Tag Archives: Sandhya Garg Poems

कितनी बड़ी क़ीमत है!

कितनी बड़ी क़ीमत है!
तुमने कहा था-
”तुम्हीं मेरे लिए
भगवान हो”

….सुनकर
बहुत अच्छा
नहीं लगा था

जान गई थी
रहना पड़ेगा
एक और रिश्ते में
भगवान की
उस मूर्ति की तरह
जो खड़ी रहती है
चुपचाप…

लोग
आते हैं उसके पास
दुख में
परेशानी में
और क्रोध में भी!

…करते हैं शिक़ायतें
और देते हैं गालियाँ!
कहती नहीं है मूर्ति
कुछ भी,
प्रत्युत्तर में।
बस मुस्कुराती रहती है।

क्योंकि जानती है
दे देगी
जिस दिन कोई उत्तर
लोग छोड़ देंगे
उसके पास आना भी।

सच!
सुनना
सहना
और मुस्कुराते रहना….

कितनी बड़ी क़ीमत है
भगवान बनने की!

© Sandhya Garg : संध्या गर्ग

 

मेरा सच

मेरा सच
सत्य
सिद्ध न भी किया जा सके
तो भी सत्य ही होता है
झूठ को
सिद्ध करने के लिए
चाहिए होती हैं दलीलें
और झूठी गवाहियाँ….

नहीं हूँ तैयार मैं
अपने सच को
सिद्ध करने के लिए
सूली पर चढ़ जाने को
या क्रॉस पर टंग जाने को
या फिर
मन्सूर की तरह
गर्दन कटाने को भी

यह सत्य मेरा है
तुम्हें स्वीकार हो
तो भी
और न हो
तो भी….!

© Sandhya Garg : संध्या गर्ग

 

व्यापार

तुम कहते हो
कि पूर्ण कर देता है प्यार
दो आधे-अधूरे लोगों को

मैं सोचती हूँ
कि आधा या अधूरा व्यक्ति
कर ही नहीं सकता प्यार!

प्यार के लिए
आधा या पूरा नहीं
स्वयं में दो होना होता है।

प्यार नाम है देने का
और दे वही सकता है
जो पूरे से कुछ ज्यादा हो!
ताकि दे सके वह
निर्द्वन्द्व
बिना किसी पश्चाताप के

…कुछ लेना
फिर कुछ देना
ये तो व्यापार है
प्यार नहीं!

© Sandhya Garg : संध्या गर्ग

 

कोई छू ले मन!

काश!
कोई छू ले मन
देह छुए बिना!

….मन,
जो दबा है कहीं
देह की
परतों के नीचे
कोई हो,
जो जादू की छड़ी से
छू ले मन को
और जाग उठे मन
सपनों की
राजकुमारी की तरह

बस!
फिर यहीं
ख़त्म हो जाए कहानी।

जाना न पड़े
राजकुमारी को,
जादू की छड़ी वाले
राजकुमार के साथ!

बस
मन जागे
और बना ले ख़ुद
अपना रास्ता…
अपने पंख….
अपना आकाश….!

© Sandhya Garg : संध्या गर्ग

 

रफ़ू

नया कपड़ा बुनने से कहीं मु्श्क़िल है
फटे कपड़े को रफ़ू करना!

….आँखें गड़ा-गड़ा कर,
पिरोना होता है एक-एक तार,
छूटे-टूटे ताने-बाने के साथ

रवां करना होता है नया धागा
और बनाना होता है उसे
कपड़े का एक हिस्सा!
इतने के बाद भी
ख़त्म नहीं हो जाता
मसअला!
बेशक़
कारीगरी की क़रामात
दे सकती है चकमा
सारी दुनिया को

…लेकिन हम भरे रहते हैं
इस अहसास से
कि हमने जो ओढ़ा है
वो साबुत नहीं रफ़ू किया गया है!

© Sandhya Garg : संध्या गर्ग

 

अनर्गल

अनर्गल बताकर मेरे प्रश्नों को
अक्सर कह देते हैं लोग
कि महज पागलपन हैं
मेरे ये प्रश्न।

क्योंकि अक्सर सोचती हूँ मैं
कि कैसा लगता होगा रोटी को
जब कोई
चबा जाता होगा उसे
आड़ा-तिरछा तोड़कर

कैसे छटपटाती होगी
सफेद साँचे में ढली सिगरेट
जब उड़ा देता होगा कोई
उसके सम्पूर्ण अस्तित्व को
धुएँ के साथ
और फिर होठों से हटा
पैरों तले कुचलकर
बढ़ जाता होगा आगे

….हम्मम!
शायद
पागल ही हो गई हूँ मैं।

© Sandhya Garg : संध्या गर्ग

 

मूल्य

हाँ!
हार गई हूँ मैं
क्योंकि मैंने
सम्बन्धों को जिया
और तुमने
उनसे छल किया,
केवल छल।

हाँ!
हार गई मैं
क्योंकि
सत्य ही रहा
मेरा आधार
और तुमने
हमेशा झूठ से करना चाहा
जीवन का शृंगार।

क्योंकि
मैंने हमेशा
प्रयास किया
कुछ मूल्यों को
बचाने का
और तुमने
ख़रीद लिया
उन्हें भी मूल्य देकर!

हाँ!
सबने यही जाना
कि जीत गए हो तुम
पर उस हार के
गहन एकाकी क्षणों में भी
मैंने
नहीं चाहा कभी
कि ‘मैं’
‘तुम’ हो जाऊँ

….और यही
मेरी सबसे बड़ी जीत है।

© Sandhya Garg : संध्या गर्ग

 

कॉन्ट्रेक्ट

सहज ही कह बैठे थे तुम
समझाने के लहजे में-
“रिश्ते को बचाने के लिए
झुक कर माफ़ी मांग लेना
कहीं बेहतर है
रिश्ते के टूट जाने से!
ग़लती न हो
तो भी मांग लेनी चाहिए माफ़ी
कम-से-कम
चलता तो रहता है रिश्ता!”

सुनकर
विरोध किया था मन ने
तुम्हारी इस धारणा का!
फिर गूंजा एक प्रतिप्रश्न
मेरे भीतर-
क्या रिश्ते भी
कॉन्ट्रेक्ट हैं कोई
जिसकी अवधि
बढ़ाई जा सके
एक और स्टैम्प लगाकर?

© Sandhya Garg : संध्या गर्ग

 

मन का मौसम

इस बार गर्मी ने
रिकॉर्ड तोड़ा है
शहर में!

सूरज,
तपती आग का
एक गोला-सा
जैसे निगल ही जाएगा
धरती को….
धरती दिन-रात
जल रही है
तवे की तरह।

लेकिन
न जाने क्यों
नहीं बदला है मौसम
मन के
भीतर का
नहीं पिघल रही है
मन पर जमी बर्फ़
शायद उसे चाहिए
कुछ और तपिश

…गर्मी नहीं
सम्बन्धों की ऊष्मा ही
पिघला सकती है
ये बर्फ़
तभी शायद
मन का मौसम बदलेगा
और जमा है
जो बर्फ़-सा
वो अकेलापन
पिघलेगा।

© संध्या गर्ग

 

 

छोटा-सा लड़का

कहीं एक छोटा-सा लड़का
छोटे कस्बे में रहता था
इक दिन वो भी बड़ा बनेगा
अक्सर सबसे ये कहता था
उन छोटी-छोटी ऑंखों में
सपने काफ़ी बड़े-बड़े थे
उसके मन के भीतर जाने
कितने अरमां भरे पड़े थे

अपने इन सपनों को जब वो
अपनी ऑंखों में भरता था
पंख तौल कर अपने जब वो
उड़ने की सोचा करता था
तब उसको लगता कस्बे का
बस मुट्ठी भर आसमान है
इतने से उसका क्या होगा
उसकी तो लम्बी उड़ान है

यही सोचता रहता दिन भर
आख़िर वो दिन कब आएगा
जब वो अपने पंख पसारे
खुले गगन में उड़ जाएगा
इक दिन क़िस्मत ले ही आई
उसे इक ऐसे महानगर में
जहाँ उजाला ही रहता था
सात दिवस के आठ पहर में

असली सूरज के ढलते ही
नक़ली सूरज उग आते थे
इसी वजह से यहाँ परिन्दे
दूर-दूर तक उड़ पाते थे
गाँव-गली में शाम ढले ही
जब दिन धुंधलाने लगता है
तब लोगों को रात बिताने
घर वापस आना पड़ता है

लेकिन इस मायानगरी का
केवल दिन से ही था नाता
इस नगरी में छोटा लड़का
लम्बी दूरी तक उड़ जाता
अब वो इक छोटा-सा लड़का
पंख पसारे ऊँचा उड़ता
आगे ही बढ़ता रहता था
लेकिन पीछे कभी न मुड़ता

उड़ते-उड़ते कभी-कभी जब
याद उसे कस्बा आता था
तब जाने क्यों छोटा लड़का
कुछ उदास-सा हो जाता था
तब वो रुककर सोचा करता
क्या ये रास उसे आएगा
क्या वो इन कोमल पंखों से
सारा जीवन उड़ पाएगा

कभी अगर इस महानगर की
हवा श्वास में भर जाती थी
तो पल भर में ही वो उसका
जीवन दूभर कर जाती थी
इस अनजाने महानगर में
कोई किसी का मीत नहीं है
यहाँ सिर्फ़ बेगानापन है
अपनेपन की रीत नहीं है

घबराता जब छोटा लड़का
तभी एक झोंका आता था
और उसी झोंके के संग में
लड़का फिर से उड़ जाता था
हँसते-रोते ही वह लड़का
महानगर में जी लेता था
सुख के दुख के सभी घूँट; वो
धीरे-धीरे पी लेता था

आख़िर सीख लिया उसने भी
थोड़ी चालाकी अपनाना
ज्यादा ऊँचाई पाने को
लोगों के ऊपर चढ़ जाना
अब उसको सारी चालाकी
साधारण सी ही लगती थी
महानगर की हवा उसे अब
प्राणवायु जैसी लगती थी
उसने सीख लिया था अब
संबंधों की सीढ़ी चढ़ लेना
ख़ुद का क़द ऊँचा करने को
औरों को छोटा कर देना
अब वो दिन भर उड़ता रहता
महानगर के आसमान में
कोई बाधा नहीं थी उसको
ऊँची से ऊँची उड़ान में

लेकिन अब छोटे लड़के को
महानगर भी छोटा लगता
अब वो अपने पंख तौलने
और कहीं की सोचा करता
ऐसा ना हो भटक जाए वो
और कहीं से और कहीं पर
ऐसा ना हो आन गिरे वो
नीले नभ से हरी ज़मीं पर

© Sandhya Garg : संध्या गर्ग