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ये चार काग़ज़, ये लफ्ज़ ढाई

ये चार काग़ज़, ये लफ्ज़ ढाई
है उम्र भर की यही कमाई

किसी ने हम पर जिगर उलीचा
किसी ने हमसे नज़र चुराई

दिया ख़ुदा ने भी ख़ूब हमको
लुटाई हमने भी पाई-पाई

न जीत पाए, न हार मानी
यही कहानी, ग़ज़ल, रुबाई

न पूछ कैसे कटे हैं ये दिन
न माँग रातों की यूँ सफाई

© Naresh Shandilya : नरेश शांडिल्य

 

ये हवा, ये धूप, ये बरसात पहले-सी नहीं

ये हवा, ये धूप, ये बरसात पहले-सी नहीं
दिन नहीं पहले से अब ये रात पहले-सी नहीं

आज क्यों हर आदमी बदनाम आता है नज़र
आज क्यों हर आदमी की ज़ात पहले-सी नहीं

किसलिए रट हाय-हाय की लगी है हर तरफ़
क्यों हमारे दिल-जिगर में बात पहले-सी नहीं

अब कहाँ वो ज़हर के प्याले, कहाँ मीरा कहो
प्रेम की बाज़ी में क्यों शह-मात पहले-सी नहीं

उनकी चौखट ने नहीं क्यों आज पहचाना मुझे
क्या मेरी हस्ती मेरी औक़ात पहले-सी नहीं

© Naresh Shandilya : नरेश शांडिल्य