कक्षा से भटका हुआ उपग्रह हूँ

मैं धरा-गगन दोनों से छूट गया संपर्क संचरण-ध्रुव से टूट गया कक्षा से भटका हुआ उपग्रह हूँ गिरना तो निश्चित है लेकिन कब, कहाँ, कौन जाने उल्काओं से टकराकर टूटूंगा या सागर में गिरकर बुझना होगा जलना होगा या धूमकेतु बनकर या मरुथल के उर में धँसना होगा आकर्ष-विकर्षण सबको दुस्सह हूँ थिरना तो निश्चित है लेकिन कब, कहाँ, कौन जाने पर्वत पर शीश पटकना होगा या घाटी के उर में था बनानी है आकाश-कुसुम की संज्ञा मिलनी है या शून्य गुहा में राह बनानी है मैं वायु और जल सबको दुर्वह हूँ सिरना तो निश्चित है लेकिन कब, कहाँ, कौन जाने © Dhananjaya Singh : धनंजय सिंह