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नीला नभ हो गया

नीला नभ हो गया अचानक श्यामल-श्यामल,
अहा! दूर तक घन ही घन आषाढ़ यही है,
नदिया से लेकर नयनों तक बाढ़ यही है।
गीला है मन से लेकर धरती का आंचल।

तभी घटी मन के भीतर के कुछ ऐसी घटना,
मरुथल के ऊपर से निकलीं श्याम घटाएं,
उन्हें उड़ा कर बहुत दूर ले गयीं हवाएं।
पूर्व नियोजित-सा था यह बादल का छँटना।

इसी तरह कितने आषाढ़ गये फिर आये,
मरुथल ने स्वागत के फिर फिर मंत्र पढ़े हैं,
मंत्र तिरस्कृत कर घन अपनी राह बढ़े हैं।
मरुथल खड़ा रहा अपनी बांहें फैलाये।

कोई कह दे मरुथल में बादल आयेंगे,
समय कटेगा,तब तक हम स्वागत -गायेंगे।

© Gyan Prakash Aakul : ज्ञान प्रकाश आकुल

 

 

बूंदों की भाषा

खिड़की में से आती धीमी हवा
और ठण्डी फुहार
दिलाती हैं
तुम्हारी कमी का अहसास
और भी तेज़ी से

चाहता है मन,
कि भीगें इस फुहार में
साथ-साथ…
और चलते रहें कहीं दूर
और दूर….

या फिर घर में बैठे रहें
साथ-साथ,
और ढेर सारी बातें करें
धीमे-धीमे!

लेकिन केवल ख़्याल ही हैं ये
मैं बैठी हूँ अकेली
खिड़की से देखती
इस फुहार को
और सोचती हुई
तुम्हारे बारे में
तुम्हारी खिड़की के बाहर भी
बरस रही होंगी बूंदें
उनकी भाषा
तुम समझ पा रहे हो?
वो कह रही हैं जो कुछ
तुम सुन रहे हो ना?

…या फिर
भीगने के डर से
खिड़की बन्द किए
सो रहे हो
आराम से?

© Sandhya Garg : संध्या गर्ग