Tag Archives: Pain of Love

रफ़ू

नया कपड़ा बुनने से कहीं मु्श्क़िल है
फटे कपड़े को रफ़ू करना!

….आँखें गड़ा-गड़ा कर,
पिरोना होता है एक-एक तार,
छूटे-टूटे ताने-बाने के साथ

रवां करना होता है नया धागा
और बनाना होता है उसे
कपड़े का एक हिस्सा!
इतने के बाद भी
ख़त्म नहीं हो जाता
मसअला!
बेशक़
कारीगरी की क़रामात
दे सकती है चकमा
सारी दुनिया को

…लेकिन हम भरे रहते हैं
इस अहसास से
कि हमने जो ओढ़ा है
वो साबुत नहीं रफ़ू किया गया है!

© Sandhya Garg : संध्या गर्ग

 

तुमको खोकर क्या पाए मन?

अब गीतों में रस उतरा है,
अब कविता में मन पसरा है
हम सबकी पहचान हुए हैं,
हम सबके प्रतिमान हुए हैं
हम नदिया की रेंत हुए हैं,
हम पीड़ा के खेत हुए हैं
आंसू बोकर हरियाए मन,
तुमको खो कर क्या पाए मन?

जब हमने उल्लास मनाया
लोग नहीं मिल पाएं अपने
सबकी आँखों को भाते हैं
कुछ आँखों के टूटे सपने
होती है हर जगह उपेक्षित
मधुमासों की गीत, रुबाई
होकर बहुत विवश हमने भी
इन अधरों से पीड़ा गाई
अब टीसों पर मुस्काए मन
अब घावों के मन भाए मन
तुमको खोकर क्या पाए मन?

हमने भाग्य किसी का, अपनी
रेखाओं में लाख बसाया
प्रेम कथा को जीवन में बस
मिलना और बिछड़ना भाया
हमको तो बस जीना था, फिर
संग तुम्हारे मर जाना था
जीवन रेखा को अपने संग
इतनी दूर नहीं आना था
अब सांसों से उकताए मन
जीते-जीते मर जाए मन
तुमको खोकर क्या पाए मन?

सुनते हैं, तुम भाल किसी के
इक सूरज रोज़ उगाते हो
टांक चन्द्रमा, नरम हथेली
मेहंदी रोज़ सजाते हो
सुनते हैं, उस भाग्यवती की
मांग में तुम्हारा ही कुमकुम है
बीता कल है प्रेम हमारा
यादों में केवल हम-तुम हैं
उन यादों से भर आए मन
अक्सर उन पर ललचाए मन
तुमको खोकर क्या पाए मन?

© Manisha Shukla : मनीषा शुक्ला

 

भाषा

तुमने कहा था-
”ख़त्म हो चुकी है अब
संवाद की स्थिति
और नहीं हो सकती
कोई बात!”

कारण पूछने पर
कुछ सोच कर
आरोप लगाया था तुमने
मुझ पर ही!

और मैंने भी सोचा था
कि हो भी कैसे सकती है बात
दो भिन्न भाषा-भाषियों में

हाँ!
…तुम्हारी भाषा
देह की थी
और मेरी
मन की!

© Sandhya Garg : संध्या गर्ग

 

मेरी नींद चुराने वाले

मेरी नींद चुराने वाले, जा तुझको भी नींद न आए
पूनम वाला चांद तुझे भी सारी-सारी रात जगाए

तुझे अकेले तन से अपने, बड़ी लगे अपनी ही शैय्या
चित्र रचे वह जिसमें, चीरहरण करता हो कृष्ण-कन्हैया
बार-बार आँचल सम्भालते, तू रह-रह मन में झुंझलाए
कभी घटा-सी घिरे नयन में, कभी-कभी फागुन बौराए
मेरी नींद चुराने वाले, जा तुझको भी नींद न आए

बरबस तेरी दृष्टि चुरा लें, कंगनी से कपोत के जोड़े
पहले तो तोड़े गुलाब तू, फिर उसकी पंखुडियाँ तोड़े
होठ थकें ‘हाँ’ कहने में भी, जब कोई आवाज़ लगाए
चुभ-चुभ जाए सुई हाथ में, धागा उलझ-उलझ रह जाए
मेरी नींद चुराने वाले, जा तुझको भी नींद न आए

बेसुध बैठ कहीं धरती पर, तू हस्ताक्षर करे किसी के
नए-नए संबोधन सोचे, डरी-डरी पहली पाती के
जिय बिनु देह नदी बिनु वारी, तेरा रोम-रोम दुहराए
ईश्वर करे हृदय में तेरे, कभी कोई सपना अँकुराए
मेरी नींद चुराने वाले, जा तुझको भी नींद न आए

© Bharat Bhushan : भारत भूषण