Tag Archives: Balbir Singh Rang Poems

तुम तक नींद न आई होगी

तुम तक नींद न आई होगी
मेरी आँखों से
मेरी आँखों से ओझल हो, तुम तक नींद न आई होगी !

नींद स्वयं ही चुरा ले गई,
मेरे मन के स्वप्न ही सुहाने;
अँधियारी-रजनी के धोखे,
भूल हो गई यह अनजाने;

जितनी निकट नींद के उतनी, और कहाँ निठुराई होगी ?
मेरी आँखे से ओझल हो, तुम तक नींद न आई होगी ?

मिलन-विरह के कोलाहल में,
तुम अब तक एकाकी कैसे ?
परिवर्तन-शीला संसृति में,
तुम सचमुच जैसे-के-तैसे;

ऐसी आराधना, धरा पर, कब किसने अपनाई होगी,
मेरी आँखों से ओझल हो, तुम तक नींद न आई होगी ।

यौवन की कलुषित-कारा में
तुम पावन से भी अति पावन,
पापी-दुनिया बहुत बुरी है,
ओ, मेरे भाले मनभावन !

देख तुम्हारी निर्मलता को, शबनम भी शरमाई होगी !
मेरी आँखों से ओझल हो, तुम तक नींद न आई होगी !

© Balbir Singh Rang : बलबीर सिंह ‘रंग’

 

युग का यह वातायन

युग का यह वातायन !

दर्पण से ढँका हुआ,
बालू पर टिका हुआ;
जीवन पर्यन्त आग-पानी का परायण !
युग का यह वातायन !

अनुबन्धित-गरिमाएँ,
आतंकित-प्रतिभाएँ;
कर्म-भूमि गीता, किन्तु जन्म-भूमि रामायण !
युग का यह वातायन !

गति-निरपेक्ष मलय,
अथवा सापेक्ष-प्रलय;
जन-गण-मन उत्पीड़न, नारायण, नारायण !
युग का यह वातायन !

© Balbir Singh Rang : बलबीर सिंह ‘रंग’

 

भावुकता को प्यार नहीं मानूँगा

मैं भावुकता को प्यार नहीं मानूँगा !
मैं लहरों को मँझधार नहीं मानूँगा!

भावुकता का परिणाम क्षणिक होता है,
लहरों का विकल-विराम क्षणिक होता है;
मलयानिल की मंथर-गति के स्वागत में,
विटपों का मौन प्रणाम क्षणिक होता है;

तुम क्षणिक-मिलन को चाहे जो कुछ समझो,
मैं दर्शन को, अभिसार नहीं मानूँगा !

मैं करूँ कल्पनाओं कर विकसित कलियाँ,
तुम भरो भावनाओं की मधुमय गलियाँ;
मैं धरती पर नभ की नीरवता ला दूँ,
तुम नित्य मनाओ तारों से रँगरलियाँ;

तुम कहो सफलता को अपनी अन्तिम-जय,
मैं असफलता को, ‘हार‘ नहीं मानूँगा !

रवि, शशि भी मेरी भाँति न जल पाते हैं,
सुख- दुख भी मेरे साथ न चल पाते हैं;
पथ की ऊँची-नीची बाधाओं में भी,
गिर कर मेरे अरमान सँभल जाते हैं;

अवलम्ब किसी का मिले न मुझको फिर भी-
मैं आश्रय को, आधार नहीं मानूँगा !

© Balbir Singh Rang : बलबीर सिंह ‘रंग’

 

काश्मीर

जिसका नीर सुधा का सहचर, सोना जिसकर माटी,
जहाँ रही सर्वदा फूलने-फलने की परिपाटी;
जो हिमगिरि का भार, धरे है अपने वक्षस्थल पर,
उसे सुकवि कहते आए हैं- काश्मीर की घाटी;

श्रृंग-श्रेणियाँ प्रकृति-प्रिया के ग्रीवा की जयमाला,
उदित एशिया की सीमाओं का अनुपम उजियाला;
उसी श्स्य-श्यामला भूमि की शान्ति भंग किसने की ?
कौन वहाँ करता है अपने गोरे मुख को काला ?

यह है वही, नील की बेटी पर जिनकी है दृष्टि,
विश्व-शान्ति के लिए कर चुके राकेटों की वृष्टि;
जिसे चाहते उसे ‘राट्र‘ की संज्ञा दे देते हैं,
यह बाजीगर प्रस्तावों से रचते रहते सृष्टि;

प्रजातंत्र की महिमा का, गुण गाते नहीं अघाते,
किन्तु लुटेरों के हिमायती, पंचों में कहलात;े
जन-मत-संग्रह कह कहते हो हमसे किस बूते पर ?
‘साइप्रस‘ में जन-मत संग्रह की माँग रहे ठुकराते;

हाँ, तुमको आती है अद्भुत राजनीति की भाषा;
अपने लिए बदल सकते हो जन-मत की परिभाषा;
काश्मीर पर हमला करते जन-मत नहीं लिया था ?
तब तो पर्दे के पीछे से करते रहे तमाशा;

राजतंत्र-जनतंत्र युगल हैं मोहक हाथ तुम्हारे,
बन्दर-बाँट जहाँ करते होते हैं वारे-न्यारे;
पशुता के नंगे नाचों से शान्ति नहीं हो सकती,
मानवता को संरक्षण क्या दे सकते हत्यारे ?

जो भातर का अंग, संग जो जंगी तूफ़ानों में
जो धरती का स्वर्ग उसे मत बदलो वीरानों में !
‘काश्मीर किसका है‘- इसकी काजीजी को चिन्ता,
यह परिषद में नहीं फैसला होगा मैदानों में;
इस बीसवीं सदी में तुमको हिंसा पर विश्वास;
संगीनों की नोंकों से, लिखते युग इतिहास;
तुम पानी का लिए बहाना, खून बहाना चाहो;
झेलम की लहरों पर करते अणु बम का अभ्यास;

क्या संयुक्त राष्ट्र की सेना अमन लिए आएगी?
बारूदी बंदूकों में क्या चमन लिए आएगी ?
ओ बूढे वनराज! बता दो शान्ति-कपोतों को यह-
‘युद्ध-पिपासित श्वानों का क्या शमन लिए आएगी ?‘

हम न किसी पर कभी, आक्रमण करने के अपराधी;
किन्तु सुरक्षा हेतु रहे, हम मर मिटने के आदी;
‘गिलगित‘ तक लोहू की अंतिम बूँद हमारी होगी,
क्योंकि, हमें प्राणों ये बढ़कर प्यारी है आज़ादी !

© Balbir Singh Rang : बलबीर सिंह ‘रंग’

 

रातों का क्या है

रातों का क्या है
रातें हैं, रातों का क्या है ?

कोई रात दूध की धोई,
कोई रात तिमिर सँग सोई ;
मावस को पूनम करने की,
बातें हैं, बातों का क्या है ?

रातें हैं, रातों का क्या है ?

एक रात मुस्कान सँजोती,
दूजी रात, रात भर रोती,
सौ-सौ संग भरी रातों में,
घातें हैं, घातों का क्या है ?

रातें हैं, रातों का क्या हैं ?

महक रही रातों की रानी,
करती ऋतुपति की अगवानी;
पतझर पर पछतावा कैसा ?
तरू तो है, पातों का क्या है ?

रातें हैं, रातों का क्या हैं ?

© Balbir Singh Rang : बलबीर सिंह ‘रंग’

 

हम अधिकारी नहीं

हम अधिकारी नहीं, समय की अनुकम्पाओं के !

पुराना सब कुछ बुरा नहीं,
नया भी सबकुछ नहीं महान;
प्रगति के संग सँवरते रहे,
चिरतंन जीवन के प्रतिमान;

हम प्रतिहारी नहीं, टूटती परम्पराओं के !
हम अधिकारी नहीं, समय की अनुकम्पाओं के !

बधिरता को क्या सौंपा जाए,
शान्ति का ओजस्वी-आह्वान ?
क्रान्ति क्या कर ले अंगीकार,
आधुनिक सामंती-परिधान ?

हम सहकारी नहीं, अर्नगल-आशंकाओं के !
हम अधिकारी नहीं, समय की अनुकम्पाओं के !

तिमिर की शर-शय्या पर पड़ा,
कर रहा प्रवचन दिनमान;
निरंतर उद्घाटित हो रहा,
चाँद-तारों का अनंसुधान;

हम अधिकारी नहीं, कलाविद् अभियंताओं के !
हम अधिकारी नहीं, समय की अनुकम्पाओं के !

© Balbir Singh Rang : बलबीर सिंह ‘रंग’

 

 

बढ़ो जवानो

बढ़ो जवानो ! और आगे !
आगे, आगे, और आगे !

ताकत दी है राम ने,
रावण भी है सामने;
मेहनत के संग हुई सगाई,
छुट्टी ली आराम ने;

विजय-पताका की गाथाएँ,
गढ़ो जवानो ! और आगे !

ऊँची खड़ी पहाड़ियाँ,
जंगल-जंगल झाड़ियाँ;
नाचा करती मौत रात-दिन,
बदल-बदल की साड़ियाँ;

दुश्मन के दल की छाती पर,
चढ़ो जवानो ! और आगे !

रण-चण्डी हुंकारती
“चलो, उतारें आरती;
जय हर-हर, प्रलयंकर शंकर,
जय-जय भारत-भारती;

बलिदानों से लिखी इबारत
पढ़ो जवानो ! और आगे !

© Balbir Singh Rang : बलबीर सिंह ‘रंग’

 

कहीं जिंदगी में हम-तुम

कहीं जिंदगी में हम-तुम संयोग ऐसा पाएँ-
कभी गीत तुम सुनाओ, कभी गीत हम सुनाएँ !

आकाश गुनगुनाए, धरती न बोल पाए;
जो भी हो जिसको कहना, कभी सामने तो आए;

कहीं यामिनी में हम-तुम संयोग ऐसा पाएँ-
कभी दीप तुम जलाओ, कभी दीप हम जलाएँ !

नहीं चाहते सितारे, कभी चाँदनी पधारे;
रहे मेघ सिर पटकते, सौदामिनी के द्वारे;

कहीं चाँदनी में हम-तुम संयोग ऐसा पाएँ-
कभी तुम हमें मनाओ, कभी हम तुम्हें मनाएँ !

कह तक न पाऊँ ऐसा उन्माद भी नहीं है;
कुछ कहते डर रहे हैं कुछ याद भी नहीं है;

कहीं बेबसी में हम-तुम संयोग ऐसा पाएँ-
कभी याद तुम न आओ, कभी याद हम न आएँ !

© Balbir Singh Rang : बलबीर सिंह ‘रंग’