विद्रोह का स्वर

एक बहरे देवता की देहरी पर सर पटककर कुछ अभागी प्रार्थनाएं बन रहीं विद्रोह का स्वर लोचनों ने तब बिलखकर जम चुकी श्रद्धा बहायी होम के उठते धुएं से जब चिता की गंध आयी हाथ में जो फूल थे वे बन चुके थे आज पत्थर कुछ अभागी प्रार्थनाएं बन रहीं विद्रोह का स्वर आज आशा के महल में जब निराशा खूब नाची अग्निधर्मा हो गये सब पीर के पर्यायवाची प्रश्न अपना कद बढ़ाकर कर रहे सब को निरुत्तर कुछ अभागी प्रार्थनाएं बन रहीं विद्रोह का स्वर एक पत्थर तुम उठाओ एक पत्थर हम उठायें फिर चमकते उस गगन से कुछ सितारे तोड़ लायें और फिर उनको बिछा दें इस डगर पर उस डगर पर कुछ अभागी प्रार्थनाएं बन रहीं विद्रोह का स्वर। © Gyan Prakash Aakul : ज्ञान प्रकाश आकुल