Tag Archives: Ramesh Sharma Poem

याद आती है माँ

मकई की मोटी-मोटी रोटियाँ हथेलियों से गोल-गोल कैसे बन जाती थीं
बर्तन में गारे के बघारे ही बगैर दाल स्वाद कहाँ से ले आती थी
उस मासूम दाल को छप्पन मसालों से जो घिरी हुई पाता हूँ मैं
याद आती है माँ

कभी-कभी किसी दिन मेरे कारण कोई कलह यूँ भी होता
पीट के मुझको लिपटा कर फिर ख़ुद रोती और मैं रोता
गलती भी मेरी होती, रूठता भी मैं ही और वो उल्टे समझाती थी
अपराधी भाव से उठा के आधी रात मुझे हाथों से अपने खिलाती थी
जब दौड़-धूप से दिन भर थका बिन खाए ही सो जाता हूँ मैं
याद आती है माँ

बाबूजी की तबियत ऐसी बिगड़ी, वो भी क्या दिन था भैया
आठ आने, चार आने गिन कर देखे, सौ में कम था दो रुपैया
हम पाँच बहन-भाई उस पे वो महंगाई, जाने कैसे उसने बचाए थे
ये भी तब था कि जब, मैंने जाने कब-कब, जेबों से पैसे चुराए थे
जब हार कर माह के बीच ही इन हाथों को फैलाता हूँ मैं
याद आती है माँ

उसके हाथों बोई हुई सब बेलें छप्पर तक जातीं
कहीं करेले, कहीं पे लौकी, कहीं तरोई इतराती
घर था छोटा सा पर, चारों ओर छोर पर, क्या हरियाली छाई थी
याद है मुझे भी मैंने उसके कहे से आंगन में तुलसी लगाई थी
जब बीवी की ज़िद्द पर घर के लिए कई कैक्टस लिए आता हूँ मैं
याद आती है माँ

उंगली और अंगूठे बीच दबाकर मेरे गालों को
मांग काढ़ती कई तरह कई शक्लें देती बालों को
सुबह जल्दी जागी हुई देर रात दौड़ती वो हरदम तत्पर मिलती थी
काँटों की बना के सूईं फटी हुई साड़ियों पे चांद-सितारे सिलती थी
जो विश्व की सुंदरतम औरतें उनको गिनते हुए पाता हूँ मैं
याद आती है माँ

दिखने में कुछ होने में कुछ दुनिया दोरंगी बेटा
सुख में अपने दुख में पराए ये साथी संगी बेटा
अनमने मन से मैं सुनी-अनसुनी कर मन ही मन झुंझलाता था
अपनी समझसे मैं ख़ुद को समझदार और चालाक ही पाता था
जब अपने ही जूते की कील से इन रस्तों पे लंगड़ाता हूँ मैं
याद आती है माँ

© Ramesh Sharma : रमेश शर्मा

 

मैं तब से जानता हूँ

दर्पण में जब वो हर दिन, ख़ुद को नया-नया सा
अचरज से ताकती थी, मैं तब से जानता हूँ
सीधी सी बात पर भी, सीधे सहज ही उसने
मुझसे न बात की थी, मैं तब से जानता हूँ

जंगल में एक दानव, परियों को बांधता जब
करती थी प्रार्थना वो, युवराज आओ भी अब
किस्से-कहानियों में, इक चांद बैठी बुढ़िया
जब सूत कातती थी, मैं तब से जानता हूँ

चिट्ठाए बालों वाले सर को झुकाए नीचे
आँखों पे आए लट फिर, फिर फेंकती वो पीछे
आंगन में अपने घर के, लू की भरी दुपहरी
उपले वो पाथती थी, मैं तब से जानता हूँ

आँखों में मोटे-मोटे, सपनों की छोटी दुनिया
गोदी लिए वो फिरती, भाभी की नन्हीं मुनिया
मेरा ध्यान खींचने को, उसे डाँटकर रुलाती
और फिर दुलारती थी, मैं तब से जानता हूँ

प्रेम को ‘परेम’ लिखती, दिन को वो ‘दीन’ लिखती
जीना हुआ है ‘मुस्किल’, अब ‘तूम बीन’ लिखती
अशुद्धि में व्याकरण की, वो शुद्ध भाव मन के
कहते थे आपबीती, मैं तब से जानता हूँ

© Ramesh Sharma : रमेश शर्मा

 

इक आम-सी लड़की थी

जब गरजे तब बरसे नहीं -उस शाम-सी लड़की थी
उहापोह के निकले हुए परिणाम-सी लड़की थी
गीत मैं जिसके गाता हूँ इक आम-सी लड़की थी

परी न चंदा, मृगनयनी, ना रूप की राजकुमारी-सी
कलकल नदिया, ना ही अप्सरा, ना सुंदर फुलवारी-सी
कलाकार की कल्पित रचना, मैना ना अमराई की
मस्त ठुमकते सावन जैसी, ना चंचल पुरवाई-सी
लीपे आंगन पर मांडे चितराम-सी लड़की थी

दो के पहाड़े जैसी सीधी, एक से दस तक गिनती-सी
पहली कक्षा के बच्चे की विद्या माँ से विनती-सी
चूल्हा, चौका, झाड़ू, बर्तन, बचपन से ही बोझ लिए
चित्रकथा की पुस्तक थी वो माँ के हाथों छिनती-सी
आधे वाक्य के आगे पूर्णविराम-सी लड़की थी

मोहल्ले की हलचल पर वो करती नहीं थी परिचर्चा
मोर-सा नर्तन, भँवरे गुनगुन, तितली-सी ना दिनचर्या
रजनीगंधा, जूही, केतकी, अनुकंपा, ना जिज्ञासा
श्वेता, मुक्ता, युक्ता, ना ही क्षमा, विभा, ऐश्वर्या
सीता, गीता, मीरा जैसे नाम-सी लड़की थी

गंधों का ना मादकता, उत्तेजक अहसास जगे
भाव-भंगिमा नहीं कि ऐसी कंठ सुखाती प्यास जगे
ताजमहल पर रुके चांद का चित्र न दीखा उसमें तो
मैं क्या बोलूँ देख के उसको मुझमें क्या आभास जगे
तेज़ बुख़ार के बाद हुए आराम-सी लड़की थी

© Ramesh Sharma : रमेश शर्मा