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सावित्री

पक्की ऑडिटर थी सावित्री
क्वेरी पर क्वेरी कर के
पकड़ ही ली यमराज की इर्रेगुलरिटी
आख़िर करा ही ली
अपने हसबैण्ड की सोल की रिकवरी
इसको कहते हैं एफिशिएंसी!

© Jagdish Savita : जगदीश सविता

 

अश्वत्थामा

किंवदंती है कि अश्वत्थामा अमर है। छल से उसने द्रौपदी के पाँच नन्हे-निरीह शिशुओं का वध किया तो पाण्डवों ने दण्ड स्वरूप उसकी मस्तक मणि को निकाल लिया। मर वह सकता नहीं था।

कहते हैं आज भी कमण्डल में रखे लेप से उस अगम घाव को भरता इधर-उधर भटकता रहता है। कुछ का कहना है कि उन्होंने देखा है, उनसे मिला है।

मुझे-
अमरता को मेरी
शापित करने से पूर्व
-बताया जाए
कब किस दुर्योधन से-
किस पांचाली के निरीह शिशुओं का
मैंने रक्त बहा
-मित्रता निभाई?
मेरे कारण
बोलो
कब, किस धर्मराज का गला अंगूठा?

फिर मुझको क्यों दिया जा रहा
यह कठोर दुस्सह दण्ड?
न छीनो
हाय! न छीनो
मेरी मस्तक मणि को!
यह तो ज्ञात तुम्हें भी है कि
मैं मरने वालों में नहीं

मगर
यह घाव अगम
क्या कभी भरेगा?
हो पाएगा रिक्त कमण्डल
कभी लेप से?
छिन दो छिन को ही सही
पड़ेगा चैन कभी पीड़ा को?

या मैं युगों-युगों तक
सारे जग से आँख चुराए
पर्वत-पर्वत
घाटी-घाटी
यूँ ही भ्रमता फिरूँ
झल्लाता!

© Jagdish Savita : जगदीश सविता

 

 

प्रामिथस

प्रामिथस स्वर्ग से ज्ञान की आग चुरा लाया था। दण्ड स्वरूप स्वर्ग के मालिक ज्रियस ने उसे एक चट्टान से बंधवा दिय। हर सुबह आसमान से एक बाज़ उतरता और प्रामिथस के जिगर को नोच-नोच कर खाता। वर्षों उसे यह दण्ड दिया गया। मिथक के अनुसार कालान्तर में हरक्युलिस के हाथों वह इस दुधर्ष दण्ड से मुक्त हो पाया।

ओ रे ओ!
मेरे जग के शासक कठोर!
स्वीकारता हूँ
मैं लुक-छिप
तेरा मर्म चुरा लाया था-नीचे
यह अंगारा
आपेक्षित था
भोली और निरीह
भटकती
ठोकर खा खा गिरती-उठती
तेरी रौरव क्रूर यातना की शिकार
मेरी प्यारी दुनिया कोऋ
आवश्यक था
मैं कर गुज़रूँ
यह तुझको जो आज-
ठीक ही
-लगता है
मेरा संगीन ज़ुर्म
अक्षम्य पाप!

उफ रे तेरा भीषण प्रकोप!
आलोक मुखर जागृति हमारी
हम दुनियादारों की
केवल इसीलिए क्या
फौलादी ज़ंजीरों में जकड़ा तन तूने
चट्टानों के साथ
बांध रखा है?
लेकिन
एक मेरा मन भी है पागल!
उसको बांधे तो मैं जानूँ

यह ज़ालिम ख़ुंखार बाज़
हर रोज़ पठाया तेरा
सूने में से तैर आता है
मेरा जिगर नोच खाने को…

खा ले
नित्य नया निर्माण
यहाँ भी
कभी न रुक पाएगा!
बतला
क्या ऐसा भी हुआ
कि तेरा तातारी यह
कभी लौटा पहुँचा होवे अतृप्त?
नहीं ना!
पर तू दिलवालों को भी पहचाने
तब तो!

विश्व नियंता सही
मगर तू हृदयहीन है!

जाने भी दे
क्या रखा है
इस थोथे प्रभाव हीन रोष में?
हम
और तुझ से
अब भी हों भयभीत?
नहीं
बस बहुत हो चुकाऋ
तनी-तनी ये भौहें
चढ़ा-चढ़ा सा चेहरा
यह मुद्रा विद्रूप
हँसी आती है सचमुच!

देख
आज तक जिन्हें
बहुत बहकाया
भरमाया, भटकाया
और सताया तूने

उनके संग रुपहली
और धुपहली
और सुनहली
ऊषा फागुन खेल रही है!

© Jagdish Savita : जगदीश सविता

 

द्रोण

आचार्य था
मगर ट्यूशनिया
राजकुमारों से आगे न निकल जाए कोई!
उसे तो तुमने नहीं सिखाया
धनुर्विद्या का ‘क’ ‘ख’ भी
मगर वाह रे भील बालक
तुम नहीं थे
तो तुम्हारी मूर्ति को ही पूजता रहा
और तुम्हीं ने
गुरु दक्षिणा का स्वांग रच
कटवा डाला उसका अंगूठा!
इसीलिए ना!
कि कहीं पिछड़ न जाए तुम्हारा टॉपर

और जब पाण्डव हो गए खल्लास
तो कौरवों की कमान संभाल ली
वहाँ बेटे अश्वत्थामा को भी
मिल गया काम!
वाह गुरु वाह
मारे भी गए तो
अपने एक चहेते चेले के हाथों
सम्मान पूर्वक!

© Jagdish Savita : जगदीश सविता

 

यक्ष

जानता था
चारों मृतकों का कोई अपना
आएगा
मेरे प्रश्नों के उत्तर लेकर
तैयार भी बैठा था
उसके प्रश्नों के उत्तरों के लिए

उसने कोई प्रश्न नहीं पूछा
उसे जल्दी थी
अपनी माँ की प्यास बुझाने की
उससे भी अधिक आतुरता थी
चिन्ता थी
चारों मृतकों में प्राण फूँकने की
उस प्रायौगिक परीक्षा में भी
वह पूरा उतरा
लेकर चला गया
अपनी माँ और भाइयों को

मैं बैठा सोचता रहा
बड़ा प्रश्न कर्त्ता नहीं होता
उत्तरदाता होता है बड़ा
वह सचमुच धर्मराज था
जो बिना उंगली उठाए
बिना प्रश्नचिन्ह लगाए
चला गया
चुप-चाप

© Jagdish Savita : जगदीश सविता