सागर की भाषा

सुना है जिसके पास जो कुछ होता है वही तो वह दे सकता है देता है घृणा हो या प्यार- लेकिन क्या तुम जानते हो क्या होता है तब जब अर्पित कर देती है अपना सर्वस्व, अपना माधुर्य दुहिताएँ ‘हिमशिखरों’ की उस सागर को जो अथाह है जो ओत-प्रोत है क्षार और लवण से क्या वह देता है अपना लवण-क्षार उन नदियों को? नहीं। वह तो उनके जल को बना देता है और भी मधुर और भी पवित्र और बरस जाता है, घटा बन कर उन खेतों पर खलिहानों पर नगरों पर, शिखरों पर जो जुड़े थे या नहीं जुड़े थे उन सरिताओं से जो समर्पित हो गई थी उसे अकुण्ठ भाव से। क्या तुम्हें ऐसा नहीं लगता कि समुद्र नहीं जानता भाषा मनुष्य की। वह अपना क्षार अपने तक ही सीमित रखता है और प्रमाणित करता है इस सत्य को कि जो कुछ तुम देते हो वही तो लौटता है और भी पुष्ट होकर काश! इक्क्सवीं सदी का कम्प्यूटर-मानव सीख सके भाषा यह समुद्र की। © Vishnu Prabhakar : विष्णु प्रभाकर