मिलने को मिलता रहा ये सारा संसार
जिससे होना था हुआ एक नज़र में प्यार
© Praveen Shukla : प्रवीण शुक्ल
मिलने को मिलता रहा ये सारा संसार
जिससे होना था हुआ एक नज़र में प्यार
© Praveen Shukla : प्रवीण शुक्ल
ज़िंदगी का सफ़र यूँ बिताते रहे
आंधियों में दिये हम जलाते रहे
आँसुओं के नगर में कटी ज़िंदगी
हर घड़ी फिर भी हँसते-हँसाते रहे
© Praveen Shukla : प्रवीण शुक्ल
सही दिशा में जो चले, हुए न कभी हताश
एक क़दम की चूक से होता सत्यानाश
© Praveen Shukla : प्रवीण शुक्ल
सोता-सोता जागता सुनकर इसकी टोन
सपने में भी दीखता अब मोबाइल फोन
© Praveen Shukla : प्रवीण शुक्ल
उसके चरणों की हुई सारी दुनिया दास
जिसने मन से ले लिया गौतम-सा सन्यास
© Praveen Shukla : प्रवीण शुक्ल
अपने जीवन में मिला, जिसको जैसा संग
उसके चेह्रे पर मिले, उसी तरह के रंग
© Praveen Shukla : प्रवीण शुक्ल
पीपल भी देता नहीं, अब तो शीतल छाँव
बदला-बदला लग रहा, क्यों पुरखों का गाँव
© Praveen Shukla : प्रवीण शुक्ल
ज़माने ने कभी ऐसा कोई मंज़र नहीं देखा
हमारे हाथ में उठता हुआ पत्थर नहीं देखा
मुझे बिजली के गिरने पर फ़क़त इतनी शिक़ायत है
कि इक मासूम का टूटा हुआ छप्पर नहीं देखा
वही मंज़िल पे पहुँचे हैं हमेशा वक़्त से पहले
जिन्होंने पाँव में चुभता हुआ पत्थर नहीं देखा
निभाई दोस्ती मुंसिफ़ ने क़ातिल को रिहा करके
हमारी पीठ में उतरा हुआ ख़ंजर नहीं देखा
जिन्होंने पेड़ नेकी के लगाए इस ज़माने में
उन्होंने ख़ुद किसी भी मोड़ पर पतझर नहीं देखा
सुनो क्या गुज़री उस बाबुल पे बेटी की विदाई पर
कि जिसने जाती डोली की तरफ़ मुड़कर नहीं देखा
© Praveen Shukla : प्रवीण शुक्ल
फिर से बिटिया देखने आए हैं कुछ लोग
रक्तचाप-सा बढ़ गया फिर बाबुल का रोग
© Praveen Shukla : प्रवीण शुक्ल
जीनी है ज़िन्दगी तो जियो प्यार की तरह
क्यूँ जी रहे हो तुम इसे तक़रार की तरह
बनना है गर महकते हुए फूल ही बनो
पाँवों में मत चुभो किसी के ख़ार की तरह
मिलना है मुझसे गर तो खुले ज़ेह्न से मिलो
मिलना नहीं है अब मुझे हर बार की तरह
गर चाहते हो तुमको मिलें क़ामयाबियाँ
चलना पड़ेगा वक़्त की रफ़्तार की तरह
जीवन के हर इक पल को जियो धूमधाम से
मत बेवज़ह जियो किसी बीमार की तरह
जिस घर ने पाल-पोस के तुमको बड़ा किया
आंगन को उसके बाँटो मत दीवार की तरह
दोज़ख़ में भी उनको ज़मीं दो गज़ न मिलेगी
माँ-बाप जिन्हें लगने लगें भार की तरह
© Praveen Shukla : प्रवीण शुक्ल