उलाहना

महक चुकीं
लड़ियाँ पलास की
अब आये हो?

बिन साजन
मन कितना रोया
क्या बतलाऊं;
मन की बातें
मन में रखकर
भी पछताऊँ।

कितनी बार
पीर सुनकर भी
मुसकाये हो!

फागुन बीता
कुसुम महक कर
टूट चुके हैं;
हर डाली से
नूतन किसलय
फूट चुके हैं।

दग्ध हो चुकी
अब जाकर तुम
जल लाये हो!

© Gyan Prakash Aakul : ज्ञान प्रकाश आकुल