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Arun Gemini : अरुण जैमिनी


नाम : अरुण जैमिनी
जन्म : 22 अप्रैल 1959; नई दिल्ली
शिक्षा : स्नातकोत्तर (जनसंचार एवं पत्रकारिता)

पुरस्कार एवं सम्मान
हरियाणा गौरव
काका हाथरसी सम्मान
टेपा सम्मान
ओमप्रकाश आदित्य सम्मान

प्रकाशन
फिलहाल इतना ही
हास्य व्यंग्य की शिखर कवितायेँ

निवास : नई दिल्ली


22 अप्रैल 1959 को जन्मे अरुण जैमिनी को कविता की समझ और कविता की प्रस्तुति का कौशल विरासत में मिला। पारिवारिक माहौल में कविता इतनी रची बसी थी कि कब वे देश के लोकप्रिय कवि हो गए, पता ही न चला। आपके पिता श्री जैमिनी हरियाणवी हिन्दी कविता की वाचिक परम्परा में हास्य विधा के श्रेष्ठ हस्ताक्षर माने जाते हैं। उन्हीं की परंपरा को आगे बढ़ाते हुए, हरियाणवी लोक शैली को आधार बनाकर विशुद्ध हास्य से ज़रा-सा आगे बढ़ते हुए व्यंग्य की रेखा पर खड़े होकर आप काव्य रचना करते हैं। मंचीय प्रस्तुति और प्रत्युत्पन्न मति के आधार पर आप हास्य कविता के वर्तमान दौर की प्रथम पंक्ति में खड़े दिखाई देते हैं।
हास्य की फुलझड़ियों के माध्यम से घण्टों श्रोताओं को बांधने का हुनर आपके व्यक्तित्व का प्रमुख अंग है। बेहतरीन मंच-संचालन तथा तर्काधारित त्वरित संवाद आपके काव्य-पाठ को अतीव रोचक बना देता है।
आपकी विधिवत शिक्षा स्नातकोत्तर तक हुई। पूरे भारत के साथ ही विदेशों में भी दर्जनों कवि-सम्मेलन में आपने काव्य पाठ किया है। ओमप्रकाश आदित्य सम्मान और काका हाथरसी हास्य रत्न पुरस्कार के साथ अनेक पुरस्कार व सम्मान आपके खाते में दर्ज हैं। आपका एक काव्य संग्रह ‘फ़िलहाल इतना ही’ के नाम से बाज़ार में उपलब्ध है। हास्य के पाताल से प्रारंभ होकर दर्शन, राष्ट्रभक्ति और संवेदना के चरम तक पहुँचने वाला आपका बौद्धिक कॅनवास आपको अन्य हास्य कवियों से अलग करता है।

Anju Jain : अंजू जैन


नाम : अंजू जैन
जन्म : 30 अक्टूबर 1968
शिक्षा : पीएच.डी.

निवास : ग़ज़ियाबाद

गीत की संवेदना को सकारात्मकता की ऊर्जा से संवारकर कलमबद्ध करने में डॉ अंजू जैन का कोई सानी नहीं है. शिष्टता और शालीनता की देहरी का सम्मान करती अंजू जी की लेखनी न केवल ऊर्जा देती है बल्कि थके हारे जीवन को नवल संचरण भी उपलब्ध कराती है. अंजू जी की कविता कभी गोपाल सिंह नेपाली की तरह जीवन की संजीवनी बन जाती है तो कभी सुभद्राकुमारी चौहान की तरह शौर्य का प्रतिबिम्ब उकेर देती है.

Anil Verma Meet : अनिल वर्मा ‘मीत’


नाम : अनिल वर्मा ‘मीत’
जन्म : 1962

निवास : नई दिल्ली


व्यंग्य और ग़ज़ल के एक अद्भुत सम्मिश्रण का नाम है अनिल वर्मा ‘मीत’. शायरी को वे न केवल जीते हैं बल्कि हर लिखने वाले का अपने अंतर्मन से सम्मान भी करते हैं. साहित्यिक गतिविधियों के आयोजन और संयोजन के लिए अनवरत प्रयासरत रहने वाले अनिल मीत अपना तन-मन-धन साहित्य सेवा को समर्पित कर चुके हैं.

Ameer Khusro : अमीर ख़ुसरो


नाम : अबुल हसन यमीनुदीन खुसरो
जन्म : 1253; बदायूँ

निधन : 1325


1253 में उत्तर प्रदेश के बदायूँ में जन्मे अमीर ख़ुसरो के पिता अमीर सैफ़ुद्दीन अफ़गानिस्तान के बल्ख़ नामक स्थान से आए थे। हिंदी के इस प्रथम कवि ने सात वर्ष की छोटी सी आयु में पिता को खो दिया और अपनी माँ के साथ दिल्ली (अपनी ननिहाल) चले आए। सन् 1271 में आपका पहला दीवान प्रकाशित हुआ। सन् 1272 में आप बलबन के दरबार में दरबारी कवि नियुक्त हुए। 1279 में अपने दूसरे क़लाम वस्तुल-हयात के लेखन के दौरान आपने बंगाल की यात्रा की। 1281 में आप बलबन के दूसरे पुत्र सुल्तान मुहम्मद के दरबार में नियुक्त हुए और सुल्तान के साथ मुल्तान की यात्रा की। 1285 में आपने मंगोलों के ख़िलाफ़ लड़ाई भी लड़ी और गिरफ़्तार भी हुए, लेकिन जल्द ही रिहा कर दिये गये। इसके बाद निज़मुद्दीन औलिया, अलाउद्दीन ख़िलजी, मुबारक़ ख़िलजी और मुहम्मद बिन तुगलक़ जैसे सुल्तानों की कहानी की गवाही देते हुए 72 वर्ष की आयु में सन् 1325 में आपका निधन हो गया।

आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने आपका परिचय देते हुए लिखा है- “पृथ्वीराज की मृत्यु (संवत् 1249) के 90 वर्ष पीछे ख़ुसरो ने संवत् 1340 के आसपास रचना आरंभ की। इन्होंने गयासुद्दीन बलबन से लेकर अलाउद्दीन और क़ुतुबुद्दीन मुबारक़शाह तक कई पठान बादशाहों का ज़माना देखा था। ये फारसी के बहुत अच्छे ग्रंथकार और अपने समय के नामी कवि थे। इनकी मृत्यु संवत् 1381 में हुई। ये बड़े ही विनोदी, मिलनसार और सहृदय थे, इसी से जनता की सब बातों में पूरा योग देना चाहते थे। जिस ढंग से दोहे, तुकबंदियाँ और पहेलियाँ आदि साधारण जनता की बोलचाल में इन्हें प्रचलित मिलीं उसी ढंग से पद्य, पहेलियाँ आदि कहने की उत्कंठा इन्हें भी हुई। इनकी पहेलियाँ और मुकरियाँ प्रसिद्ध हैं। इनमें उक्ति वैचित्र्य की प्रधानता थी, यद्यपि कुछ रसीले गीत और दोहे भी इन्होंने कहे हैं।

यहाँ इस बात की ओर ध्यान दिला देना आवश्यक प्रतीत होता है कि ‘काव्य-भाषा’ का ढाँचा अधिकतर शौरसेनी या पुरानी ब्रजभाषा का ही बहुत काल से चला आता था। अत: जिन पश्चिमी प्रदेशों की बोलचाल खड़ी होती थी, उनमें जनता के बीच प्रचलित पद्यों, तुकबंदियों आदि की भाषा ब्रजभाषा की ओर झुकी हुई रहती थी। अब भी यह बात पाई जाती है। इसी से ख़ुसरो की हिन्दी रचनाओं में भी दो प्रकार की भाषा पाई जाती है। ठेठ खड़ी बोलचाल, पहेलियों, मुकरियों और दो सखुनों में ही मिलती है- यद्यपि उनमें भी कहीं-कहीं ब्रज भाषा की झलक है। पर गीतों और दोहों की भाषा ब्रज या मुखप्रचलित काव्यभाषा ही है। यह ब्रजभाषापन देख उर्दू साहित्य के इतिहास लेखक प्रो. आज़ाद को यह भ्रम हुआ था कि ब्रजभाषा से खड़ी बोली (अर्थात् उसका अरबी-फारसी ग्रस्त रूप उर्दू) निकल पड़ी।”