुलकर खेला
दूध हुआ तो उसे निचोड़ा
बोटियों की ख़ातिर
गर्दन को मरोड़ा
हड्डियों को पीसा
खाल का जूता बना
पैरों से घसीटा।

हाय राम!
जानवर से ऐसा व्यवहार
मनुष्यता को कर दिया
उसने तार-तार।

मित्रो!
कुल मिलाकर
बीसवीं सदी में
समाज की ऐसी व्यवस्था थी
मनुष्य की हालत कामचलाऊ
लेकिन
मनुष्यता की हालत ख़स्ता थी।

© Baghi Chacha : बाग़ी चाचा

 

तब देखना

दुनिया बनाने वाले आजकल दुनिया ये
हो गई है कितनी ख़राब तब देखना
वासना का तन से ख़ुमार जब उतरेगा
पाप और पुण्य का हिसाब तब देखना
कितने गिरे हैं और कितने गिरेंगे हम
अभी मत देखिए जनाब तब देखना
बाप और भाइयों के बीच चौकड़ी में बैठ
बेटियाँ परोसेंगी शराब तब देखना

© Charanjeet Charan : चरणजीत चरण