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द्रोण

आचार्य था
मगर ट्यूशनिया
राजकुमारों से आगे न निकल जाए कोई!
उसे तो तुमने नहीं सिखाया
धनुर्विद्या का ‘क’ ‘ख’ भी
मगर वाह रे भील बालक
तुम नहीं थे
तो तुम्हारी मूर्ति को ही पूजता रहा
और तुम्हीं ने
गुरु दक्षिणा का स्वांग रच
कटवा डाला उसका अंगूठा!
इसीलिए ना!
कि कहीं पिछड़ न जाए तुम्हारा टॉपर

और जब पाण्डव हो गए खल्लास
तो कौरवों की कमान संभाल ली
वहाँ बेटे अश्वत्थामा को भी
मिल गया काम!
वाह गुरु वाह
मारे भी गए तो
अपने एक चहेते चेले के हाथों
सम्मान पूर्वक!

© Jagdish Savita : जगदीश सविता

 

यक्ष

जानता था
चारों मृतकों का कोई अपना
आएगा
मेरे प्रश्नों के उत्तर लेकर
तैयार भी बैठा था
उसके प्रश्नों के उत्तरों के लिए

उसने कोई प्रश्न नहीं पूछा
उसे जल्दी थी
अपनी माँ की प्यास बुझाने की
उससे भी अधिक आतुरता थी
चिन्ता थी
चारों मृतकों में प्राण फूँकने की
उस प्रायौगिक परीक्षा में भी
वह पूरा उतरा
लेकर चला गया
अपनी माँ और भाइयों को

मैं बैठा सोचता रहा
बड़ा प्रश्न कर्त्ता नहीं होता
उत्तरदाता होता है बड़ा
वह सचमुच धर्मराज था
जो बिना उंगली उठाए
बिना प्रश्नचिन्ह लगाए
चला गया
चुप-चाप

© Jagdish Savita : जगदीश सविता