Tag Archives: Vivek Mishra Poems

रेत के टीले

ज़िंदगी की धूप में
रेत से तपते रहे
सोने से चमकते रहे
तप के सोना बने
न कुन्दन

हर शाम ढले फिर से
रेत के ढेरों में बदलते रहे

हवा हमजोली-सी
ले उड़ी आसमानों में
रुकी
तो फिर आ गिरे
ज़मीन पर

हम ख़ाक़ थे
और ख़ाक़ में मिलते रहे

ज़िंदगी की धूप में
रेत से तपते रहे
सोने से चमकते रहे।

© Vivek Mishra : विवेक मिश्र

 

वही एक शाम

वही एक शाम
भीतर भी
बाहर भी
छुपी भी
उजागर भी
वही एक शाम
मेरी साँसों में चुभती है
थकन भरी रातों में
उखड़ी-सी नींदों में
बहुत हल्के से दुखती है
टूटे से, बिखरे से
सपनों की बूंदों से
ये मेरे मन का ताल
भरता है
सूखता है
सूखता है
भरता है
उसी से जो नमी-सी है
ताल के किनारों पर
उसमें ही रह-रह के
वही चंदा चमकता है
वही एक शाम
मेरी साँसों में चुभती है
जिसकी मटमैली चांदनी में
बरगद के नीचे जब
मिट्टी के ढेर पर
रखकर दो पत्थर
रो-रो के जब हमने
निशानियाँ दबाई थीं
अब भी वो पत्थर दो
छाती पे धरे हो
भीतर भी
बाहर भी
छुपी भी
उजागर भी
वही एक शाम
मेरी साँसों में चुभती है
उठ-उठ के आती हैं
बरगद के नीचे से
निशानियाँ वो संग मेरे
अक्सर ही चलती हैं
वही एक शाम मेरी
साँसों में चुभती है
थकन भरी रातों में
उखड़ी-सी नींदों में
बहुत हल्के से दुखती है।

© Vivek Mishra : विवेक मिश्र

 

 

आम बाग़ में

तेज़ दोपहर
जब आम बाग़ में
कोयल भी छुप जाया करती है
गहरे में मेरे भीतर
तब कोई
तेरा नाम ले चहका करता है
विश्वास नहीं होता
कभी मैं और तुम
हम-उम्र हुआ करते थे
बचपन से तुम यौवन तक पहुँची हो
मैं सदियों बूढ़ा
कछुए-सा
अपने खोल में मुँह दुबकाए
उसी पुराने आम बाग़ में
अपनी पीठ पर
कई-कई मन आम उठाता हूँ
शाम का छींटा बाग़ीचे में
जब पड़ता है
कली-कली, पत्ता-पत्ता
तेरी याद से महका करता है
देर रात जब उस झुरमुट में
चांद उतरने लगता है
एक ख़्वाब तेरे आने का
दिल में दहका करता है
उस टहनी से उलझा
तेरा आँचल
अब तक लहराता है
अब भी उसकी ख़ुशबू से
मेरा मन बहका करता है
मेरा चेहरा थोड़ा
और दरक जाता है
जब मैं तुम्हारा हम-उम्र
दिखता हूँ तुम से
सदियों बूढ़ा
तुम्हारा नाम दबाकर
होंठों में
कहता हूँ-
”सलाम मेमसाब!
आम लेते जाइए
इस बार बड़े मीठे हैं”
तुम पूछती हो-
”तुमने खाए हैं क्या?”
मैं घबरा कर कहता हूँ-
”बचपन से सुनता आया हूँ
इस बाग़ के आम
बड़े मीठे होते हैं!”
गहरे में मेरे भीतर
तब भी कोई
तेरा नाम ले
चहका करता है।

© Vivek Mishra : विवेक मिश्र

 

 

वह चाहती है

मांगती है
यह धरा
अब इक नई आकाश-गंगा
और नया ही चांद-सूरज
चाहती है मुक्त होना
सतत् इस दिन-रात से
छोड़ उजियारे पराए
निज के अंधियारे जलाए
हो के ताज़ा दम ये धरती
स्वयं अपना सूर्य होना चाहती है
चाहती है तोड़कर
जीर्ण सारी मान्यताएँ
ख़ुद रचे इक सौर्य-मंडल
ख़ुद से नभ-तारे बनाए
काटती चक्कर युगों से
अब स्वयं यह केन्द्र होना चाहती है
चाह कर भी चाह ना पाई कभी जो
मुक्त होकर उस रुदन से

© Vivek Mishra : विवेक मिश्र

 

वेदना

वह सालों-साल
रात के तीसरे पहर तक
उनींदी पलकें
पीले बल्ब पर सेंकता होगा
दफ़्तर के दमघोंट कमरे में
फ़ाइलों के भँवर में
डूबने से पहले
सिर उतार कर रख देता होगा
…अक्षरों की गोद में
सालों-साल
पीली पर्चियों पर
लिख कर दो अक्षर
सूंघता होगा कविता को
संजीवनी-सा।
कैसे बचाता होगा
ख़ुद में उसे
या उस में ख़ुद को
विचरता होगा दिन-रात
काग़ज़ पर डूबती-उतराती
स्याह पगडण्डियों पर
गुज़रती होंगी
कानों को छूती
धड़धड़ाती गाड़ियाँ
भा भा, षा षा, व्या व्या,
क क, र र, ण ण
का शोर करतीं,
कविता का व्याकरण पूछतीं
तब उपजी होगी
एक कविता
जो लिली जैसी नहीं थी
न ही थी नागफ़नी-सी
तुम कैसे कर पाओगे
उसका नामकरण
उसे एक बार पढ़ कर
या एक बार सुन कर
उन्हीं कविताओं में
कहीं बैठा होगा वह भी
अपना घर बनाए
बिना अपने नाम की
तख्ती लगाए
तुम कैसे दे पाओगे
दस्तक
उसके दरवाज़े पर
बस अख़बार की तरह
उसे एक बार पढ़ कर
या किसी समाचार-सा
एक बार सुनकर
… बस एक बार सुन कर।

© Vivek Mishra : विवेक मिश्र

 

क़ब्रगाह

साहब को मिला था
नया बंग्ला
मिली थी विदेश मंत्रालय में
सचिव की कुर्सी
उन्हें हमेशा से पसंद थे
विदेशी वस्तुएँ
साफ़
सफ़ेद
चमकदार।
पसंद थे विदेशी दोस्त
विदेशी तोहफ़े!
तोहफ़े में ही आई थीं
सफ़ेद ग़ुलाब की विदेशी क़लमें
जो रोप दी गई थीं
लॉन की एक क्यारी में
जहाँ सजती थी शाम
महकते थे देशी क्यारियों में
विदेशी फूल
तभी एक दिन
बूढ़े माली ने कहा था
जवान भिश्ती के कान में-
”पहले यहाँ क़ब्रगाह थी
यहाँ दफ़्न हैं
आज़ादी के कई परवाने”
भिश्ती ने माली की बात
अनसुनी कर दी थी
पर एक शाम
उसने देखा
कि विदेशी नस्ल के
सफ़ेद ग़ुलाब के पौधे
जब पनपे बंग्ले की उस क्यारी में
तो उनके फूलों का रंग …लाल था!
बूढ़ा माली फिर बुदबुदाता रहा था-
”विदेशी ग़ुलाब की जड़ों ने
मिट्टी में जाकर
मुँह खोल ही दिया
तोहफ़ों के आड़ में हुए
दस्तावेज़ों के सौदे का राज़
बोल ही दिया।
अब उन्हें कैसे नींद आएगी
इस क़ब्रगाह में!
अब किसे नींद आएगी
इस क़ब्रगाह में!”
सचमुच
फिर उस बंग्ले में
कोई सो न सका
न साहब
न मेमसाहब
न बिटिया रानी
और कुत्ता तो
रात भर रोता था
बूढ़ा माली सच कहता था
सचमुच ही
पहले वहाँ क़ब्रगाह थी।

© Vivek Mishra : विवेक मिश्र

 

न आरोह न अवरोह

न आरोह है, न ही अवरोह है
दाल-रोटी की निसदिन उहा-पोह है
न लय है, न स्वर है
न संगीत है
बग़ावत है, नारा है
एक द्रोह है।
बुझते दीपक की लौ की तड़प है यहाँ
बंद मुट्ठी, तने सिर का है कारवाँ
ये हाशियों पर धकेले गए शब्द हैं
यह किसानों की हत्याओं पर शोक है
न आरोह है, न ही अवरोह है
दाल-रोटी की निसदिन उहा-पोह है
ये हारी-थकी शाम का पाँव है
बिना मछली लिए लौटती नाव है
ये संसद में बिकता हुआ गाँव है
गीत खोया जहाँ ये वही खोह है
न आरोह है, न ही अवरोह है
दाल-रोटी की निसदिन उहा-पोह है।

© Vivek Mishra : विवेक मिश्र

 

दु:स्वप्न

आतंक के साए में अक्सर
स्वप्न इक बनता-बिगड़ता
देखता हूँ रात-दिन
ठहर जाती है हवा
और डूब जाते स्वर कहीं
नीचे नहीं आती है गेंद
जो उछाली थी
बच्चों ने आसमान में
एक घाटी की ढलानों पर
दौड़ता जाता हँ मैं
फिर एक बवंडर
लील लेता है
मेरे स्वप्न को
और ला गिराता है मुझे
एक निस्तब्ध से मैदान में
यहाँ हैं बिखरी हुईं लाशें कई
क्षत-विक्षत
और दो काले साए रो रहे हैं
बिखरे हुए टुकड़े उठाकर
ढो रहे हैं
उनके रुदन से कान
मेरे बज रहे हैं
उसी रुदन के बीच में
चीख़ पड़ता है कोई-
”देख ये टुकड़ा जो है
मेरा लाल हिन्दुस्तान है।”
”…देख ये गाढ़ा लहू
मेरा नाज़ पाकिस्तान है।”
सपना बहुत भारी है ये
और नींद हल्की है मेरी
सो टूट जाती है
और देखता हूँ
घर से बाहर
बच्चों को गेंद
आसमान में उछालते
आश्वस्त हो जाता हूँ
जब गेंद नीचे आकर
ज़मीन से टकराती है
सोचता हूँ
चलो अच्छा हुआ
यह स्वप्न था
पर सोचता हूँ
किसी दिन
आसमान में उछाली हुई गेंद
ज़मीन पर न लौटी तो!
….किसी दिन मेरा
दु:स्वप्न न टूटा तो…!

© Vivek Mishra : विवेक मिश्र

 

मेरी कविताएँ

मेरी कविताओं के पास
पंख नहीं हैं
नहीं तो उन्हें मिल सकता था
दूर तक फैला आकाश
मेरी कविताओं के पास
पैर भी नहीं हैं
नहीं तो नाप लेतीं ये
लम्बे-लम्बे रास्ते
पहुँच जातीं कहाँ से कहाँ
मेरी कविताओं में
नहीं लग पाए पहिए
नहीं तो भागतीं ये
फ़र्राटे के साथ सड़क पर
…चोट खाई,
घायल हैं मेरी कविताएँ
…और
मेरी कविताओं के पास
बैसाखियाँ भी नहीं हैं
फिर भी उन्हें डर है
मेरी कविताओं से
…साध रहें हैं वे निशाना
और घायल हो रहीं हैं कविताएँ
हो रहीं हैं और ख़तरनाक
उनके लिए
मेरी कविताएँ।

© Vivek Mishra : विवेक मिश्र

 

बीड़ी जलइले

हीं चाहिएँ चांद-सितारे
इक सूरज देना भिनसारे
जिस पर रोटी सेंक सकूँ मैं
नहीं चाहिए शाम सुहानी
बस सूखे उपले मिल जाएँ
जिनकी धीमी आँच में खद-बद
दिन भर के सब दर्द पकाएँ
बुझे जिगर से कैसे हम
उमस भरी इस गर्मी में
सीली-सी बीड़ी सुलगाएँ
नहीं चाहिएँ चांद-सितारे
रात अंधेरी देना मौला
कितने भूखे पेट सोए हैं
जिससे कोई जान न पाए
रात अंधेरी देना मौला
फिर ख़ुशी-ख़ुशी कल सूरज आए
……ख़ुशी-ख़ुशी कल सूरज गाए-
”बीड़ी जलइले
जिगर से पिया
जिगर मा बड़ी आग है।”

© Vivek Mishra : विवेक मिश्र