Tag Archives: poetry

संजय

मैं कवि, मैं संजय
आह दिव्य दर्शन
बन गया वरदान भी अभिशाप!

एक सत्ता-अन्ध
एक निस्सत्व
ओ रे लोलुपो!
ठहरो
तुम्हारे हेतु
धरती पूत बँट कर रह गए
कट-मर रहे हैं!
ठहर युग के कृष्ण!
मत बुन भ्रान्तियों का जाल
उसको फेंकने दे अस्त्र
वह एक द्रवित मानव!
देख
काम आ जाएंगे अभिमन्यु
यहाँ कुछ न बचेगा
मात्र शर-शैया पर लेटा भीष्म
और सुनसान!
जो जीतेंगे वह भी गल मरेंगे!

क्या कहा
मुझको नहीं अधिकार
दूँ मैं सीख
मेरा काम केवल
दीठ के जो सामने
कहता-सुनाता रहूँ
उस मृत प्राय: अन्धे को
कि जिसके नाम का शासन
हाँ बस नाम का ही!

मैं कवि मैं संजय
आह दिव्य दर्शन
बन गया वरदान भी अभिशाप!

© Jagdish Savita : जगदीश सविता

 

इतिहास

आदमी मर गया कभी का
पीढ़ियाँ ज़िन्दा हैं
सूरज बुझ जाएगा एक दिन
पर आकाश अमर है
सूरज के बिना
वह आकाश कैसा होगा!

Vishnu Prabhakar : विष्णु प्रभाकर

 

हँसते-हँसाते रहे

ज़िंदगी का सफ़र यूँ बिताते रहे
आंधियों में दिये हम जलाते रहे
आँसुओं के नगर में कटी ज़िंदगी
हर घड़ी फिर भी हँसते-हँसाते रहे

© Praveen Shukla : प्रवीण शुक्ल

 

दधीचि

ये लो
सम्भालो मेरी अस्थियाँ
कर लो वज्र का निर्माण
नहीं रह पाओगे नपुंसक
जो भी आसुरी है
लग जाएगा ठिकाने
सूत्रपात होगा
नए कल्पान्तर का!

© Jagdish Savita : जगदीश सविता

 

ज़माना देखता रह जाएगा

सिर्फ़ हैरत से ज़माना देखता रह जाएगा
बाद मरने के कहाँ किसका पता रह जाएगा

अपने-अपने हौसले की बात सब करते रहे
ये मगर किसको पता था सब धरा रह जाएगा

तुम सियासत को हसीं सपना बना लोगे अगर
फिर तुम्हें जो भी दिखेगा क्या नया रह जाएगा

मंज़िलों की जुस्तजू में बढ़ रहा है हर कोई
मंज़िलें गर मिल गईं तो बाक़ी क्या रह जाएगा

‘मीत’ जब पहचान लोगे दर्द दिल के घाव का
फिर कहाँ दोनों में कोई फ़ासला रह जाएगा

© Anil Verma Meet : अनिल वर्मा ‘मीत’

 

खग उड़ते रहना जीवन भर

खग! उड़ते रहना जीवन भर!
भूल गया है तू अपना पथ
और नहीं पंखों में भी गति
किंतु लौटना पीछे पथ पर, अरे मौत से भी है बदतर।
खग! उड़ते रहना जीवन भर!

मत डर प्रलय-झकोरों से तू
बढ़ आशा-हलकोरों से तू
क्षण में यह अरि-दल मिट जाएगा तेरे पंखों से पिसकर।
खग! उड़ते रहना जीवन भर!

यदि तू लौट पड़ेगा थक कर
अंधड़ काल-बवंडर से डर
प्यार तुझे करने वाले ही, देखेंगे तुझको हँस-हँसकर।
खग! उड़ते रहना जीवन भर!

और मिट गया चलते-चलते
मंज़िल-पथ तय करते-करते
तेरी ख़ाक़ चढ़ाएगा जग उन्नत भाल और आँखों पर।
खग! उड़ते रहना जीवन भर!

© Gopaldas Neeraj : गोपालदास ‘नीरज’

 

अश्वत्थामा

किंवदंती है कि अश्वत्थामा अमर है। छल से उसने द्रौपदी के पाँच नन्हे-निरीह शिशुओं का वध किया तो पाण्डवों ने दण्ड स्वरूप उसकी मस्तक मणि को निकाल लिया। मर वह सकता नहीं था।

कहते हैं आज भी कमण्डल में रखे लेप से उस अगम घाव को भरता इधर-उधर भटकता रहता है। कुछ का कहना है कि उन्होंने देखा है, उनसे मिला है।

मुझे-
अमरता को मेरी
शापित करने से पूर्व
-बताया जाए
कब किस दुर्योधन से-
किस पांचाली के निरीह शिशुओं का
मैंने रक्त बहा
-मित्रता निभाई?
मेरे कारण
बोलो
कब, किस धर्मराज का गला अंगूठा?

फिर मुझको क्यों दिया जा रहा
यह कठोर दुस्सह दण्ड?
न छीनो
हाय! न छीनो
मेरी मस्तक मणि को!
यह तो ज्ञात तुम्हें भी है कि
मैं मरने वालों में नहीं

मगर
यह घाव अगम
क्या कभी भरेगा?
हो पाएगा रिक्त कमण्डल
कभी लेप से?
छिन दो छिन को ही सही
पड़ेगा चैन कभी पीड़ा को?

या मैं युगों-युगों तक
सारे जग से आँख चुराए
पर्वत-पर्वत
घाटी-घाटी
यूँ ही भ्रमता फिरूँ
झल्लाता!

© Jagdish Savita : जगदीश सविता

 

 

पथिक!

पथिक! तुम्हारे पथ में कोई
दृश्य अनूठा आया होगा
धूली के कण-कण ने रह-रह
गीत अनूठा गाया होगा

कान तुम्हारे पास नहीं थे
पंछी गण की कलकल ध्वनि ने
उन्हें चुराया उन्हें लुभाया
सुख संवाद सुनाया होगा

ललित लताओं की कलियों में
बंदी थी वे चल ताराएँ
दीन-हीन जगती का हामी
सपने में तरसाया होगा

पैर तुम्हारे दुरभिमान से
रोंद रहे थे दीन कणों को
हो रहा था भू में कंपन
जगती को ठुकराया होगा

कोमल पावन हाथ तुम्हारे
कैसे उन नीचों को छूते
पाद तलों से घिसते-घिसते
जिसने जीवन पाया होगा

स्पंदन हीन दृश्य में शोणित
संचालन का वेग कहाँ था
मानवता-दानवता के विच
इतना अंतर पाया होगा

© Acharya Mahapragya : आचार्य महाप्रज्ञ

 

फिर बसंत आना है

तूफ़ानी लहरें हों
अम्बर के पहरे हों
पुरवा के दामन पर दाग़ बहुत गहरे हों
सागर के माँझी मत मन को तू हारना
जीवन के क्रम में जो खोया है, पाना है
पतझर का मतलब है फिर बसंत आना है

राजवंश रूठे तो
राजमुकुट टूटे तो
सीतापति-राघव से राजमहल छूटे तो
आशा मत हार, पार सागर के एक बार
पत्थर में प्राण फूँक, सेतु फिर बनाना है
पतझर का मतलब है फिर बसंत आना है

घर भर चाहे छोड़े
सूरज भी मुँह मोड़े
विदुर रहे मौन, छिने राज्य, स्वर्णरथ, घोड़े
माँ का बस प्यार, सार गीता का साथ रहे
पंचतत्व सौ पर है भारी, बतलाना है
जीवन का राजसूय यज्ञ फिर कराना है
पतझर का मतलब है, फिर बसंत आना है

© Kumar Vishwas : कुमार विश्वास

 

अनर्गल

अनर्गल बताकर मेरे प्रश्नों को
अक्सर कह देते हैं लोग
कि महज पागलपन हैं
मेरे ये प्रश्न।

क्योंकि अक्सर सोचती हूँ मैं
कि कैसा लगता होगा रोटी को
जब कोई
चबा जाता होगा उसे
आड़ा-तिरछा तोड़कर

कैसे छटपटाती होगी
सफेद साँचे में ढली सिगरेट
जब उड़ा देता होगा कोई
उसके सम्पूर्ण अस्तित्व को
धुएँ के साथ
और फिर होठों से हटा
पैरों तले कुचलकर
बढ़ जाता होगा आगे

….हम्मम!
शायद
पागल ही हो गई हूँ मैं।

© Sandhya Garg : संध्या गर्ग