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खग उड़ते रहना जीवन भर

खग! उड़ते रहना जीवन भर!
भूल गया है तू अपना पथ
और नहीं पंखों में भी गति
किंतु लौटना पीछे पथ पर, अरे मौत से भी है बदतर।
खग! उड़ते रहना जीवन भर!

मत डर प्रलय-झकोरों से तू
बढ़ आशा-हलकोरों से तू
क्षण में यह अरि-दल मिट जाएगा तेरे पंखों से पिसकर।
खग! उड़ते रहना जीवन भर!

यदि तू लौट पड़ेगा थक कर
अंधड़ काल-बवंडर से डर
प्यार तुझे करने वाले ही, देखेंगे तुझको हँस-हँसकर।
खग! उड़ते रहना जीवन भर!

और मिट गया चलते-चलते
मंज़िल-पथ तय करते-करते
तेरी ख़ाक़ चढ़ाएगा जग उन्नत भाल और आँखों पर।
खग! उड़ते रहना जीवन भर!

© Gopaldas Neeraj : गोपालदास ‘नीरज’

 

गीत इक और ज़रा झूम के गा लूँ, तो चलूँ

ऐसी क्या बात है
चलता हूँ, अभी चलता हूँ
गीत इक और ज़रा झूम के गा लूँ, तो चलूँ

भटकी-भटकी है नज़र, गहरी-गहरी है निशा
उलझी-उलझी है डगर, धुँधली-धुँधली है दिशा
तारे ख़ामोश खड़े, द्वारे बेहोश पड़े
सहमी-सहमी है किरण, बहकी-बहकी है उषा
गीत बदनाम न हो, ज़िन्दगी शाम न हो
बुझते दीपों को ज़रा सूर्य बना लूँ तो चलूँ

बाद मेरे जो यहाँ और हैं गाने वाले
सुर की थपकी से पहाड़ों को सुलाने वाले
उजाड़ बाग़-बियाबान-सूनसानों में
छंद की गंध से फूलों को खिलाने वाले
उनके पैरों के फफोले न कहीं फूट पड़ें
उनकी राहों के ज़रा शूल हटा लूँ तो चलूँ

ये घुमड़ती हुईं सावन की घटाएँ काली
पेंगें भरती हुई आमों की ये गद्दड़ डाली
ये कुएँ, ताल, ये पनघट ये त्रिवेणी संगम
कूक कोयल की, ये पपिहे की पिऊँ मतवाली
क्या पता स्वर्ग में फिर इनका दरस हो कि न हो
धूल धरती की ज़रा सिर पे चढ़ा लूँ तो चलूँ

कैसे चल दूँ अभी कुछ और यहाँ मौसम है
होने वाली है सुबह पर न सियाही कम है
भूख, बेकारी, ग़रीबी की घनी छाया में
हर ज़ुबाँ बंद है हर एक नज़र पुरनम है
तन का कुछ ताप घटे, मन का कुछ पाप कटे
दुखी इंसान के आँसू में नहा लूँ तो चलूँ

© Gopaldas Neeraj : गोपालदास ‘नीरज’