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वही एक शाम

वही एक शाम
भीतर भी
बाहर भी
छुपी भी
उजागर भी
वही एक शाम
मेरी साँसों में चुभती है
थकन भरी रातों में
उखड़ी-सी नींदों में
बहुत हल्के से दुखती है
टूटे से, बिखरे से
सपनों की बूंदों से
ये मेरे मन का ताल
भरता है
सूखता है
सूखता है
भरता है
उसी से जो नमी-सी है
ताल के किनारों पर
उसमें ही रह-रह के
वही चंदा चमकता है
वही एक शाम
मेरी साँसों में चुभती है
जिसकी मटमैली चांदनी में
बरगद के नीचे जब
मिट्टी के ढेर पर
रखकर दो पत्थर
रो-रो के जब हमने
निशानियाँ दबाई थीं
अब भी वो पत्थर दो
छाती पे धरे हो
भीतर भी
बाहर भी
छुपी भी
उजागर भी
वही एक शाम
मेरी साँसों में चुभती है
उठ-उठ के आती हैं
बरगद के नीचे से
निशानियाँ वो संग मेरे
अक्सर ही चलती हैं
वही एक शाम मेरी
साँसों में चुभती है
थकन भरी रातों में
उखड़ी-सी नींदों में
बहुत हल्के से दुखती है।

© Vivek Mishra : विवेक मिश्र

 

 

आम बाग़ में

तेज़ दोपहर
जब आम बाग़ में
कोयल भी छुप जाया करती है
गहरे में मेरे भीतर
तब कोई
तेरा नाम ले चहका करता है
विश्वास नहीं होता
कभी मैं और तुम
हम-उम्र हुआ करते थे
बचपन से तुम यौवन तक पहुँची हो
मैं सदियों बूढ़ा
कछुए-सा
अपने खोल में मुँह दुबकाए
उसी पुराने आम बाग़ में
अपनी पीठ पर
कई-कई मन आम उठाता हूँ
शाम का छींटा बाग़ीचे में
जब पड़ता है
कली-कली, पत्ता-पत्ता
तेरी याद से महका करता है
देर रात जब उस झुरमुट में
चांद उतरने लगता है
एक ख़्वाब तेरे आने का
दिल में दहका करता है
उस टहनी से उलझा
तेरा आँचल
अब तक लहराता है
अब भी उसकी ख़ुशबू से
मेरा मन बहका करता है
मेरा चेहरा थोड़ा
और दरक जाता है
जब मैं तुम्हारा हम-उम्र
दिखता हूँ तुम से
सदियों बूढ़ा
तुम्हारा नाम दबाकर
होंठों में
कहता हूँ-
”सलाम मेमसाब!
आम लेते जाइए
इस बार बड़े मीठे हैं”
तुम पूछती हो-
”तुमने खाए हैं क्या?”
मैं घबरा कर कहता हूँ-
”बचपन से सुनता आया हूँ
इस बाग़ के आम
बड़े मीठे होते हैं!”
गहरे में मेरे भीतर
तब भी कोई
तेरा नाम ले
चहका करता है।

© Vivek Mishra : विवेक मिश्र