Tag Archives: Nature

यथोचित

पुराने वस्त्र को
सम्मान दिया जा सकता है
पर ओढ़ा नहीं जा सकता
ओढ़ा वही जाएगा
जो बचा सकता है
सर्दी से
धूप से
वर्षा से
आंधी से

फूल को चाहिए कि
वह कली को स्थान दे
कली को चाहिए कि
वह फूल को सम्मान दे
पतझड़ को रोका नहीं जा सकता
कोंपल को टोका नहीं जा सकता

© Acharya Mahapragya : आचार्य महाप्रज्ञ

 

आए महंत वसंत

मखमल के झूल पड़े हाथी-सा टीला
बैठे किंशुक छत्र लगा बाँध पाग पीला
चँवर सदृश डोल रहे सरसों के सर अनंत
आए महंत वसंत

श्रद्धानत तरुओं की अंजलि से झरे पात
कोंपल के मुंदे नयन थर-थर-थर पुलक गात
अगरु धूम लिए घूम रहे सुमन दिग्-दिगंत
आए महंत वसंत

खड़-खड़-खड़ ताल बजा नाच रही बिसुध हवा
डाल-डाल अलि पिक के गायन का बंधा समा
तरु-तरु की ध्वजा उठी जय-जय का है न अंत
आए महंत वसंत

© Sarveshwar Dayal Saxena : सर्वेश्वर दयाल सक्सेना

 

ओ वासंती पवन हमारे घर आना!

बहुत दिनों के बाद खिड़कियाँ खोली हैं
ओ वासंती पवन हमारे घर आना!

जड़े हुए थे ताले सारे कमरों में
धूल भरे थे आले सारे कमरों में
उलझन और तनावों के रेशों वाले
पुरे हुए थे जले सारे कमरों में
बहुत दिनों के बाद साँकलें डोली हैं
ओ वासंती पवन हमारे घर आना!

एक थकन-सी थी नव भाव तरंगों में
मौन उदासी थी वाचाल उमंगों में
लेकिन आज समर्पण की भाषा वाले
मोहक-मोहक, प्यारे-प्यारे रंगों में
बहुत दिनों के बाद ख़ुशबुएँ घोली हैं
ओ वासंती पवन हमारे घर आना!

पतझर ही पतझर था मन के मधुबन में
गहरा सन्नाटा-सा था अंतर्मन में
लेकिन अब गीतों की स्वच्छ मुंडेरी पर
चिंतन की छत पर, भावों के आँगन में
बहुत दिनों के बाद चिरैया बोली हैं
ओ वासंती पवन हमारे घर आना!

© Kunwar Bechain : कुँवर बेचैन

 

हरियाली फूटी

पल्लव – पल्लव पर हरियाली फूटी, लहरी डाली-डाली,
बोली कोयल, कलि की प्याली मधु भरकर तरु पर उफनाई।
झोंके पुरवाई के लगते, बादल के दल नभ पर भगते,
कितने मन सो-सोकर जगते, नयनों में भावुकता छाई।
लहरें सरसी पर उठ-उठकर गिरती हैं सुन्दर से सुन्दर,
हिलते हैं सुख से इन्दीवर, घाटों पर बढ आई काई।
घर के जन हुये प्रसन्न-वदन, अतिशय सुख से छलके लोचन,
प्रिय की वाणी का अमन्त्रण लेकर जैसे ध्वनि सरसाई।

© Suryekant Tripathi ‘Nirala’ : सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’

 

नीला नभ हो गया

नीला नभ हो गया अचानक श्यामल-श्यामल,
अहा! दूर तक घन ही घन आषाढ़ यही है,
नदिया से लेकर नयनों तक बाढ़ यही है।
गीला है मन से लेकर धरती का आंचल।

तभी घटी मन के भीतर के कुछ ऐसी घटना,
मरुथल के ऊपर से निकलीं श्याम घटाएं,
उन्हें उड़ा कर बहुत दूर ले गयीं हवाएं।
पूर्व नियोजित-सा था यह बादल का छँटना।

इसी तरह कितने आषाढ़ गये फिर आये,
मरुथल ने स्वागत के फिर फिर मंत्र पढ़े हैं,
मंत्र तिरस्कृत कर घन अपनी राह बढ़े हैं।
मरुथल खड़ा रहा अपनी बांहें फैलाये।

कोई कह दे मरुथल में बादल आयेंगे,
समय कटेगा,तब तक हम स्वागत -गायेंगे।

© Gyan Prakash Aakul : ज्ञान प्रकाश आकुल

 

 

ओस की बूँदें पड़ीं तो

ओस की बूँदें पड़ीं तो पत्तियाँ ख़ुश हो गईं
फूल कुछ ऐसे खिले कि टहनियाँ ख़ुश हो गईं

बेख़ुदी में दिन तेरे आने के यूँ ही गिन लिये
एक पल को यूँ लगा कि उंगलियाँ ख़ुश हो गईं

देखकर उसकी उदासी, अनमनी थीं वादियाँ
खिलखिलाकर वो हँसा तो वादियाँ ख़ुश हो गईं

आँसुओं में भीगे मेरे शब्द जैसे हँस पड़े
तुमने होठों से छुआ तो चिट्ठियाँ ख़ुश हो गईं

साहिलों पर दूर तक चुपचाप बिखरी थीं जहाँ
छोटे बच्चों ने चुनी तो सीपीयाँ ख़ुश हो गईं

© Dinesh Raghuvanshi : दिनेश रघुवंशी

 

चांदनी से रात बतियाने सहेली आ गयी

चांदनी से रात बतियाने सहेली आ गयी
कुछ मुंडेरों के मुक़द्दर में चमेली आ गयी

पैर भी सुस्ता लिये, आँखों ने भी दम ले लिया
ज़िंदगी की राह में, दिल की हवेली आ गई

झाँकता है हर कोई ऐसे दिल-ए-नाशाद में
जैसे आंगन में कोई दुल्हन नवेली आ गई

बोझ कंधों का उतर कर गिर गया जाने कहाँ
जब मेरे सिर पे बुज़ुर्गों की हथेली आ गई

तीरगी का ख़ौफ़, सन्नाटे की दहशत थी मगर
इक किरण सूरज की धरती पर अकेली आ गयी

© Chirag Jain : चिराग़ जैन