काश्मीर

जिसका नीर सुधा का सहचर, सोना जिसकर माटी,
जहाँ रही सर्वदा फूलने-फलने की परिपाटी;
जो हिमगिरि का भार, धरे है अपने वक्षस्थल पर,
उसे सुकवि कहते आए हैं- काश्मीर की घाटी;

श्रृंग-श्रेणियाँ प्रकृति-प्रिया के ग्रीवा की जयमाला,
उदित एशिया की सीमाओं का अनुपम उजियाला;
उसी श्स्य-श्यामला भूमि की शान्ति भंग किसने की ?
कौन वहाँ करता है अपने गोरे मुख को काला ?

यह है वही, नील की बेटी पर जिनकी है दृष्टि,
विश्व-शान्ति के लिए कर चुके राकेटों की वृष्टि;
जिसे चाहते उसे ‘राट्र‘ की संज्ञा दे देते हैं,
यह बाजीगर प्रस्तावों से रचते रहते सृष्टि;

प्रजातंत्र की महिमा का, गुण गाते नहीं अघाते,
किन्तु लुटेरों के हिमायती, पंचों में कहलात;े
जन-मत-संग्रह कह कहते हो हमसे किस बूते पर ?
‘साइप्रस‘ में जन-मत संग्रह की माँग रहे ठुकराते;

हाँ, तुमको आती है अद्भुत राजनीति की भाषा;
अपने लिए बदल सकते हो जन-मत की परिभाषा;
काश्मीर पर हमला करते जन-मत नहीं लिया था ?
तब तो पर्दे के पीछे से करते रहे तमाशा;

राजतंत्र-जनतंत्र युगल हैं मोहक हाथ तुम्हारे,
बन्दर-बाँट जहाँ करते होते हैं वारे-न्यारे;
पशुता के नंगे नाचों से शान्ति नहीं हो सकती,
मानवता को संरक्षण क्या दे सकते हत्यारे ?

जो भातर का अंग, संग जो जंगी तूफ़ानों में
जो धरती का स्वर्ग उसे मत बदलो वीरानों में !
‘काश्मीर किसका है‘- इसकी काजीजी को चिन्ता,
यह परिषद में नहीं फैसला होगा मैदानों में;
इस बीसवीं सदी में तुमको हिंसा पर विश्वास;
संगीनों की नोंकों से, लिखते युग इतिहास;
तुम पानी का लिए बहाना, खून बहाना चाहो;
झेलम की लहरों पर करते अणु बम का अभ्यास;

क्या संयुक्त राष्ट्र की सेना अमन लिए आएगी?
बारूदी बंदूकों में क्या चमन लिए आएगी ?
ओ बूढे वनराज! बता दो शान्ति-कपोतों को यह-
‘युद्ध-पिपासित श्वानों का क्या शमन लिए आएगी ?‘

हम न किसी पर कभी, आक्रमण करने के अपराधी;
किन्तु सुरक्षा हेतु रहे, हम मर मिटने के आदी;
‘गिलगित‘ तक लोहू की अंतिम बूँद हमारी होगी,
क्योंकि, हमें प्राणों ये बढ़कर प्यारी है आज़ादी !

© Balbir Singh Rang : बलबीर सिंह ‘रंग’