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यशोधरा

अब की बार
निशाने पर थे तथागत!
पूरा प्रबन्ध काव्य रचा गया
सशक्त और छन्दोबद्ध भाषा में
सिद्ध कर दिया
कि भटक गया था वह
बुद्ध हो कर भी रहा अधूरा
सम्पूर्ण थी केवल यशोधरा
अपने दुधमुँहे के साथ!

© Jagdish Savita : जगदीश सविता

 

चंद सस्ती ख्वाहिशों पर सब लुटाकर मर गईं

चंद सस्ती ख्वाहिशों पर सब लुटाकर मर गईं
नेकियाँ ख़ुदगर्ज़ियों के पास आकर मर गईं

जिनके दम पर ज़िन्दगी जीते रहे हम उम्र भर
अंत में वो ख्वाहिशें भी डबडबाकर मर गईं

बदनसीबी, साज़िशें, दुश्वारियाँ, मातो-शिक़स्त
जीत की चाहत के आगे कसमसाकर मर गईं

मीरो-ग़ालिब रो रहे थे रात उनकी लाश पर
चंद ग़ज़लें चुटकुलों के बीच आकर मर गईं

वो लम्हा जब झूठ की महफ़िल में सच दाखिल हुआ
साज़िशें उस एक पल में हड़बड़ा कर मर गईं

क्या इसी पल के लिए करता था गुलशन इंतज़ार
जब बहार आई तो कलियाँ खिलखिला कर मर गईं

जिन दीयों में तेल कम था, उन दीयों की रोशनी
तेज़ चमकी और पल में डगमगा कर मर गईं

दिल कहे है- प्रेम में उतरी तो मीरा जी उठीं
अक्ल बोले- बावरी थीं, दिल लगाकर मर गईं

ये ज़माने की हक़ीक़त है, बदल सकती नहीं
बिल्लियाँ शेरों को सारे गुर सिखाकर मर गईं

© Chirag Jain : चिराग़ जैन

 

चले नहीं जाना बालम

यह डूबी-डूबी सांझ, उदासी का आलम
मैं बहुत अनमनी, चले नहीं जाना बालम
ड्योढी पर पहले दीप जलाने दो मुझको
तुलसी जी की आरती सजाने दो मुझको
मंदिर के घंटे, शंख और घड़ियाल बजे
पूजा की सांझ-संझौती गाने दो मुझको
उगने तो दो पहले उत्तर में ध्रुवतारा
पथ के पीपल पर कर आने दो उजियारा
पगडंडी पर जल-फूल-दीप धर आने दो
चरणामृत जाकर ठाकुर जी का लाने दो
यह डूबी-डूबी सांझ, उदासी का आलम
मैं बहुत अनमनी, चले नहीं जाना बालम

यह काली-काली रात, बेबसी का आलम
मैं डरी-डरी सी, चले नहीं जाना बालम

बेले की पहले ये कलियाँ खिल जाने दो
कल का उत्तर पहले इन से मिल जाने दो
तुम क्या जानो यह किन प्रश्नों की गाँठ पड़ी
रजनीगंधा से ज्वार-सुरभि को आने दो
इस नीम ओट से ऊपर उठने दो चन्दा
घर के आँगन में तनिक रोशनी आने दो
कर लेने दो तुम मुझको बंद कपाट ज़रा
कमरे के दीपक को पहले सो जाने दो
यह काली-काली रात, बेबसी का आलम
मैं डरी-डरी सी, चले नहीं जाना बालम

यह ठंडी-ठंडी रात, उनींदा सा आलम
मैं नींद भरी सी, चले नहीं जाना बालम

चुप रहो ज़रा सपना पूरा हो जाने दो
घर की मैना को ज़रा प्रभाती गाने दो
खामोश धरा, आकाश, दिशायें सोयीं हैं
तुम क्या जानो क्या सोच रात भर रोयीं हैं
ये फूल सेज के चरणों पर धर देने दो
मुझको आँचल में हरसिंगार भर लेने दो
मिटने दो आँखों के आगे का अंधियारा
पथ पर पूरा-पूरा प्रकाश हो लेने दो
यह ठंडी-ठंडी रात, उनींदा सा आलम
मैं नींद भरी सी, चले नहीं जाना बालम

© Sarveshwar Dayal Saxena : सर्वेश्वर दयाल सक्सेना

 

मूल्य

हाँ!
हार गई हूँ मैं
क्योंकि मैंने
सम्बन्धों को जिया
और तुमने
उनसे छल किया,
केवल छल।

हाँ!
हार गई मैं
क्योंकि
सत्य ही रहा
मेरा आधार
और तुमने
हमेशा झूठ से करना चाहा
जीवन का शृंगार।

क्योंकि
मैंने हमेशा
प्रयास किया
कुछ मूल्यों को
बचाने का
और तुमने
ख़रीद लिया
उन्हें भी मूल्य देकर!

हाँ!
सबने यही जाना
कि जीत गए हो तुम
पर उस हार के
गहन एकाकी क्षणों में भी
मैंने
नहीं चाहा कभी
कि ‘मैं’
‘तुम’ हो जाऊँ

….और यही
मेरी सबसे बड़ी जीत है।

© Sandhya Garg : संध्या गर्ग

 

तेरी गोदी-सी गरमाहट

भरे घर में तेरी आहट कहीं मिलती नहीं अम्मा
तेरे हाथों की नरमाहट कहीं मिलती नहीं अम्मा
मैं तन पे लादे फिरता हूँ दुशाले रेशमी फिर भी
तेरी गोदी-सी गरमाहट कहीं मिलती नहीं अम्मा

© Dinesh Raghuvanshi : दिनेश रघुवंशी

 

कॉन्ट्रेक्ट

सहज ही कह बैठे थे तुम
समझाने के लहजे में-
“रिश्ते को बचाने के लिए
झुक कर माफ़ी मांग लेना
कहीं बेहतर है
रिश्ते के टूट जाने से!
ग़लती न हो
तो भी मांग लेनी चाहिए माफ़ी
कम-से-कम
चलता तो रहता है रिश्ता!”

सुनकर
विरोध किया था मन ने
तुम्हारी इस धारणा का!
फिर गूंजा एक प्रतिप्रश्न
मेरे भीतर-
क्या रिश्ते भी
कॉन्ट्रेक्ट हैं कोई
जिसकी अवधि
बढ़ाई जा सके
एक और स्टैम्प लगाकर?

© Sandhya Garg : संध्या गर्ग

 

याद आती है माँ

मकई की मोटी-मोटी रोटियाँ हथेलियों से गोल-गोल कैसे बन जाती थीं
बर्तन में गारे के बघारे ही बगैर दाल स्वाद कहाँ से ले आती थी
उस मासूम दाल को छप्पन मसालों से जो घिरी हुई पाता हूँ मैं
याद आती है माँ

कभी-कभी किसी दिन मेरे कारण कोई कलह यूँ भी होता
पीट के मुझको लिपटा कर फिर ख़ुद रोती और मैं रोता
गलती भी मेरी होती, रूठता भी मैं ही और वो उल्टे समझाती थी
अपराधी भाव से उठा के आधी रात मुझे हाथों से अपने खिलाती थी
जब दौड़-धूप से दिन भर थका बिन खाए ही सो जाता हूँ मैं
याद आती है माँ

बाबूजी की तबियत ऐसी बिगड़ी, वो भी क्या दिन था भैया
आठ आने, चार आने गिन कर देखे, सौ में कम था दो रुपैया
हम पाँच बहन-भाई उस पे वो महंगाई, जाने कैसे उसने बचाए थे
ये भी तब था कि जब, मैंने जाने कब-कब, जेबों से पैसे चुराए थे
जब हार कर माह के बीच ही इन हाथों को फैलाता हूँ मैं
याद आती है माँ

उसके हाथों बोई हुई सब बेलें छप्पर तक जातीं
कहीं करेले, कहीं पे लौकी, कहीं तरोई इतराती
घर था छोटा सा पर, चारों ओर छोर पर, क्या हरियाली छाई थी
याद है मुझे भी मैंने उसके कहे से आंगन में तुलसी लगाई थी
जब बीवी की ज़िद्द पर घर के लिए कई कैक्टस लिए आता हूँ मैं
याद आती है माँ

उंगली और अंगूठे बीच दबाकर मेरे गालों को
मांग काढ़ती कई तरह कई शक्लें देती बालों को
सुबह जल्दी जागी हुई देर रात दौड़ती वो हरदम तत्पर मिलती थी
काँटों की बना के सूईं फटी हुई साड़ियों पे चांद-सितारे सिलती थी
जो विश्व की सुंदरतम औरतें उनको गिनते हुए पाता हूँ मैं
याद आती है माँ

दिखने में कुछ होने में कुछ दुनिया दोरंगी बेटा
सुख में अपने दुख में पराए ये साथी संगी बेटा
अनमने मन से मैं सुनी-अनसुनी कर मन ही मन झुंझलाता था
अपनी समझसे मैं ख़ुद को समझदार और चालाक ही पाता था
जब अपने ही जूते की कील से इन रस्तों पे लंगड़ाता हूँ मैं
याद आती है माँ

© Ramesh Sharma : रमेश शर्मा

 

कल्पना

कल्पना का एक किनारा
तुम्हारे हाथ में है
और दूसरा मेरे हाथ में
ये सिमट भी सकते हैं
और बढ़ भी सकते हैं

© Acharya Mahapragya : आचार्य महाप्रज्ञ

 

गीतकार मन

दुनिया भर के आंसू लेकर आखिर कहां कहां भटकोगे,
गीतकार मन, कहीं बैठकर गीत तुम्हें गाना ही होगा।

ज्ञात मुझे तुम चंदनवन से नागदंश लेकर लौटे हो
ज्ञात मुझे यह सागरतट से तुम प्यासे वापस आये,
कितने ही अपराह्न तुम्हारे ढलते रहे प्रतीक्षा में
कितने पुष्पमाल स्वागत के यूँ ही गुंधकर कुम्हलाए,
लेकिन तुमने हार नहीं मानी, कांटों में मुसकाये तुम
वह सारी अनुभूति भुलाकर मीत तुम्हें गाना ही होगा।

करती हैं व्यापार अमृत का गली गली में विष कन्यायें
भौंरे बैठे हैं फूलों पर गंधों के विक्रेता बनकर,
दूर दूर तक दृष्टि घुमाकर देखो एक बार तो देखो
मुकुट पहन कर बैठे सारे हारे हुये विजेता बनकर
घोर विसंगतियों के युग में तुम यों मौन नहीं रह सकते
रूठे युग फिर भी युग के विपरीत तुम्हें गाना ही होगा।

© Gyan Prakash Aakul : ज्ञान प्रकाश आकुल