Tag Archives: Uttar Pradesh

Jagdish Savita : जगदीश सविता

नाम : जगदीश सविता
जन्म : 26 मार्च 1934 देवबंद (उत्तर प्रदेश)
शिक्षा : स्नातकोत्तर (अंग्रेजी तथा राजनीति शास्त्र)

प्रकाशन
अतीत के प्रेत
चुहल चम्पा
संगीतमयी आओ!
परिभाषित

निवास : मुज़फ्फरनगर

26 मार्च 1934 को देवबंद (उत्तर प्रदेश) में जन्मे जगदीश सविता अंग्रेजी तथा राजनीति शास्त्र से स्नातकोत्तर तक शिक्षाध्ययन करने के उपरांत अध्यापन से जुड़े। आपने भारतीय रेल में भी कुछ समय तक कार्य किया किंतु अंततः मुज़फ़्फ़रनगर के सनातन धर्म स्नातकोत्तर महाविद्यालय के अंग्रेजी विभाग में नियुक्त हुए और वहीं से
सन् 1994 में रीडर के पर से सेवानिवृत्त हुए। आपने जलंधर के डीएवी कॉलेज तथा मुरैना के अंबा कॉलेज में भी कुछ समय तक पढ़ाया।

यदि आपके जीवन को एक शब्द में पारिभाषित किया जाए तो वह शब्द होगा- “अध्ययन”! अंग्रेजी और हिंदी ही नहीं अन्य भी तमाम भाषों के साहित्यकारों से ख़ूब परिचय किया है जगदीश जी ने। सैंकड़ों शोध कराने के साथ ही आपकी अध्ययनशील प्रवृत्ति ने आपको ज्ञान का भण्डार दिया है। भाषा की संवेदना को समझ
कर उसके मर्म को स्पर्श करते हुए साहित्य और साहितकारों को समझना आपका विशेष गुण है।

इतिहास, आध्यात्म और विविध संस्कृतियों में व्याप्त मिथक विधान को समझ कर उनको नए आयाम पर ला खड़ा करना कदाचित् आपका प्रिय शौक़ है। आधुनिकता और परंपरा के मध्य सेतु-नुर्माण का कार्य हो या फिर नितांत निजी क्षणों को लयबद्ध करना हो; आपकी लेखनी ने सब कुछ पूरी बेबाक़ी से किया है।

आपकी निज के प्रति उदासीनता का प्रमाण यह है कि ‘अतीत के प्रेत’ आपका प्रथम काव्य संग्रह है, जो 76 वर्ष की आयु में प्रकाशित हुआ।

 

 

Ramavtar Tyagi : रामावतार त्यागी

नाम : रामावतार त्यागी
जन्म : मार्च 1925; मुरादाबाद (उत्तर प्रदेश)

निधन : 12 अप्रेल 1985

मार्च 1925 में उत्तर प्रदेश के मुरादाबाद ज़िले के संभल तहसील में जन्मे रामावतार त्यागी जी दिल्ली विश्वविद्यालय से स्नातकोत्तर तक शिक्षा ग्रहण करने वाले एक ऐसे हस्ताक्षर थे जिन्होंने हिन्दी गीत को एक नया मुक़ाम दिया। आपके गीतों के विषय में बालस्वरूप राही जी कहते हैं कि त्यागी की बदनसीबी यह है कि दर्द उसके
साथ लगा रहा है, उसकी ख़ुशनसीबी यह है कि दर्द को गीत बनाने की कला में वह माहिर है। गीत को जितनी शिद्दत से उसने लिया है, वह स्वयं में एक मिसाल है। आधुनिक गीत साहित्य का इतिहास उसके गीतों की विस्तारपूर्वक चर्चा के बिना लिखा ही नहीं जा सकता।

रामधारी सिंह दिनकर आपके गीतों पर टिप्पणी करते हुए कहते हैं कि त्यागी के गीतों में यह प्रमाण मौजूद है कि हिन्दी के नए गीत अपने साथ नई भाषा, नए मुहावरे, नई भंगिमा और नई विच्छिति ला रहे हैं। त्यागी के गीत मुझे बहुत पसन्द आते हैं। उसके रोने, उसके हँसने, उसके बिदकने और चिढ़ने, यहाँ तक कि उसके गर्व
में भी एक अदा है जो मन मोह लेती है।

‘नया ख़ून’; ‘मैं दिल्ली हूँ’; ‘आठवाँ स्वर’; ‘गीत सप्तक-इक्कीस गीत’; ‘गुलाब और बबूल वन’; ‘राष्ट्रीय एकता की कहानी’ और ‘महाकवि कालिदास रचित मेघदूत का काव्यानुवाद’ जैसे अनेक काव्य संकलनों के साथ ही साथ ‘समाधान’ नामक उपन्यास; ‘चरित्रहीन के पत्र’; ‘दिल्ली जो एक
शहर था’ और ‘राम झरोखा’ जैसी गद्य रचनाएँ भी आपके रचनाकर्म में शामिल हैं। अनेक महत्तवपूर्ण पत्र-पत्रिकाओं का आपने जीवन भर सम्पादन किया।
हिन्दी फिल्म ‘ज़िन्दगी और तूफ़ान’ में मुकेश द्वारा गाया गया आपका गीत ‘ज़िन्दगी और बता तेरा इरादा क्या है’ ख़ासा लोकप्रिय हुआ। आपके गीत संवेदी समाज के बेहद एकाकी पलों के साथी हैं। 12 अप्रेल सन् 1985 को आप अपने गीत हमारे बीच छोड़कर हमसे विदा ले गए।

 

Nikunj Sharma : निकुंज शर्मा

नाम : निकुंज शर्मा
जन्म : 2 अक्टूबर 1993 (बृजघाट, हापुड़)
शिक्षा : एमबीए (मानव संसाधन)

प्रकाशन
द्वार पर हैं गीत आये (गीत संग्रह) सन्मति पब्लिशर्स, हापुड़; 2016

निवास : ग़ाज़ियाबाद, उत्तर प्रदेश

हिन्दी गीत की सबसे नई पीढ़ी को निकुंज शर्मा के रूप में एक ऐसा नवांकुर प्राप्त हुआ है जिसने अपनी आभा से पूरी बगिया की ध्यान आकृष्ट कर लिया है। उनके गीतों की रवानी और उसमें भाषा का अक्षुण्ण प्रवाह उनके अंतस से फूटते गीत झरने को अपने समय के अन्य सभी गीत स्रोतों से अधिक मीठा बनाने में सक्षम हैं।
निकुंज काव्य को दुरूह भाषा शैली से लादने में विश्वास नहीं करते अपितु उसे सहज बोलचाल की भाषा से सिंगार कर जनसुलभ कराने की साधना करते हैं।

 

Raskhan : रसखान

नाम : सैयद इब्राहिम ‘रसखान’
जन्म : 1548; अमरोहा

निधन : 1628; वृन्दावन

आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने रसखान का परिचय इस प्रकार दिया है- ”ये दिल्ली के एक पठान सरदार थे। इन्होंने ‘प्रेमवाटिका’ में अपने को शाही खानदान का कहा है। संभव है पठान बादशाहों की कुलपरंपरा से इनका संबंध रहा हो। ये बड़े भारी कृष्णभक्त और गोस्वामी विट्ठलदास जी के बड़े कृपापात्र शिष्य थे। ‘दो सौ बावन
वैष्णवों की वार्ता’ में इनका वृत्तांत आया है। उक्त वार्ता के अनुसार ये पहले एक बनिए की लड़की पर आसक्त थे। एक दिन इन्होंने किसी को कहते हुए सुना कि भगवान् से ऐसा प्रेम करना चाहिए जैसे रसखान का उस बनिए की लड़की पर है। इस बात से मर्माहत होकर ये श्रीनाथ जी को ढूंढते-ढूंढते गोकुल आए और वहाँ
गोसाईं विट्ठलदास जी से दीक्षा ली। यही आख्यायिका एक-दूसरे रूप में भी प्रसिध्द है। कहते हैं, जिस स्त्री पर ये आसक्त थे वह बहुत मानवती थी और इनका अनादर किया करती थी। एक दिन ये श्रीमद्भागवत का फारसी तर्जुमा पढ़ रहे थे। उसमें गोपियों के अनन्य और अलौकिक प्रेम को पढ़ इन्हें ध्यान हुआ कि उसी से क्यों न
मन लगाया जाय जिस पर इतनी गोपियाँ मरती थीं। इसी बात पर ये वृंदावन चले आए।

इन प्रवादों से कम से कम इतना अवश्य सूचित होता है कि आरंभ से ही ये बड़े प्रेमी जीव थे। वही प्रेम अत्यंत गूढ़ भगवद्भक्ति में परिणत हुआ। प्रेम के ऐसे सुंदर उद्गार इनके सवैयों में निकले कि जनसाधारण प्रेम या शृंगार संबंधी कवित्ता सवैयों को ही ‘रसखान’ कहने लगे- जैसे ‘कोई रसखान सुनाओ’। इनकी भाषा बहुत
चलती, सरस और शब्दाडम्बर मुक्त होती थी। शुध्द ब्रजभाषा का जो चलतापन और सफाई इनकी और घनानंद की रचनाओं में है वह अत्यंत दुर्लभ है। इनका रचनाकाल संवत् 1640 के उपरांत ही माना जा सकता है क्योंकि गासाईं विट्ठलदास जी का गोलोकवास संवत् 1643 में हुआ था। प्रेमवाटिका का रचनाकाल संवत् 1671
है। अत: उनके शिष्य होने के उपरांत ही इनकी मधुर वाणी स्फुरित हुई होगी। इनकी कृति परिमाण में तो बहुत अधिक नहीं है पर जो है वह प्रेमियों के मर्म को स्पर्श करनेवाली है। इनकी दो छोटी-छोटी पुस्तकें अभी तक प्रकाशित हुई हैं- प्रेमवाटिका (दोहे) और सुजान रसखान (कवित्ता सवैया)। और कृष्णभक्तों के समान इन्होंने
‘गीतिकाव्य’ का आश्रय न लेकर कवित्ता सवैयों में अपने सच्चे प्रेम की व्यंजना की है।”

स्रोत : आचार्य रामचंद्र शुक्ल; हिन्दी साहित्य का इतिहास; नागरीप्रचारिणी सभा, काशी; संस्करण संवत् 2035; पृष्ठ- 131-132

 

Gyan Prakash Aakul : ज्ञान प्रकाश आकुल

नाम : ज्ञान प्रकाश आकुल
जन्म : लखीमपुर खीरी
शिक्षा : विज्ञान परास्नातक; बी एड

पुरस्कार एवं सम्मान
1) आरम्भ
2) उन्मुख
3) सृजन
4) कवितालोक
5) खीरी रत्न सम्मान

निवास : लखीमपुर खीरी

ज्ञान प्रकाश आकुल हिंदी गीत के एक ऐसे मौन साधक हैं जिनकी गूँज अनहद की तरह देर से लेकिन दूर तक असर करने की क्षमता रखती है. ज्ञान के गीतों में समाज के उस तिरस्कृत वर्ग की आवाज़ सुनाई देती है जिसे उपेक्षा के अभिशाप ने कई युगों तक अभावों का जीवन जीने को विवश किया. एक सक्षम और सुलझे हुए
गीतकार की तरह ज्ञान कभी बुद्ध से बतियाते दिखाई देते हैं तो कभी अचानक समाज के सबसे निचले पायदान पर खड़े होकर अट्टालिकाओं पर व्यंग्य बाण छोड़ते दिखाई देते हैं. ज्ञान के लेखन की मारक क्षमता युग परिवर्तन का आभास कराती है.

 

 

Vishnu Prabhakar : विष्णु प्रभाकर

नाम : विष्णु प्रभाकर
जन्म : 21 जून 1912
शिक्षा :हिन्दी प्रभाकर

प्रकाशन
1) ढलती रात 1951
2) निशिकान्त 1955
3) तट के बन्धन 1955
4) स्वप्नमयी 1956
5) दर्पण का व्यक्ति 1968
6) परछाई 1968
7) कोई तो 1980
8) अर्द्धनारीश्वर 1992
9) संकल्प
10) जीवन पराग 1963
11) आपकी कृपा है 1982
12) कौन जीता कौन हारा 1989
13) चन्द्रहार 1952
14) होरी 1955
15) सुनंदा 1984
16) आवारा मसीहा 1974
17) चलता चला जाऊँगा 2010
18) जमना गंगा के नैहर में 1964
19) हँसते निर्झर दहकती भट्टी 1966
20) अभियान और यात्राएँ (संपादित) 1964
21) हिमशिखरों की छाया में 1981
22) ज्योतिपुंज हिमालय 1982

पुरस्कार एवं सम्मान
1) उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा कथा-संग्रह ‘संघर्ष के बाद’ अगस्त 1956 में पुरस्कृत
2) इंडियन राइटर्स एसोसिएशन द्वारा पाब्लो नेरूदा सम्मान 1974
3) इंटरनेशनल ह्यूमनिस्ट सोसाइटी ऑफ इंडिया द्वारा इंटरनेशनल ह्यूमनिस्ट अवार्ड 1975
4) उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘आवारा मसीहा’ पर तुलसी पुरस्कार 1975-76
5) सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार 1976, राष्ट्रीय एकता पुरस्कार 1980
6) ‘शब्द शिल्पी’ की उपाधि 1981
7) हरियाणा साहित्य अकादमी द्वारा ‘आवारा मसीहा’ पर ‘सूर पुरस्कार’ 1980-81
8) रोटरी क्लब दिल्ली द्वारा सम्मानित 1981
9) आल इंडिया आर्टिस्ट एसोसिएशन, शिमला द्वारा ‘भारतेंदु हरिश्चन्द्र पुरस्कार’ 1983
10) साहित्य मंच जालंधर द्वारा सम्मानित 1983
11) साहित्यकार अभिनंदन प्रकाशन द्वारा ‘लघुकथा वारिधि’ सम्मान 1984
12) हिन्दी साहित्य सम्मेलन, इलाहाबाद द्वारा ‘साहित्य वाचस्पति’ की मानद उपाधि 1986
13) भारतीय बाल कल्याण परिषद, कानपुर द्वारा सम्मानित 1986
14) राजभाषा विभाग, बिहार सरकार द्वारा ‘बेनीपुरी पुरस्कार’ 1986-87
15) साहित्यकार मंडल (हरिगढ़), अलीगढ़ द्वारा साहित्यकार शिरोमणि 1987
16) उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘संस्थान सम्मान’ 1987
17) हिन्दी अकादमी, दिल्ली द्वारा 1987-88 शलाका सम्मान
18) भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली द्वारा ‘मूर्त्तिदेवी पुरस्कार’ 1988
19) महाराष्ट्र राज्य हिन्दी अकादमी द्वारा ‘अ.भा. हिन्दी सेवा पुरस्कार’ 1990-91
20) भारतीय भाषा परिषद, कलकत्ता द्वारा ‘हिन्दी भाषा साहित्यिक पुरस्कार’ 1992
21) साहित्य अकादमी पुरस्कार 1993
22) नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी द्वारा ताम्रपत्र से सम्मानित
23) उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘महात्मा गाँधी जीवन-दर्शन एवं साहित्य’ सम्मान 1995
24) केन्द्रीय हिन्दी संस्थान, आगरा द्वारा ‘राहुल सांकृत्यायन यायावरी पुरस्कार’ 1995
25) बिहार राज्य राजभाषा समिति, पटना द्वारा ‘राजेन्द्र बाबू शिखर सम्मान’ 1999,
26) महामहिम राष्ट्रपति भारत सरकार द्वारा 26 जनवरी 2004 को पद्मभूषण
27) साहित्य अकादमी फैलोशिप 2006

निधन :11 अप्रैल 2009 (दिल्ली)

“अपने साहित्य में भारतीय वाग्मिता और अस्मिता को व्यंजित करने के लिये प्रसिद्ध रहे श्री विष्णु प्रभाकर का जन्म 21 जून सन् 1912 को मीरापुर, ज़िला मुज़फ़्फ़रनगर (उत्तर प्रदेश) में हुआ। उनकी शिक्षा-दीक्षा पंजाब में हुई। उन्होंने सन् 1929 में चंदूलाल एंग्लो-वैदिक हाई स्कूल, हिसार से मैट्रिक की परीक्षा पास की। तत्पश्चात् नौकरी करते हुए पंजाब विश्वविद्यालय से भूषण, प्राज्ञ, विशारद, प्रभाकर आदि की हिंदी-संस्कृत परीक्षाएँ उत्तीर्ण कीं। उन्होंने पंजाब विश्वविद्यालय से ही बी.ए. भी किया।

विष्णु प्रभाकर जी ने कहानी, उपन्यास, नाटक, जीवनी, निबंध, एकांकी, यात्रा-वृत्तांत और कविता आदि प्रमुख विधाओं में लगभग सौ कृतियाँ हिंदी को दीं। उनकी ‘आवारा मसीहा’ सर्वाधिक चर्चित जीवनी है, जिस पर उन्हें ‘पाब्लो नेरूदा सम्मान’, ‘सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार’ सदृश अनेक देशी-विदेशी पुरस्कार मिले। प्रसिद्ध नाटक ‘सत्ता के आर-पार’ पर उन्हें भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा ‘मूर्तिदेवी पुरस्कार’ मिला तथा हिंदी अकादमी, दिल्ली द्वार ‘शलाका सम्मान’ भी। उन्हें उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान के ‘गांधी पुरस्कार’ तथा राजभाषा विभाग, बिहार के ‘डॉ. राजेन्द्र प्रसाद शिखर सम्मान’ से भी सम्मानित किया गया।

विष्णु प्रव्हाकर जी आकाशवाणी, दूरदर्शन, पत्र-पत्रिकाओं तथा प्रकाशन संबंधी मीडिया के विविध क्षेत्रों में पर्याप्त लोकप्रिय रहे। देश-विदेश की अनेक यात्राएँ करने वाले विष्णु जी जीवन पर्यंत पूर्णकालिक मसिजीवी रचनाकार के रूप में साहित्य-साधनारत रहे। 11 अप्रैल सन् 2009 को दिल्ली में विष्णु जी इस संसार से विदा ले गये।” -लेखक के एकमात्र कविता संग्रह ‘चलता चला जाऊंगा’ से साभार।

 

 

Anju Jain : अंजू जैन


नाम : अंजू जैन
जन्म : 30 अक्टूबर 1968
शिक्षा : पीएच.डी.

निवास : ग़ज़ियाबाद

गीत की संवेदना को सकारात्मकता की ऊर्जा से संवारकर कलमबद्ध करने में डॉ अंजू जैन का कोई सानी नहीं है. शिष्टता और शालीनता की देहरी का सम्मान करती अंजू जी की लेखनी न केवल ऊर्जा देती है बल्कि थके हारे जीवन को नवल संचरण भी उपलब्ध कराती है. अंजू जी की कविता कभी गोपाल सिंह नेपाली की तरह जीवन की संजीवनी बन जाती है तो कभी सुभद्राकुमारी चौहान की तरह शौर्य का प्रतिबिम्ब उकेर देती है.

Ameer Khusro : अमीर ख़ुसरो


नाम : अबुल हसन यमीनुदीन खुसरो
जन्म : 1253; बदायूँ

निधन : 1325


1253 में उत्तर प्रदेश के बदायूँ में जन्मे अमीर ख़ुसरो के पिता अमीर सैफ़ुद्दीन अफ़गानिस्तान के बल्ख़ नामक स्थान से आए थे। हिंदी के इस प्रथम कवि ने सात वर्ष की छोटी सी आयु में पिता को खो दिया और अपनी माँ के साथ दिल्ली (अपनी ननिहाल) चले आए। सन् 1271 में आपका पहला दीवान प्रकाशित हुआ। सन् 1272 में आप बलबन के दरबार में दरबारी कवि नियुक्त हुए। 1279 में अपने दूसरे क़लाम वस्तुल-हयात के लेखन के दौरान आपने बंगाल की यात्रा की। 1281 में आप बलबन के दूसरे पुत्र सुल्तान मुहम्मद के दरबार में नियुक्त हुए और सुल्तान के साथ मुल्तान की यात्रा की। 1285 में आपने मंगोलों के ख़िलाफ़ लड़ाई भी लड़ी और गिरफ़्तार भी हुए, लेकिन जल्द ही रिहा कर दिये गये। इसके बाद निज़मुद्दीन औलिया, अलाउद्दीन ख़िलजी, मुबारक़ ख़िलजी और मुहम्मद बिन तुगलक़ जैसे सुल्तानों की कहानी की गवाही देते हुए 72 वर्ष की आयु में सन् 1325 में आपका निधन हो गया।

आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने आपका परिचय देते हुए लिखा है- “पृथ्वीराज की मृत्यु (संवत् 1249) के 90 वर्ष पीछे ख़ुसरो ने संवत् 1340 के आसपास रचना आरंभ की। इन्होंने गयासुद्दीन बलबन से लेकर अलाउद्दीन और क़ुतुबुद्दीन मुबारक़शाह तक कई पठान बादशाहों का ज़माना देखा था। ये फारसी के बहुत अच्छे ग्रंथकार और अपने समय के नामी कवि थे। इनकी मृत्यु संवत् 1381 में हुई। ये बड़े ही विनोदी, मिलनसार और सहृदय थे, इसी से जनता की सब बातों में पूरा योग देना चाहते थे। जिस ढंग से दोहे, तुकबंदियाँ और पहेलियाँ आदि साधारण जनता की बोलचाल में इन्हें प्रचलित मिलीं उसी ढंग से पद्य, पहेलियाँ आदि कहने की उत्कंठा इन्हें भी हुई। इनकी पहेलियाँ और मुकरियाँ प्रसिद्ध हैं। इनमें उक्ति वैचित्र्य की प्रधानता थी, यद्यपि कुछ रसीले गीत और दोहे भी इन्होंने कहे हैं।

यहाँ इस बात की ओर ध्यान दिला देना आवश्यक प्रतीत होता है कि ‘काव्य-भाषा’ का ढाँचा अधिकतर शौरसेनी या पुरानी ब्रजभाषा का ही बहुत काल से चला आता था। अत: जिन पश्चिमी प्रदेशों की बोलचाल खड़ी होती थी, उनमें जनता के बीच प्रचलित पद्यों, तुकबंदियों आदि की भाषा ब्रजभाषा की ओर झुकी हुई रहती थी। अब भी यह बात पाई जाती है। इसी से ख़ुसरो की हिन्दी रचनाओं में भी दो प्रकार की भाषा पाई जाती है। ठेठ खड़ी बोलचाल, पहेलियों, मुकरियों और दो सखुनों में ही मिलती है- यद्यपि उनमें भी कहीं-कहीं ब्रज भाषा की झलक है। पर गीतों और दोहों की भाषा ब्रज या मुखप्रचलित काव्यभाषा ही है। यह ब्रजभाषापन देख उर्दू साहित्य के इतिहास लेखक प्रो. आज़ाद को यह भ्रम हुआ था कि ब्रजभाषा से खड़ी बोली (अर्थात् उसका अरबी-फारसी ग्रस्त रूप उर्दू) निकल पड़ी।”