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प्रण

जन्मदाती धात्रि! तुझसे उऋण अब होना मुझे
कौन मेरे प्राण रहते देख सकता है तुझे
मैं रहूँ चाहे जहाँ, हूँ किन्तु तेरा ही सदा
फिर भला कैसे न रक्खूँ ध्यान तेरा सर्वदा

Maithili Sharan Gupt : मैथिलीशरण गुप्त

 

क़ब्रगाह

साहब को मिला था
नया बंग्ला
मिली थी विदेश मंत्रालय में
सचिव की कुर्सी
उन्हें हमेशा से पसंद थे
विदेशी वस्तुएँ
साफ़
सफ़ेद
चमकदार।
पसंद थे विदेशी दोस्त
विदेशी तोहफ़े!
तोहफ़े में ही आई थीं
सफ़ेद ग़ुलाब की विदेशी क़लमें
जो रोप दी गई थीं
लॉन की एक क्यारी में
जहाँ सजती थी शाम
महकते थे देशी क्यारियों में
विदेशी फूल
तभी एक दिन
बूढ़े माली ने कहा था
जवान भिश्ती के कान में-
”पहले यहाँ क़ब्रगाह थी
यहाँ दफ़्न हैं
आज़ादी के कई परवाने”
भिश्ती ने माली की बात
अनसुनी कर दी थी
पर एक शाम
उसने देखा
कि विदेशी नस्ल के
सफ़ेद ग़ुलाब के पौधे
जब पनपे बंग्ले की उस क्यारी में
तो उनके फूलों का रंग …लाल था!
बूढ़ा माली फिर बुदबुदाता रहा था-
”विदेशी ग़ुलाब की जड़ों ने
मिट्टी में जाकर
मुँह खोल ही दिया
तोहफ़ों के आड़ में हुए
दस्तावेज़ों के सौदे का राज़
बोल ही दिया।
अब उन्हें कैसे नींद आएगी
इस क़ब्रगाह में!
अब किसे नींद आएगी
इस क़ब्रगाह में!”
सचमुच
फिर उस बंग्ले में
कोई सो न सका
न साहब
न मेमसाहब
न बिटिया रानी
और कुत्ता तो
रात भर रोता था
बूढ़ा माली सच कहता था
सचमुच ही
पहले वहाँ क़ब्रगाह थी।

© Vivek Mishra : विवेक मिश्र

 

दु:स्वप्न

आतंक के साए में अक्सर
स्वप्न इक बनता-बिगड़ता
देखता हूँ रात-दिन
ठहर जाती है हवा
और डूब जाते स्वर कहीं
नीचे नहीं आती है गेंद
जो उछाली थी
बच्चों ने आसमान में
एक घाटी की ढलानों पर
दौड़ता जाता हँ मैं
फिर एक बवंडर
लील लेता है
मेरे स्वप्न को
और ला गिराता है मुझे
एक निस्तब्ध से मैदान में
यहाँ हैं बिखरी हुईं लाशें कई
क्षत-विक्षत
और दो काले साए रो रहे हैं
बिखरे हुए टुकड़े उठाकर
ढो रहे हैं
उनके रुदन से कान
मेरे बज रहे हैं
उसी रुदन के बीच में
चीख़ पड़ता है कोई-
”देख ये टुकड़ा जो है
मेरा लाल हिन्दुस्तान है।”
”…देख ये गाढ़ा लहू
मेरा नाज़ पाकिस्तान है।”
सपना बहुत भारी है ये
और नींद हल्की है मेरी
सो टूट जाती है
और देखता हूँ
घर से बाहर
बच्चों को गेंद
आसमान में उछालते
आश्वस्त हो जाता हूँ
जब गेंद नीचे आकर
ज़मीन से टकराती है
सोचता हूँ
चलो अच्छा हुआ
यह स्वप्न था
पर सोचता हूँ
किसी दिन
आसमान में उछाली हुई गेंद
ज़मीन पर न लौटी तो!
….किसी दिन मेरा
दु:स्वप्न न टूटा तो…!

© Vivek Mishra : विवेक मिश्र