आदमी मर गया कभी का
पीढ़ियाँ ज़िन्दा हैं
सूरज बुझ जाएगा एक दिन
पर आकाश अमर है
सूरज के बिना
वह आकाश कैसा होगा!
Vishnu Prabhakar : विष्णु प्रभाकर
आदमी मर गया कभी का
पीढ़ियाँ ज़िन्दा हैं
सूरज बुझ जाएगा एक दिन
पर आकाश अमर है
सूरज के बिना
वह आकाश कैसा होगा!
Vishnu Prabhakar : विष्णु प्रभाकर
त्रास देता है जो
वह हँसता है
त्रसित है जो
वह रोता है
कितनी निकटता है
हँसने और रोने में
© Vishnu Prabhakar : विष्णु प्रभाकर
न्याय मिलता नहीं है
विवेक से
सत्य और असत्य के।
मिलता नहीं है वह दुरन्त
मानवीय भावना में
साक्षी-
केवल साक्षी है आधार
उसके आस्तित्व का
और बाज़ार पटे पड़े हैं
असंख्य अनाहूत साक्षियों से।
कितना सुलभ है न्याय
महंगाई के इस युग में।
Vishnu Prabhakar : विष्णु प्रभाकर
प्रेम क्या है
रतिक्रिया-
अथवा आत्मरति
महत्वकांक्षा
घृणा
या व्यापार मानस मंथन का
अथवा पाना स्वयं को दूसरे में
सुनो-सुनो
मैं भुजा उठाकर कहता हूँ
सुनो, प्रेम है
लघुत्तम समापवर्त्य
इन सबका
© Vishnu Prabhakar : विष्णु प्रभाकर
ह-से-मुँह मिलाकर
बोले वह
बुर्र बुर्र बुर्र
कानाबाती कुर्र कुर्र कुर्र
टीली-लीली झर्र-झर्र-झर्र
अरे रे रे
दुर्र दुर्र दुर्र
© Vishnu Prabhakar : विष्णु प्रभाकर
चुके हुए लोगों से
ख़तरनाक़ हैं
बिके हुए लोग
वे
करते हैं व्यभिचार
अपनी ही प्रतिभा से
© Vishnu Prabhakar : विष्णु प्रभाकर
मैंने उसकी कविता पढ़ी
शब्द थे केवल उन्नीस
पर मैं डूबा तो-
डूबता ही चला गया-
अवश, अबोल, आकंठ।
© Vishnu Prabhakar : विष्णु प्रभाकर
भावुक प्रेम
नहीं…
हूँ.…
और एक सुबकी
तारे, पानी की बूँदें दो-चार
ये तत्त्व हैं उस बहुप्रशिंसित प्रेम के
जो उफनता है
और उफनता ही रहता है
किसी भावुक हृदय में
और भावुकता का नशा
मात्र शराब का
जो चढ़ता है उतरने को
और तोड़ देता है
तन को
मन को
© Vishnu Prabhakar : विष्णु प्रभाकर