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संज्ञा का अपमान

एक विशेषण की चाहत में
संज्ञा का अपमान किया है
लाए को अनदेखा कर के
पाए पर अभिमान किया है

अभिलाषा के रथ पर फहरी
स्पर्धा की उत्तुंग ध्वजा है
लोभ बुझे तीरों से भरकर
लिप्सा का तूणीर सजा है
अपना ही सुख खेत हुआ है
कैसा शर संधान किया है

जीवन को वरदान मिला है
श्वास किसी की दासी कब है
मीठे जल से ना बुझ पाए
तृष्णा इतनी प्यासी कब है
निश्चित की आश्वस्ति बिसारी
संभव का अनुमान किया है

मानव होना बहुत न जाना
जाने क्या से क्या बन बैठा
कभी दरोगा, कभी नियामक
और कभी धन्ना बन बैठा
संतुष्टि का अमृत तजकर
कुंठा का विषपान किया है

भोर न जानी, रैन न देखी
दिन भर की है भागा-दौड़ी
सुख के पल खोकर जो जोड़ी
छूट गई हर फूटी कौड़ी
अपने जीवन के राजा ने
औरों को श्रमदान किया है

© Chirag Jain : चिराग़ जैन