टुकड़ों में आंगन है

टुकड़ों में आंगन है लेकिन, पानी बहकर आ जाता है। भौजाई की चोली अक्सर हवा उड़ा कर ले आती है, और भतीजी खाते-खाते जूठन इधर गिरा जाती है, एक महीने बाद पिताजी का भी बिस्तर आ जाता है। चप्पल कभी उधर से मिलती चप्पल मगर कहां जाती है, पर आंखें चुगली करती हैं चुपके चुपके मां जाती है, और उधर का आंगन चप्पल तले चिपककर आ जाता है। अगर इधर से दर्द गया तो पीड़ा सदा उधर से आयी, कमरा इधर हँसा तो खिड़की उधर हमेशा ही मुसकायी, आँखों के सवाल का आँखों से ही उत्तर आ जाता है। © Gyan Prakash Aakul : ज्ञान प्रकाश आकुल