वही एक शाम
भीतर भी
बाहर भी
छुपी भी
उजागर भी
वही एक शाम
मेरी साँसों में चुभती है
थकन भरी रातों में
उखड़ी-सी नींदों में
बहुत हल्के से दुखती है
टूटे से, बिखरे से
सपनों की बूंदों से
ये मेरे मन का ताल
भरता है
सूखता है
सूखता है
भरता है
उसी से जो नमी-सी है
ताल के किनारों पर
उसमें ही रह-रह के
वही चंदा चमकता है
वही एक शाम
मेरी साँसों में चुभती है
जिसकी मटमैली चांदनी में
बरगद के नीचे जब
मिट्टी के ढेर पर
रखकर दो पत्थर
रो-रो के जब हमने
निशानियाँ दबाई थीं
अब भी वो पत्थर दो
छाती पे धरे हो
भीतर भी
बाहर भी
छुपी भी
उजागर भी
वही एक शाम
मेरी साँसों में चुभती है
उठ-उठ के आती हैं
बरगद के नीचे से
निशानियाँ वो संग मेरे
अक्सर ही चलती हैं
वही एक शाम मेरी
साँसों में चुभती है
थकन भरी रातों में
उखड़ी-सी नींदों में
बहुत हल्के से दुखती है।
© Vivek Mishra : विवेक मिश्र