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तुम तक नींद न आई होगी

तुम तक नींद न आई होगी
मेरी आँखों से
मेरी आँखों से ओझल हो, तुम तक नींद न आई होगी !

नींद स्वयं ही चुरा ले गई,
मेरे मन के स्वप्न ही सुहाने;
अँधियारी-रजनी के धोखे,
भूल हो गई यह अनजाने;

जितनी निकट नींद के उतनी, और कहाँ निठुराई होगी ?
मेरी आँखे से ओझल हो, तुम तक नींद न आई होगी ?

मिलन-विरह के कोलाहल में,
तुम अब तक एकाकी कैसे ?
परिवर्तन-शीला संसृति में,
तुम सचमुच जैसे-के-तैसे;

ऐसी आराधना, धरा पर, कब किसने अपनाई होगी,
मेरी आँखों से ओझल हो, तुम तक नींद न आई होगी ।

यौवन की कलुषित-कारा में
तुम पावन से भी अति पावन,
पापी-दुनिया बहुत बुरी है,
ओ, मेरे भाले मनभावन !

देख तुम्हारी निर्मलता को, शबनम भी शरमाई होगी !
मेरी आँखों से ओझल हो, तुम तक नींद न आई होगी !

© Balbir Singh Rang : बलबीर सिंह ‘रंग’

 

किसी से बात कोई आजकल नहीं होती

किसी से बात कोई आजकल नहीं होती
इसीलिए तो मुक़म्म्ल ग़ज़ल नहीं होती

ग़ज़ल-सी लगती है लेकिन ग़ज़ल नहीं होती
सभी की ज़िंदगी खिलता कँवल नहीं होती

तमाम उम्र तज़ुर्बात ये सिखाते हैं
कोई भी राह शुरु में सहल नहीं होती

मुझे भी उससे कोई बात अब नहीं करनी
अब उसकी ओर से जब तक पहल नहीं होती

वो जब भी हँसती है कितनी उदास लगती है
वो इक पहेली है जो मुझसे हल नहीं होती

© Dinesh Raghuvanshi : दिनेश रघुवंशी

 

चुप्पियाँ बोलीं

चुप्पियाँ बोलीं
मछलियाँ बोलीं-
हमारे भाग्य में
ढ़ेर-सा है जल, तो तड़पन भी बहुत है

शाप है या कोई वरदान है
यह समझ पाना कहाँ आसान है
एक पल ढेरों ख़ुशी ले आएगा
एक पल में ज़िन्दगी वीरान है
लड़कियाँ बोलीं-
हमारे भाग्य में
पर हैं उड़ने को, तो बंधन भी बहुत हैं…

भोली-भाली मुस्कुराहट अब कहाँ
वे रुपहली-सी सजावट अब कहाँ
साँकलें दरवाज़ों से कहने लगीं
जानी-पहचानी वो आहट अब कहाँ
चूड़ियाँ बोलीं-
हमारे भाग्य में
हैं ख़नकते सुख, तो टूटन भी बहुत हैं…

दिन तो पहले भी थे कुछ प्रतिकूल से
शूल पहले भी थे लिपटे फूल से
किसलिये फिर दूरियाँ बढ़ने लगीं
क्यूँ नहीं आतीं इधर अब भूल से
तितलियाँ बोलीं-
हमारे भाग्य में
हैं महकते पल, तो अड़चन भी बहुत हैं…

रास्ता रोका घने विश्वास ने
अपनेपन की चाह ने, अहसास ने
किसलिये फिर बरसे बिन जाने लगी
बदलियों से जब ये पूछा प्यास ने
बदलियाँ बोलीं-
हमारे भाग्य में
हैं अगर सावन तो भटकन भी बहुत हैं…

भावना के अर्थ तक बदले गए
वेदना के अर्थ तक बदले गए
कितना कुछ बदला गया इस शोर में
प्रार्थना के अर्थ तक बदले गए
चुप्पियाँ बोलीं-
हमारे भाग्य में
कहने का है मन, तो उलझन भी बहुत हैं…

© Dinesh Raghuvanshi : दिनेश रघुवंशी

 

मेरा सच

मेरा सच
सत्य
सिद्ध न भी किया जा सके
तो भी सत्य ही होता है
झूठ को
सिद्ध करने के लिए
चाहिए होती हैं दलीलें
और झूठी गवाहियाँ….

नहीं हूँ तैयार मैं
अपने सच को
सिद्ध करने के लिए
सूली पर चढ़ जाने को
या क्रॉस पर टंग जाने को
या फिर
मन्सूर की तरह
गर्दन कटाने को भी

यह सत्य मेरा है
तुम्हें स्वीकार हो
तो भी
और न हो
तो भी….!

© Sandhya Garg : संध्या गर्ग

 

तुमसे मिलकर

तुमसे मिलकर जीने की चाहत जागी
प्यार तुम्हारा पाकर ख़ुद से प्यार हुआ

तुम औरों से कब हो, तुमने पल भर में
मन के सन्नाटों का मतलब जान लिया
जितना मैं अब तक ख़ुद से अनजान रहा
तुमने वो सब पल भर में पहचान लिया
मुझ पर भी कोई अपना हक़ रखता है
यह अहसास मुझे भी पहली बार हुआ
प्यार तुम्हारा पाकर ख़ुद से प्यार हुआ

ऐसा नहीं कि सपन नहीं थे आँखों में
लेकिन वो जगने से पहले मुरझाए
अब तक कितने ही सम्बन्ध जिए मैंने
लेकिन वो सब मन को सींच नहीं पाये
भाग्य जगा है मेरी हर प्यास क
तृप्ति के हाथों ही ख़ुद सत्कार हुआ
प्यार तुम्हारा पाकर ख़ुद से प्यार हुआ

दिल कहता है तुम पर आकर ठहर गई
मेरी हर मजबूरी, मेरी हर भटकन
दिल के तारों को झंकार मिली तुमसे
गीत तुम्हारे गाती है दिल की धड़कन
जिस दिल पर अधिकार कभी मैं रखता था
उस दिल के हाथों ही अब लाचार हुआ
प्यार तुम्हारा पाकर ख़ुद से प्यार हुआ

बहकी हुई हवाओं ने मेरे पथ पर
दूर-दूर तक चंदन-गंध बिखेरी है
भाग्य देव ने स्वयं उतरकर धरती पर
मेरे हाथ में रेखा नई उकेरी है
मेरी हर इक रात महकती है अब तो
मेरा हर दिन जैसे इक त्यौहार हुआ
प्यार तुम्हारा पाकर ख़ुद से प्यार हुआ

© Dinesh Raghuvanshi : दिनेश रघुवंशी

 

युग का यह वातायन

युग का यह वातायन !

दर्पण से ढँका हुआ,
बालू पर टिका हुआ;
जीवन पर्यन्त आग-पानी का परायण !
युग का यह वातायन !

अनुबन्धित-गरिमाएँ,
आतंकित-प्रतिभाएँ;
कर्म-भूमि गीता, किन्तु जन्म-भूमि रामायण !
युग का यह वातायन !

गति-निरपेक्ष मलय,
अथवा सापेक्ष-प्रलय;
जन-गण-मन उत्पीड़न, नारायण, नारायण !
युग का यह वातायन !

© Balbir Singh Rang : बलबीर सिंह ‘रंग’

 

एकलव्य

कैसा बेशर्म ट्यूटर था
एक मिनट पढ़ाया
और बरसों बाद बोला-
‘लाओ मेरी फीस’
उस लड़के को देखो
(कहाँ चरने चली गई थी अक्ल?)
अंगूठा काट कर सामने रख दिया
सीधा-सादा
ट्राइबल था बेचारा
आ गया रोब में
अब बांधता फिर उम्र भर पानी की पट्टी!
शर-संधान तुझसे होगा नहीं
भविष्य में
नहीं कर पाएगा
कुत्तों को अवाक्!

© Jagdish Savita : जगदीश सविता

 

भावुकता को प्यार नहीं मानूँगा

मैं भावुकता को प्यार नहीं मानूँगा !
मैं लहरों को मँझधार नहीं मानूँगा!

भावुकता का परिणाम क्षणिक होता है,
लहरों का विकल-विराम क्षणिक होता है;
मलयानिल की मंथर-गति के स्वागत में,
विटपों का मौन प्रणाम क्षणिक होता है;

तुम क्षणिक-मिलन को चाहे जो कुछ समझो,
मैं दर्शन को, अभिसार नहीं मानूँगा !

मैं करूँ कल्पनाओं कर विकसित कलियाँ,
तुम भरो भावनाओं की मधुमय गलियाँ;
मैं धरती पर नभ की नीरवता ला दूँ,
तुम नित्य मनाओ तारों से रँगरलियाँ;

तुम कहो सफलता को अपनी अन्तिम-जय,
मैं असफलता को, ‘हार‘ नहीं मानूँगा !

रवि, शशि भी मेरी भाँति न जल पाते हैं,
सुख- दुख भी मेरे साथ न चल पाते हैं;
पथ की ऊँची-नीची बाधाओं में भी,
गिर कर मेरे अरमान सँभल जाते हैं;

अवलम्ब किसी का मिले न मुझको फिर भी-
मैं आश्रय को, आधार नहीं मानूँगा !

© Balbir Singh Rang : बलबीर सिंह ‘रंग’

 

यथोचित

पुराने वस्त्र को
सम्मान दिया जा सकता है
पर ओढ़ा नहीं जा सकता
ओढ़ा वही जाएगा
जो बचा सकता है
सर्दी से
धूप से
वर्षा से
आंधी से

फूल को चाहिए कि
वह कली को स्थान दे
कली को चाहिए कि
वह फूल को सम्मान दे
पतझड़ को रोका नहीं जा सकता
कोंपल को टोका नहीं जा सकता

© Acharya Mahapragya : आचार्य महाप्रज्ञ

 

काश्मीर

जिसका नीर सुधा का सहचर, सोना जिसकर माटी,
जहाँ रही सर्वदा फूलने-फलने की परिपाटी;
जो हिमगिरि का भार, धरे है अपने वक्षस्थल पर,
उसे सुकवि कहते आए हैं- काश्मीर की घाटी;

श्रृंग-श्रेणियाँ प्रकृति-प्रिया के ग्रीवा की जयमाला,
उदित एशिया की सीमाओं का अनुपम उजियाला;
उसी श्स्य-श्यामला भूमि की शान्ति भंग किसने की ?
कौन वहाँ करता है अपने गोरे मुख को काला ?

यह है वही, नील की बेटी पर जिनकी है दृष्टि,
विश्व-शान्ति के लिए कर चुके राकेटों की वृष्टि;
जिसे चाहते उसे ‘राट्र‘ की संज्ञा दे देते हैं,
यह बाजीगर प्रस्तावों से रचते रहते सृष्टि;

प्रजातंत्र की महिमा का, गुण गाते नहीं अघाते,
किन्तु लुटेरों के हिमायती, पंचों में कहलात;े
जन-मत-संग्रह कह कहते हो हमसे किस बूते पर ?
‘साइप्रस‘ में जन-मत संग्रह की माँग रहे ठुकराते;

हाँ, तुमको आती है अद्भुत राजनीति की भाषा;
अपने लिए बदल सकते हो जन-मत की परिभाषा;
काश्मीर पर हमला करते जन-मत नहीं लिया था ?
तब तो पर्दे के पीछे से करते रहे तमाशा;

राजतंत्र-जनतंत्र युगल हैं मोहक हाथ तुम्हारे,
बन्दर-बाँट जहाँ करते होते हैं वारे-न्यारे;
पशुता के नंगे नाचों से शान्ति नहीं हो सकती,
मानवता को संरक्षण क्या दे सकते हत्यारे ?

जो भातर का अंग, संग जो जंगी तूफ़ानों में
जो धरती का स्वर्ग उसे मत बदलो वीरानों में !
‘काश्मीर किसका है‘- इसकी काजीजी को चिन्ता,
यह परिषद में नहीं फैसला होगा मैदानों में;
इस बीसवीं सदी में तुमको हिंसा पर विश्वास;
संगीनों की नोंकों से, लिखते युग इतिहास;
तुम पानी का लिए बहाना, खून बहाना चाहो;
झेलम की लहरों पर करते अणु बम का अभ्यास;

क्या संयुक्त राष्ट्र की सेना अमन लिए आएगी?
बारूदी बंदूकों में क्या चमन लिए आएगी ?
ओ बूढे वनराज! बता दो शान्ति-कपोतों को यह-
‘युद्ध-पिपासित श्वानों का क्या शमन लिए आएगी ?‘

हम न किसी पर कभी, आक्रमण करने के अपराधी;
किन्तु सुरक्षा हेतु रहे, हम मर मिटने के आदी;
‘गिलगित‘ तक लोहू की अंतिम बूँद हमारी होगी,
क्योंकि, हमें प्राणों ये बढ़कर प्यारी है आज़ादी !

© Balbir Singh Rang : बलबीर सिंह ‘रंग’