दु:स्वप्न

आतंक के साए में अक्सर
स्वप्न इक बनता-बिगड़ता
देखता हूँ रात-दिन
ठहर जाती है हवा
और डूब जाते स्वर कहीं
नीचे नहीं आती है गेंद
जो उछाली थी
बच्चों ने आसमान में
एक घाटी की ढलानों पर
दौड़ता जाता हँ मैं
फिर एक बवंडर
लील लेता है
मेरे स्वप्न को
और ला गिराता है मुझे
एक निस्तब्ध से मैदान में
यहाँ हैं बिखरी हुईं लाशें कई
क्षत-विक्षत
और दो काले साए रो रहे हैं
बिखरे हुए टुकड़े उठाकर
ढो रहे हैं
उनके रुदन से कान
मेरे बज रहे हैं
उसी रुदन के बीच में
चीख़ पड़ता है कोई-
”देख ये टुकड़ा जो है
मेरा लाल हिन्दुस्तान है।”
”…देख ये गाढ़ा लहू
मेरा नाज़ पाकिस्तान है।”
सपना बहुत भारी है ये
और नींद हल्की है मेरी
सो टूट जाती है
और देखता हूँ
घर से बाहर
बच्चों को गेंद
आसमान में उछालते
आश्वस्त हो जाता हूँ
जब गेंद नीचे आकर
ज़मीन से टकराती है
सोचता हूँ
चलो अच्छा हुआ
यह स्वप्न था
पर सोचता हूँ
किसी दिन
आसमान में उछाली हुई गेंद
ज़मीन पर न लौटी तो!
….किसी दिन मेरा
दु:स्वप्न न टूटा तो…!

© Vivek Mishra : विवेक मिश्र