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युग का यह वातायन

युग का यह वातायन !

दर्पण से ढँका हुआ,
बालू पर टिका हुआ;
जीवन पर्यन्त आग-पानी का परायण !
युग का यह वातायन !

अनुबन्धित-गरिमाएँ,
आतंकित-प्रतिभाएँ;
कर्म-भूमि गीता, किन्तु जन्म-भूमि रामायण !
युग का यह वातायन !

गति-निरपेक्ष मलय,
अथवा सापेक्ष-प्रलय;
जन-गण-मन उत्पीड़न, नारायण, नारायण !
युग का यह वातायन !

© Balbir Singh Rang : बलबीर सिंह ‘रंग’

 

काश्मीर

जिसका नीर सुधा का सहचर, सोना जिसकर माटी,
जहाँ रही सर्वदा फूलने-फलने की परिपाटी;
जो हिमगिरि का भार, धरे है अपने वक्षस्थल पर,
उसे सुकवि कहते आए हैं- काश्मीर की घाटी;

श्रृंग-श्रेणियाँ प्रकृति-प्रिया के ग्रीवा की जयमाला,
उदित एशिया की सीमाओं का अनुपम उजियाला;
उसी श्स्य-श्यामला भूमि की शान्ति भंग किसने की ?
कौन वहाँ करता है अपने गोरे मुख को काला ?

यह है वही, नील की बेटी पर जिनकी है दृष्टि,
विश्व-शान्ति के लिए कर चुके राकेटों की वृष्टि;
जिसे चाहते उसे ‘राट्र‘ की संज्ञा दे देते हैं,
यह बाजीगर प्रस्तावों से रचते रहते सृष्टि;

प्रजातंत्र की महिमा का, गुण गाते नहीं अघाते,
किन्तु लुटेरों के हिमायती, पंचों में कहलात;े
जन-मत-संग्रह कह कहते हो हमसे किस बूते पर ?
‘साइप्रस‘ में जन-मत संग्रह की माँग रहे ठुकराते;

हाँ, तुमको आती है अद्भुत राजनीति की भाषा;
अपने लिए बदल सकते हो जन-मत की परिभाषा;
काश्मीर पर हमला करते जन-मत नहीं लिया था ?
तब तो पर्दे के पीछे से करते रहे तमाशा;

राजतंत्र-जनतंत्र युगल हैं मोहक हाथ तुम्हारे,
बन्दर-बाँट जहाँ करते होते हैं वारे-न्यारे;
पशुता के नंगे नाचों से शान्ति नहीं हो सकती,
मानवता को संरक्षण क्या दे सकते हत्यारे ?

जो भातर का अंग, संग जो जंगी तूफ़ानों में
जो धरती का स्वर्ग उसे मत बदलो वीरानों में !
‘काश्मीर किसका है‘- इसकी काजीजी को चिन्ता,
यह परिषद में नहीं फैसला होगा मैदानों में;
इस बीसवीं सदी में तुमको हिंसा पर विश्वास;
संगीनों की नोंकों से, लिखते युग इतिहास;
तुम पानी का लिए बहाना, खून बहाना चाहो;
झेलम की लहरों पर करते अणु बम का अभ्यास;

क्या संयुक्त राष्ट्र की सेना अमन लिए आएगी?
बारूदी बंदूकों में क्या चमन लिए आएगी ?
ओ बूढे वनराज! बता दो शान्ति-कपोतों को यह-
‘युद्ध-पिपासित श्वानों का क्या शमन लिए आएगी ?‘

हम न किसी पर कभी, आक्रमण करने के अपराधी;
किन्तु सुरक्षा हेतु रहे, हम मर मिटने के आदी;
‘गिलगित‘ तक लोहू की अंतिम बूँद हमारी होगी,
क्योंकि, हमें प्राणों ये बढ़कर प्यारी है आज़ादी !

© Balbir Singh Rang : बलबीर सिंह ‘रंग’

 

क्रांति गीत

मेरे भारत की आज़ादी, जिनकी बेमोल निशानी है
जो सींच गए ख़ूँ से धरती, इक उनकी अमर कहानी है
वो स्वतंत्रता के अग्रदूत, बन दीप सहारा देते थे
ख़ुद अपने घर को जला-जला, माँ को उजियारा देते थे
उनके शोणित की बूंद-बूंद, इस धरती पर बलिहारी थी
हर तूफ़ानी ताकत उनके, पौरुष के आगे हारी थी
माँ की ख़ातिर लड़ते-लड़ते, जब उनकी साँसें सोईं थी
चूमा था फाँसी का फंदा, तब मृत्यु बिलखकर रोई थी
ना रोक सके अंग्रेज कभी, आंधी उस वीर जवानी की
है कौन क़लम जो लिख सकती, गाथा उनकी क़ुर्बानी की
पर आज सिसकती भारत माँ, नेताओं के देखे लक्षण
जिसकी छाती से दूध पिया, वो उसका तन करते भक्षण
जब जनता बिलख रही होती, ये चादर ताने सोते हैं
फिर निकल रात के साए में, ये ख़ूनी ख़ंजर बोते हैं
अब कौन बचाए फूलों को, गुलशन को माली लूट रहा
रिश्वत लेते जिसको पकड़ा, वो रिश्वत देकर छूट रहा
डाकू भी अब लड़कर चुनाव, संसद तक में आ जाते हैं
हर मर्यादा को छिन्न-भिन्न, कुछ मिनटों में कर जाते हैं
यह राष्ट्र अटल, रवि-सा उज्ज्वल, तेजोमय, सारा विश्व कहे
पर इसको सत्ता के दलाल, तम के हाथों में बेच रहे
ये भला देश का करते हैं, तो सिर्फ़ काग़ज़ी कामों में
भूखे पेटों को अन्न नहीं ये सड़ा रहे गोदामों में
अपनी काली करतूतों से, बेइज़्ज़त देश कराया है
मेरे इस प्यारे भारत का, दुनिया में शीश झुकाया है
पूछो उनसे जाकर क्यों है, हर द्वार-द्वार पर दानवता
निष्कंटक घूमें हत्यारे, है ज़ार-ज़ार क्यों मानवता
ख़ुद अपने ही दुष्कर्मों पर, घड़ियाली आँसू टपकाते
ये अमर शहीदों को भी अब, संसद में गाली दे जाते
खा गए देश को लूट-लूट, भर लिया जेब में लोकतंत्र
इन भ्रष्टाचारी दुष्टों का, है पाप यज्ञ और लूट मंत्र
गांधी, सुभाष, नेहरू, पटेल, देखो छाई ये वीरानी
अशफ़ाक़, भगत, बिस्मिल तुमको, फिर याद करें हिन्दुस्तानी
है कहाँ वीर आज़ाद, और वो ख़ुदीराम सा बलिदानी
जब लाल बहादुर याद करूँ, आँखों में भर आता पानी
जब नमन शहीदों को करता, तब रक्त हिलोरें लेता है
भारत माँ की पीड़ा का स्वर, फिर आज चुनौती देता है
अब निर्णय बहुत लाज़मी है, मत शब्दों में धिक्कारो
सारे भ्रष्टों को चुन-चुन कर, चौराहों पर गोली मारो
हो अपने हाथों परिवर्तन, तन में शोणित का ज्वार उठे
विप्लव का फिर हो शंखनाद, अगणित योद्धा ललकार उठें
मैं खड़ा विश्वगुरु की रज पर, पीड़ा को छंद बनाता हूँ
यह परिवर्तन का क्रांति गीत, माँ का चारण बन गाता हूँ

© Arun Mittal Adbhut : अरुण मित्तल ‘अद्भुत’

 

बढ़ो जवानो

बढ़ो जवानो ! और आगे !
आगे, आगे, और आगे !

ताकत दी है राम ने,
रावण भी है सामने;
मेहनत के संग हुई सगाई,
छुट्टी ली आराम ने;

विजय-पताका की गाथाएँ,
गढ़ो जवानो ! और आगे !

ऊँची खड़ी पहाड़ियाँ,
जंगल-जंगल झाड़ियाँ;
नाचा करती मौत रात-दिन,
बदल-बदल की साड़ियाँ;

दुश्मन के दल की छाती पर,
चढ़ो जवानो ! और आगे !

रण-चण्डी हुंकारती
“चलो, उतारें आरती;
जय हर-हर, प्रलयंकर शंकर,
जय-जय भारत-भारती;

बलिदानों से लिखी इबारत
पढ़ो जवानो ! और आगे !

© Balbir Singh Rang : बलबीर सिंह ‘रंग’

 

माटी

वीरों का अन्दाज़ कुछ निराला हुज़ूर होता है
उन्हें वतन से इश्क़ का अजब सरूर होता है
तिलक माटी का लगा रण में निकलते जब हैं ये
माटी तो इनकी नज़रों में माँ का सिन्दूर होता है

© Ajay Sehgal : अजय सहगल

 

प्रेम के पुजारी

प्रेम के पुजारी
हम हैं रस के भिखारी
हम है प्रेम के पुजारी

कहाँ रे हिमाला ऐसा, कहाँ ऐसा पानी
यही वो ज़मीं, जिसकी दुनिया दीवानी
सुन्दरी न कोई, जैसी धरती हमारी

राजा गए, ताज गया, बदला जहाँ सारा
रोज़ मगर बढ़ता जाए, कारवां हमारा
फूल हम हज़ारों लेकिन, ख़ुश्बू एक हमारी

© Gopaldas Neeraj : गोपालदास ‘नीरज’

फिल्म : प्रेम पुजारी (1970)
संगीतकार : सचिन देव बर्मन
स्वर : सचिन देव बर्मन

 

Ajay Sehgal : अजय सहगल


नाम : अजय सहगल
जन्म : डलहौजी, हिमाचल प्रदेश

प्रकाशन
सवाल राष्ट्र का
सुगन्धि

निवास : जम्मू और कश्मीर


अजय सहगल उन गिने-चुने रचनाकारों में से एक हैं जिन्होंने देशप्रेम की कविताएँ लिखी ही नहीं बल्कि उन्हें जिया भी है। देश की सेवा में रत रक्षा प्रहरियों की सुविधाओं के लिए दिन-रात तत्पर रहने वाले अजय जी का काव्यकर्म उन अनछुए प्रश्नों को समर्पित है जिन पर यकायक सबका ध्यान नहीं जाता। बी ई (सिविल) तक शिक्षाध्ययन करने के बाद से अजय जी ‘रक्षा संपदा संगठन’ में सेवारत हैं। हिमाचल की धरती से उपजे इस रचनाकार की रचनाएँ ऐसी वैचारिक संपदा है, जो समाज के नवनिर्माण में सहयोगी हो सकती है। अजय जी का कथ्य उनके शिल्प की सीमाओं में बंधने को तैयार नहीं है। वे सत्य को आलंकरिक करने से अधिक उसे बलिष्ठ करने में विश्वास रखते हैं। सकारात्मकता और जिजीविषा उनके काव्य के दो आयाम हैं। ‘सवाल राष्ट्र का’ और ‘सुगन्धि’ उनकी दो प्रकाशित पुस्तकें हैं।
इस समय अजय जी श्रीनगर, कश्मीर में सेवारत हैं।