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कवि

एक विचार
बीज रूप में
गिरा उस कोख में
गर्भ ठहरा
मथती रही अभिव्यक्ति
उसे जन्म लेने के लिए।
न शब्द था संग
न अर्थ थे
थे केवल कोरे विचार
बिलख रही कोख में
बन्धया अभिव्यक्ति
अर्थ पाने के लिए।
गर्भवती माँ की पीड़ा
आज समझ पाया था
एक गर्भ धारक कवि…!

© Ashish Kumar Anshu : आशीष कुमार ‘अंशु’

 

अश्वत्थामा

किंवदंती है कि अश्वत्थामा अमर है। छल से उसने द्रौपदी के पाँच नन्हे-निरीह शिशुओं का वध किया तो पाण्डवों ने दण्ड स्वरूप उसकी मस्तक मणि को निकाल लिया। मर वह सकता नहीं था।

कहते हैं आज भी कमण्डल में रखे लेप से उस अगम घाव को भरता इधर-उधर भटकता रहता है। कुछ का कहना है कि उन्होंने देखा है, उनसे मिला है।

मुझे-
अमरता को मेरी
शापित करने से पूर्व
-बताया जाए
कब किस दुर्योधन से-
किस पांचाली के निरीह शिशुओं का
मैंने रक्त बहा
-मित्रता निभाई?
मेरे कारण
बोलो
कब, किस धर्मराज का गला अंगूठा?

फिर मुझको क्यों दिया जा रहा
यह कठोर दुस्सह दण्ड?
न छीनो
हाय! न छीनो
मेरी मस्तक मणि को!
यह तो ज्ञात तुम्हें भी है कि
मैं मरने वालों में नहीं

मगर
यह घाव अगम
क्या कभी भरेगा?
हो पाएगा रिक्त कमण्डल
कभी लेप से?
छिन दो छिन को ही सही
पड़ेगा चैन कभी पीड़ा को?

या मैं युगों-युगों तक
सारे जग से आँख चुराए
पर्वत-पर्वत
घाटी-घाटी
यूँ ही भ्रमता फिरूँ
झल्लाता!

© Jagdish Savita : जगदीश सविता

 

 

महाकाव्य

रामायण-
कहानी है भले मानुषों की
इसका तो रावण तक
ख़ासा मर्यादित है

पात्र हैं महाभारत के
एक से बढ़ कर एक
लम्पट शान्तनु
कुण्ठाओं का गट्ठड़ भीष्म
भाड़े का टट्टू द्रोण
और निरीह शिशुओं का हत्यारा
उसका कुलदीपक,
दूरदर्शी संजय
अन्धा धृतराष्ट्र
फूट चुकी थीं जिसकी
हिये की भी!

गान्धारी
जिसकी आँखों पर
वाकई पट्टी बंधी थी
कुँआरी माँ कुन्ती
पाँच भाइयों की कॉमन प्रॉपर्टी पांचाली
सत्ता के नशे में चूर दुर्योधन
और उसका महा उस्ताद मामा
मुँह की खाने वाला दानवीर
बिना सोचे-समझे
चक्रव्यूह में कूद जाने वाला अभिमन्यु
धर्मी-कर्मी युधिष्ठिर
पहलवान भीम
नपुंसक धनुर्धारी
और उसकी गाड़ी खींच ले जाने वाला
छलिया कृष्ण
जिसे भगवान मान लेने में ही ख़ैर
लड़ाई में खेत हुए कौरव
जीत के बाद भी
गल-गल मरने वाले पाण्डव
ये सभी
मानो चिल्ला-चिल्ला कर कह रहे हों-
”हम आज भी हैं
महाभारत कभी ख़त्म नहीं होता…”

© Jagdish Savita : जगदीश सविता

 

अनर्गल

अनर्गल बताकर मेरे प्रश्नों को
अक्सर कह देते हैं लोग
कि महज पागलपन हैं
मेरे ये प्रश्न।

क्योंकि अक्सर सोचती हूँ मैं
कि कैसा लगता होगा रोटी को
जब कोई
चबा जाता होगा उसे
आड़ा-तिरछा तोड़कर

कैसे छटपटाती होगी
सफेद साँचे में ढली सिगरेट
जब उड़ा देता होगा कोई
उसके सम्पूर्ण अस्तित्व को
धुएँ के साथ
और फिर होठों से हटा
पैरों तले कुचलकर
बढ़ जाता होगा आगे

….हम्मम!
शायद
पागल ही हो गई हूँ मैं।

© Sandhya Garg : संध्या गर्ग

 

यशोधरा

अब की बार
निशाने पर थे तथागत!
पूरा प्रबन्ध काव्य रचा गया
सशक्त और छन्दोबद्ध भाषा में
सिद्ध कर दिया
कि भटक गया था वह
बुद्ध हो कर भी रहा अधूरा
सम्पूर्ण थी केवल यशोधरा
अपने दुधमुँहे के साथ!

© Jagdish Savita : जगदीश सविता

 

चंद सस्ती ख्वाहिशों पर सब लुटाकर मर गईं

चंद सस्ती ख्वाहिशों पर सब लुटाकर मर गईं
नेकियाँ ख़ुदगर्ज़ियों के पास आकर मर गईं

जिनके दम पर ज़िन्दगी जीते रहे हम उम्र भर
अंत में वो ख्वाहिशें भी डबडबाकर मर गईं

बदनसीबी, साज़िशें, दुश्वारियाँ, मातो-शिक़स्त
जीत की चाहत के आगे कसमसाकर मर गईं

मीरो-ग़ालिब रो रहे थे रात उनकी लाश पर
चंद ग़ज़लें चुटकुलों के बीच आकर मर गईं

वो लम्हा जब झूठ की महफ़िल में सच दाखिल हुआ
साज़िशें उस एक पल में हड़बड़ा कर मर गईं

क्या इसी पल के लिए करता था गुलशन इंतज़ार
जब बहार आई तो कलियाँ खिलखिला कर मर गईं

जिन दीयों में तेल कम था, उन दीयों की रोशनी
तेज़ चमकी और पल में डगमगा कर मर गईं

दिल कहे है- प्रेम में उतरी तो मीरा जी उठीं
अक्ल बोले- बावरी थीं, दिल लगाकर मर गईं

ये ज़माने की हक़ीक़त है, बदल सकती नहीं
बिल्लियाँ शेरों को सारे गुर सिखाकर मर गईं

© Chirag Jain : चिराग़ जैन

 

मूल्य

हाँ!
हार गई हूँ मैं
क्योंकि मैंने
सम्बन्धों को जिया
और तुमने
उनसे छल किया,
केवल छल।

हाँ!
हार गई मैं
क्योंकि
सत्य ही रहा
मेरा आधार
और तुमने
हमेशा झूठ से करना चाहा
जीवन का शृंगार।

क्योंकि
मैंने हमेशा
प्रयास किया
कुछ मूल्यों को
बचाने का
और तुमने
ख़रीद लिया
उन्हें भी मूल्य देकर!

हाँ!
सबने यही जाना
कि जीत गए हो तुम
पर उस हार के
गहन एकाकी क्षणों में भी
मैंने
नहीं चाहा कभी
कि ‘मैं’
‘तुम’ हो जाऊँ

….और यही
मेरी सबसे बड़ी जीत है।

© Sandhya Garg : संध्या गर्ग

 

उलाहना

महक चुकीं
लड़ियाँ पलास की
अब आये हो?

बिन साजन
मन कितना रोया
क्या बतलाऊं;
मन की बातें
मन में रखकर
भी पछताऊँ।

कितनी बार
पीर सुनकर भी
मुसकाये हो!

फागुन बीता
कुसुम महक कर
टूट चुके हैं;
हर डाली से
नूतन किसलय
फूट चुके हैं।

दग्ध हो चुकी
अब जाकर तुम
जल लाये हो!

© Gyan Prakash Aakul : ज्ञान प्रकाश आकुल

 

कॉन्ट्रेक्ट

सहज ही कह बैठे थे तुम
समझाने के लहजे में-
“रिश्ते को बचाने के लिए
झुक कर माफ़ी मांग लेना
कहीं बेहतर है
रिश्ते के टूट जाने से!
ग़लती न हो
तो भी मांग लेनी चाहिए माफ़ी
कम-से-कम
चलता तो रहता है रिश्ता!”

सुनकर
विरोध किया था मन ने
तुम्हारी इस धारणा का!
फिर गूंजा एक प्रतिप्रश्न
मेरे भीतर-
क्या रिश्ते भी
कॉन्ट्रेक्ट हैं कोई
जिसकी अवधि
बढ़ाई जा सके
एक और स्टैम्प लगाकर?

© Sandhya Garg : संध्या गर्ग

 

अक्कड़-बक्कड़

अक्कड़-बक्कड़ हो-हो-हो

पास न धेला
फिर भी मेला
देखें फक्कड़ हो-हो-हो

भूखा दूल्हा
सूखा चूल्हा
गीला लक्कड़ हो-हो-हो

मुँह तो खोलो
कुछ तो बोलो
बोला मक्कड़ हो-हो-हो

मांगा आलू
लाए भालू
बड़े भुलक्कड़ हो-हो-हो

छोड़ो खीरा
देके चीरा
खाओ कक्कड़ हो-हो-हो

© Ajay Janamjay : अजय जनमेजय