Tag Archives: Satire

लहू से तर

वक़्त लहू से तर लगता है
इस दुनिया से डर लगता है

इंसानों के धड़ के ऊपर
हैवानों का सर लगता है

बाज़ के पंजों में अटका वो
इक चिड़िया का पर लगता है

रिश्ते-नाते पलड़ों पर हैं
बाज़ारों-सा घर लगता है

जितना ज़्यादा सच बोलें हम
उतना ज़्यादा कर लगता है

© Naresh Shandilya : नरेश शांडिल्य

 

रफ़ू

नया कपड़ा बुनने से कहीं मु्श्क़िल है
फटे कपड़े को रफ़ू करना!

….आँखें गड़ा-गड़ा कर,
पिरोना होता है एक-एक तार,
छूटे-टूटे ताने-बाने के साथ

रवां करना होता है नया धागा
और बनाना होता है उसे
कपड़े का एक हिस्सा!
इतने के बाद भी
ख़त्म नहीं हो जाता
मसअला!
बेशक़
कारीगरी की क़रामात
दे सकती है चकमा
सारी दुनिया को

…लेकिन हम भरे रहते हैं
इस अहसास से
कि हमने जो ओढ़ा है
वो साबुत नहीं रफ़ू किया गया है!

© Sandhya Garg : संध्या गर्ग

 

भीतर एक दिया जलने दो

भीतर एक दिया जलने दो
बाहर उल्लू बोल रहे हैं भीतर एक दिया जलने दो।

ये अँधियारा पाख चल रहा
चांद दिनों दिन कम निकलेगा,
जब आयेगी रात उजाली
अंधियारे का दम निकलेगा,
उजियारा है दूर मगर उजियारे की बातें चलने दो।

द्वार लगा दो ताकि यहाँ तक
अंधियारे के दूत न आयें,
पुरवा पछुआ धोखा देकर
इस दीये को बुझा न जायें,
लौ शलभों को छले जा रही कुछ न कहो देखो, छलने दो।

आओ साथी पास हमारे
अंधियारे में दूर न जाओ,
जो न कह सके उजियारे में
वे सारी बातें बतलाओ,
उधर न देखो चांद ढल रहा ढल जायेगा तुम ढलने दो।

© Gyan Prakash Aakul : ज्ञान प्रकाश आकुल

 

शरारत

अब के सावन में ये शरारत मेरे साथ हुई
मेरा घर छोड़ के कुल शहर में बरसात हुई
आप मत पूछिए क्या हम पे सफ़र में गुज़री
था लुटेरों का जहाँ गाँव, वहीं रात हुई

© Gopaldas Neeraj : गोपालदास ‘नीरज’

 

नेताजी का नख-शिख वर्णन

सिर
बेपैंदी के लोटे-सा सिर शोभित
शीश-क्षितिज पर लघु-लघु कुंतल
सूखाग्रस्त क्षेत्र में जैसे
उजड़ी हुई फसल दिखती हो
धवल हिमालय-सा गर्वित सिर
अति उन्नत सिर
वोट मांगते समय स्वयं यों झुक जाता है
सिया-हरण से पूर्व झुका था जैसे रावण
या डसने से पूर्व सर्प जैसे झुकता है
स्वर्ण पट्टिका-सा ललाट है
कनपटियों तक
चंदन-चित्रित चौड़ा माथा
कनपटियों पर रेख उभरती कूटनीति की
माथे पर दुर्भाग्य देश का लिखा हुआ है

कान
सीपी जैसे कान शब्द जय-जय के मोती
कान नहीं ये षडयंत्रों के कुटिल भँवर हैं
एक कान ज्यों विरोधियों के लिए चक्रव्यूह
एक कान ज्यों चुगलखोर चमचे का कमरा!

नयन
रिश्वत के अंजन से अंजित
पर मद-रंजित
दूर किसी ऊँची कुर्सी पर
वर्षों से टकटकी लगाए
गिध्द नयन दो
भौहें हैं ज्यों मंत्री-मंडल की बैठक हो
पलकें ज्यों उद्धाटन मदिरा की दुकान का
अंतरंग कमरे-सी भीतर काली पुतली
पुतली में छोटा-सा गोलक जैसे कुर्सी
क्रोध-कुटिलता कपट कोरकों में बैठे हैं
शर्म न जाने इन ऑंखों में कहाँ छुप गई!

नाक
शहनाई-सी नाक, नफीरी जैसे नथुने
नाक नुकीली में ऊपर से है नकेल
पर नथ करती है
है नेता की नाक, नहीं है ऐरी-गैरी
कई बार कट चुकी किंतु फिर भी अकाटय है!

मुख
होंठ कत्थई इन दोनों होठों का मिलना
कत्थे में डूबा हो जैसे चांद ईद का
चूने जैसे दाँत, जीभ ताम्बूल पत्र-सी
आश्वासन का जर्दा भाषण की सुपाड़ियाँ
नेताजी का मुख है अथवा पानदान है
अधरों पर मुस्कान सितारे जैसे टूटें
बत्तीसी दिखती बत्तीस मोमबत्ती-सी
बड़ा कठिन लोहे के चने चबाना लेकिन
कितने लोहे के पुल चबा लिए
इन दृढ़ दाँतों ने
निगल गई यह जीभ
न जाने कितनी सड़कें
लोल-कपोल गोल मुख-मंडल
मुख पर काला तिल कलंक-सा
चांद उतर आया धरती पर
नेता की सूरत में!

गर्दन
मटके जैसी गरदन पर ढक्कन-सी ठोड़ी
कितनी बार झुकी यह गरदन यह मत पूछो
अनगिन बार उठी है फोटो खिंचवाने को
अनगिन मालाओं का भारी बोझ पड़ा है बेचारी पर

वक्षस्थल
वक्षस्थल चट्टान उठाए पत्थर-सा दिल
त्रिवली-तिकड़म पंथ
पेट की पगडन्डी पर
गुप्त पंथ काले धन का
तस्कर चोरों का
इसी पंथ से लुकते-छिपते धीरे-धीरे
नाभि कुंड में समा गई सभ्यता देश की
जिसको पाकर कटि-प्रदेश फैला थैली-सा!

पेट
पेट वक्ष से बड़ा पेट से बड़ी कमर है
ज्यों-ज्यों बढ़ती है महंगाई
त्यों-त्यों कटि बढ़ती जाती है
सुरसा-हनुमान में होड़ लगी हो जैसे
गोल मेज-सी कमर पर मत पेटी-सा पेट
बहुमत खाकर बहुत सा, गए पलंग पर लेट!

कंधे
कंधों पर गरदन है या गरदन पर कंधे
इन कंधों को देख सांड भी शर्माते हैं
इतना ढोया भार देश का इन कंधों ने
अब ये स्वयं देश को ही भारी पड़ते हैं

हाथ
अजगर जैसी लम्बी बाँहें
चांदी की खुरपी जैसे नाखून
अंगुलियाँ हैं कटार-सी
फिर भी इनके ये कर कमल कहे जाते हैं
इन हाथों से हाथ मिलाना खेल नहीं है
इन हाथों के हस्ताक्षर के सारे अक्षर स्वर्णाक्षर हैं
क्या न किया इन हाथों ने भारत की ख़ातिर
उद्धाटन करते-करते घिस गईं लकीरें
पूरी उम्र न जितनी जेबें काटीं किसी जेबकतरे ने
एक वर्ष में उतने फीते काटे इन कोमल हाथों ने
अवतारों के हाथ हुआ करते घुटनों तक
इनके पिंडली तक लटके हैं

पिंडली-पाँव
विरोधियों के पिंड-दान-सी चुस्त पिंडली
गड़े हुए धन जैसे टखने
नीचे दो सोने की ईंटें
जिन पर जड़े हुए दस मोती
स्वर्ण-चरण को चाट रहे चांदी के चमचे
आचरणों को कौन देखता
चरण बहुत अच्छे हैं
भारत-माता की छाती पर घाव सरीखे दिखते हैं जो
हैं सब चिन्ह इन्हीं चरणों के!

चाल (चलन)
चाल चुनावों से पहले चीते-सी लम्बी
मंत्री मंडल में आने के लिए
साँप-सी टेढ़ी-मेढ़ी
मंत्री पद पा जाने पर
मदमस्त हाथी-सी धीमी-धीमी
गिरगिट जैसा रंग देह का बगुले जैसा वेश
देश ध्यान में ये डूबे हैं, इनमें डूबा देश!

© Omprakash Aditya : ओमप्रकाश ‘आदित्य

 

दीनू

दीनू की क़िस्मत फूटनी थी
सो फूट गई
सरकारी डॉक्टर ने
अल्सर का गोला बाहर निकाला
लेकिन पेट में कैंची छूट गई
कैंची ठहरी सरकारी
सरकार की तरह ही
अड़ियल और बहरी
चुपचाप पड़ी रही
पेट में गड़ी रही

डॉक्टर ने सरकारी फ़र्ज़ निभाया
ऑपरेशन थिएटर के बाहर
ये लिखकर टंगवाया
‘खाली पेट आइए
खाली पेट जाइए
जो मरीज़
जेब में या पेट में
कैंची लेकर जाएगा
उसको
पुलिस के हवाले किया जाएगा।’

पुलिस के डर से दीनू
इधर-उधर छिपता रहा
लेकिन दर्द को कहाँ छिपाए
दर्द की ताक़त तो
बढ़ती ही जाए
और दोबारा सरकारी अस्पताल
इसलिए न जाए
कहीं कैंची निकले
कुछ और न रह जाए
दीनू को
इसी बात का खटका
और इसी खटके ने
उसे
प्राइवेट क्लिनिक में जा पटका
सरकारी से गिरा
प्राइवेट में अटका।

प्राइवेट डॉक्टर ने
ऑपरेशन की फीस
सिर्फ़ दस हज़ार रुपए बताई
दीनू के पास धेला न पाई
उसकी कुल प्रॉपर्टी
एक कटोरा और एक चटाई
चटाई को नीचे बिछाए
-तो गद्दा
और ऊपर ओढ़े
-तो रजाई
दूने ने ही डॉक्टर को
एक सस्ती-सी युक्ति बताई
‘डॉक्टर साहब
पेट काटना महंगा है
तो पेट पर लात मारो
डॉक्टर की लात है हुज़ूर
कैंची निकलेगी ज़रूर
और हुज़ूर
कैंची भी आप ही रख लेना।’
डॉक्टर परेशान
बोला-
‘तू मरीज़ है या शैतान।’
अब डॉक्टर
दीनू का
निचोड़ेबल बिंदु ऑंकने लगा
दस हज़ार से
नीचे को टापने लगा
और दीनू बेचारा
हज़ार के नाम से ही
काँपने लगा

काँपते-काँपते
उठी एक दर्दीली कराह
धड़ाम की आवाज़
फिर एक ठण्डी आह
कैंची पेट से सरक कर
फर्श पर जा गिरी
दीनू बुदबुदाया
कितना दु:ख देती रही ससुरी।

कैंची से मुक्त दीनू
मारे ख़ुशी के नाचने लगा
और डॉक्टर को
कैंची का अपने आप निकल आना
काटने लगा
उसेन अपने
प्राइवेट ज्ञान का पिटारा खोला
और बोला-
‘इसे कहते हैं
डॉक्टरी का चमत्कार
बिना चीर-फाड़
कैंची कर दी बाहर।’

दीनू सकपकाया
‘हुज़ूर!
कैंची तो
अपने-आप आ गिरी
माँस गल गया
पेट में
संभालने की जान ही न रही’
डॉक्टर बोला-
‘अरे मूर्ख
ये गिरी नहीं…
गिराई है
तेरे पेट पर
ये स्टेथॉस्कोप घुमाया था
इसी के कारण बाहर आई है
कर दिया तेरा उपकार
अब ला दस हज़ार।’

दीनू मजबूर
क्लिनिक में हो गया
बंधुआ मजदूर
कहने को चपरासी
लगी थी
पूरे दस हज़ार की फाँसी
डॉक्टर ने
जल्द से जल्द
हिसाब चुकता किया
एक हफ्ते में ही
दीनू को कर्ज़ मुक्त किया।

पहले दिन
निकाली एक ऑंख
दूसरे दिन
दूसरी ऑंख साफ़
तीसरे दिन
हृदय का वाल्व
चौथे दिन गुर्दा
दीनू आधा ज़िन्दा
आधा मुर्दा
अगले दिन
दोनों कान
फिर कुछ और सामान
दीनू हो गया
स्पेयर पार्ट्स की दुकान
इस प्रकार
दीनू के अंग
एक-एक कर निकलते रहे
और उसके ये सस्ते पुर्ज़े
महंगे दाम पर
ऊँचे मरीज़ों को लगते रहे।

अब दीनू बदरंग
पूरा अंग-भंग
आख़िर उसका हृदय भी
किसी के काम आ गया
बाकी का दीनू
कटपीस के भाव चला गया
पंचतत्व में मिलने से पहले ही
दीनू
पूरा का पूरा
दूसरों में समा गया।

आपने देखी ना
दीनी की गत।
न आग, न धुऑं
राम नाम सत
लेकिन
डॉक्टर की चमक गई क़िस्मत
डॉक्टर, दीनू के पुर्जेकरण में
प्रत्यारोपण में
और समापन में
पूरे पाँच लाख कमा गया
और अब दीनू
मारुति वन थाउज़ेंड बन
क्लिनिक के आंगन में आ गया।

अब देखिए
दीनू का डिज़ाइन
-सुपर फाइन
दीनू की पीठ
हो गई मखमली सीट
दीनू के हृदय की धड़कन
हो गई फौलादी इंजन।

दीनू ने पकड़ ली
ज़माने की रफ्तार
ख़ुश है- दीनू पर सवार
डॉक्टर का परिवार
आधुनिक युग का कैसा चमत्कार
हॉर्न-सी बजती है
दीनू की पुकार
म्यूज़िकल हो गई
उसकी हाहाकार
टकसाली हो गया
दीनू का संहार।

कलयुगी सभ्यता का
सलोना विस्तार
इंसानी अंगों का
घिनौना व्यापार।

© Baghi Chacha : बाग़ी चाचा

 

विकास

एक कमरा था
जिसमें मैं रहता था
माँ-बाप के संग
घर बड़ा था
इसलिए इस कमी को
पूरा करने के लिए
मेहमान बुला लेते थे हम!

फिर विकास का फैलाव आया
विकास उस कमरे में नहीं समा पाया
जो चादर पूरे परिवार के लिए बड़ी पड़ती थी
उस चादर से बड़े हो गए
हमारे हर एक के पाँव
लोग झूठ कहते हैं
कि दीवारों में दरारें पड़ती हैं
हक़ीक़त यही
कि जब दरारें पड़ती हैं
तब दीवारें बनती हैं!
पहले हम सब लोग दीवारों के बीच में रहते थे
अब हमारे बीच में दीवारें आ गईं
यह समृध्दि मुझे पता नहीं कहाँ पहुँचा गई
पहले मैं माँ-बाप के साथ रहता था
अब माँ-बाप मेरे साथ रहते हैं

फिर हमने बना लिया एक मकान
एक कमरा अपने लिए
एक-एक कमरा बच्चों के लिए
एक वो छोटा-सा ड्राइंगरूम
उन लोगों के लिए जो मेरे आगे हाथ जोड़ते थे
एक वो अन्दर बड़ा-सा ड्राइंगरूम
उन लोगों के लिए
जिनके आगे मैं हाथ जोड़ता हूँ

पहले मैं फुसफुसाता था
तो घर के लोग जाग जाते थे
मैं करवट भी बदलता था
तो घर के लोग सो नहीं पाते थे
और अब!
जिन दरारों की वहज से दीवारें बनी थीं
उन दीवारों में भी दरारें पड़ गई हैं।
अब मैं चीख़ता हूँ
तो बग़ल के कमरे से
ठहाके की आवाज़ सुनाई देती है
और मैं सोच नहीं पाता हूँ
कि मेरी चीख़ की वजह से
वहाँ ठहाके लग रहे हैं
या उन ठहाकों की वजह से
मैं चीख रहा हूँ!

आदमी पहुँच गया हैं चांद तक
पहुँचना चाहता है मंगल तक
पर नहीं पहुँच पाता सगे भाई के दरवाज़े तक
अब हमारा पता तो एक रहता है
पर हमें एक-दूसरे का पता नहीं रहता

और आज मैं सोचता हूँ
जिस समृध्दि की ऊँचाई पर मैं बैठा हूँ
उसके लिए मैंने कितनी बड़ी खोदी हैं खाइयाँ

अब मुझे अपने बाप की बेटी से
अपनी बेटी अच्छी लगती है
अब मुझे अपने बाप के बेटे से
अपना बेटा अच्छा लगता है
पहले मैं माँ-बाप के साथ रहता था
अब माँ-बाप मेरे साथ रहते हैं
अब मेरा बेटा भी कमा रहा है
कल मुझे उसके साथ रहना पड़ेगा
और हक़ीक़त यही है दोस्तों
तमाचा मैंने मारा है
तमाचा मुझे खाना भी पड़ेगा

© Surendra Sharma : सुरेंद्र शर्मा

 

गुरु और शिष्य

गुरु ने चेले से कहा लेटे-लेटे-
कि उठ के पता लगाओ
बरसात हो रही है या नहीं बेटे
तो चेले ने कहा-
ये बिल्ली अभी-अभी बहार से आई है
इसके ऊपर हाथ फेर कर देख लीजिये
अगर भीगी हुई हो तो
बरसात हो रही है समझ लीजिये।

गुरु ने दूसरा काम कहा
कि सोने का समय हुआ
ज़रा दीया तो बुझा दे बचुआ
बचुआ बोला-
आप आंखें बंद कर लीजिये
दीया बुझ गया समझ लीजिये।

अंत में गुरु ने कहा हारकर
कि उठ किवाड़ तो बंद कर
तो शिष्य ने कहा कि गुरुवर
थोड़ा तो न्याय कीजिये
दो काम मैंने किये हैं
एक काम तो आप भी कर दीजिये।

© Aash Karan Atal : आशकरण अटल

 

दधीचि

ये लो
सम्भालो मेरी अस्थियाँ
कर लो वज्र का निर्माण
नहीं रह पाओगे नपुंसक
जो भी आसुरी है
लग जाएगा ठिकाने
सूत्रपात होगा
नए कल्पान्तर का!

© Jagdish Savita : जगदीश सविता

 

ज़माना देखता रह जाएगा

सिर्फ़ हैरत से ज़माना देखता रह जाएगा
बाद मरने के कहाँ किसका पता रह जाएगा

अपने-अपने हौसले की बात सब करते रहे
ये मगर किसको पता था सब धरा रह जाएगा

तुम सियासत को हसीं सपना बना लोगे अगर
फिर तुम्हें जो भी दिखेगा क्या नया रह जाएगा

मंज़िलों की जुस्तजू में बढ़ रहा है हर कोई
मंज़िलें गर मिल गईं तो बाक़ी क्या रह जाएगा

‘मीत’ जब पहचान लोगे दर्द दिल के घाव का
फिर कहाँ दोनों में कोई फ़ासला रह जाएगा

© Anil Verma Meet : अनिल वर्मा ‘मीत’